30 जुलाई 2011

अपना परिचय

ओम प्रकाश दीपक का परिचय

(उन्होंने यह अपना परिचय एक आलेख संग्रह के लिए तैयार किया था.)

जन्मः २७ जनवरी १९२७, इलाहाबाद

लम्बी ख़ानाबदोशी के बाद अक्टूबर नवम्बर १९६१ से दिल्ली में. पिछले बीस पच्चीस सालों में प्रूफ़रीडरी से ले कर संपादगी तक की - संपादकी के बाद प्रूफ़रीडरी, इस क्रम से भी. अगस्त १९४२ में पन्द्रह साल की उम्र में पहली गिरफ़्तारी के कुछ दिनों बाद से ही समाजवादी आन्दोलन से सम्बद्ध रहा हूँ. ज़िन्दगी में राम मनोहर लोहिया से जितना सीखा उतना किसी और से नहीं. लिखना बहुत अनियमित रहा. दिल्ली आने के बाद से ज़रूर बहुत कुछ नियमित लिख रहा हूँ. अनुवाद किए, स्वतन्त्र पत्रकारिता भी की, सड़कें भी नापीं. आजकल "जन" का संपादन कर रहा हूँ.

१९४९ में उस लड़की से भेंट हुई थी जिसने दो साल बाद पत्नी के रूप में मेरी ज़िन्दगी में हिस्सा बँटाने का जोखिम भरा सफ़र शुरु किया. अभी तो सफ़र चल ही रहा है. एक बेटा है, दो बेटियाँ.

इस परिचय को उनके हाथ की लिखायी में पढ़िये.



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29 जुलाई 2011

छिटपुट

हैदराबाद, 5 फरवरी 1957

आज कमला का एक पत्र और आया है. पैसे मिल गये थे. हाल तकरीबन अच्छा ही है. लिखा है कि दिल्ली जा रही हूँ. अगर टैक्स देना पड़ा तो माता जी को अपने पैसों में से ही देना पड़ेगा. डेढ़ सौ कर्ज़ भी लिया माता जी ने और सब इधर उधर में ही निकल गया. मई में गुड्डे का मुंडन करना होगा. पता नहीं मानवी के पैसे उसके लिए मिलेंगे या नहीं.

पत्र में कमला ने मेरी उस डायरी का भी ज़िक्र किया है जो मैंने लखनऊ में लिखा था. तब से अब बहुत कुछ बदल गया है. जीवन में वह तनाव नहीं है, न अच्छा, न बुरा. जो जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं, उसकी क़दर शायद मैंने अधिक सीख ली है और उससे अधिक की मांग करना कमला ने बन्द कर दिया है. हम दोनो में कुछ दिमागी प्रौढ़ता भी आ गयी है. सम्बन्धों की बात क्या करूँ? चमक कम है, स्थायित्व ज़्यादा है. चमक भी शायद इसलिए कम है कि कि फुर्सत ही नहीं है. मैं अलग फँसा हूँ और मुझसे भी ज़्यादा वह फँसी हुई है, घर के झँझटों में. चमक कहाँ से आये. लेकिन इस एक साल के अन्दर अगर उसका स्वास्थ्य ठीक हो जाये और पैसों का दिन रात का रोना ख़तन हो तो चमक भी फ़िर आ जायेगी, यह निश्चित ही है.

और कोई विषेश बात नहीं है. इंदुमति की पुस्तिका पहले तैयार करनी है. उसके बाद रिपोर्ट. साप्ताहिकी का काम सो संभवतः कल खंतम हो जायेगा.

बड़ी बहन जी और कशपी को ख़त लिखे थे, आज भेज भी दिये हैं.

हैदराबाद, 7 फरवरी 1957

कमला का एक पत्र कल दिल्ली से आया. ठीक ही है सब जवाब भी कल रात को भेज दिया था. बद्री आज दफ्तर आये थे, लेकिन मैंने कोई बात नहीं की, तबियत भी नहीं है कि करूँ. फ़िर किसी समय भेंट हुई तो जितेन्द्र सिंह, लक्ष्मीकांत और लक्ष्मीनारायण लाल वगैरह की शिकायत पहुँचा दूँगा. देखूँ क्या कहते हैं. भारती को चिट्ठी लिखनी चाहिये. याद रहा तो लिखूँगा.

रमा को आज लोकनाथ ने टेलीफ़ोन किया था. उसके पहले एक टेलीफोन रीवा से आया था. विधानसभा में निशान "पंजा" दे दिया है और रमा को "पेड़". लोकनाथ आज दिल्ली जा रहा है. यह जो सिलसिला चुनाव कमिश्नर ने निकाला है यह तो पार्टी पद्धिति के ही विरुद्ध है. देखें क्या होता है.

इन्दिरा गाँधी ने प्र.सो.पा. पर जो आरोप लगाया था, वह वापस ले लिया है, नेहरू के कहने पर. कुछ टीका करना व्यर्थ है. सिहोरा की रिपोर्ट लिखनी आज शुरु की है.

भविष्य का सिलसिला कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या होगा. गोस्वामी ने आज कुछ काम देने को कहा है, पचीस तीस रुपये का. चलो यही सही.

इन्दुमति को भी एक पत्र आज भेजा है. पुस्तिका के बारे में. उसमें भी डाक्टर साहब से डाँट खानी पड़ेगी शायद.

और क्या लिखूँ, दिमाग खाली सा ही है. वह कहानी जो अंग्रेजी में लिखनी शुरु की है, पूरी करनी है. कल से कुछ चिट्ठी पत्री भी शुरु करनी है.

हैदराबाद, 8 फरवरी 1957

आज सुबह कृष्ण कुमार का पत्र आया है. गोपी ने उसे पैसे नहीं दिये और वह चुनाव नहीं लड़ सका. उसे उत्तर भी आज भेज दिया है, देखें क्या जवाब देता है.

सोच रहा हूँ कि किन्हीं विदेशी पत्रिकाओं के लिये अगर कुछ लिखूँ तो काफ़ी पैसा मिले. सुरेन्द्र से भी इस पर बात की है. वह खुद कुछ लिखने की सोच रहा है. कल अगर USIS की लायब्रेरी से जा कर कुछ पते ले आऊँ तो परसों एक लेख लिख डालूँ और एक आध को भेज दूँ. अगर एक भी छप जाये तो काफ़ी पैसे मिल जायें. Books Abroad के लिए Asian Writers Conference पर भी कुछ लिख कर भेज सकता हूँ. या Harper's Magazine भी कुछ काम की हो.

(ओम की डायरी से)

09 जुलाई 2011

ओम की डायरी

हैदराबाद, 3 फरवरी 1957

कई सालों के बाद फ़िर जर्नल लिखना शुरु कर रहा हूँ. इस बीच में कितना कुछ हो चुका है. पार्टी टूटी, नयी पार्टी बनी. "संघर्ष" तो मैंने शायद पिछली डायरी लिखने के समय ही छोड़ दिया था, लखनऊ भी छूटा. इलाहाबाद जाते ही मकान भी बिक गया, फ़िर गोपा मर गई. दस महीने लीडर प्रेस में प्रूफ़ पढ़ने के बाद उसे भी छोड़ा, छः महीने "आदमी" निकालने की चेष्टा करता रहा, फ़िर जुलाई छप्पन से यहाँ हैदराबाद में हूँ. पिछली बातों पर नज़र क्या डालूँ, नये साल से ही शुरु करना अच्छा होगा. मन में तो न जाने क्या क्या है. सब लिख भी नहीं सकूँगा.

सम्मेलन में जाने से पहले नव हिन्द वालों के लिए एक किताब लिखी, और मिले कुल डेढ़ सौ रुपये जबकि रायल्टी का हिसाब होता तो छः सौ बनते. कुछ अनुमान इसी से लग जाता है कि यह दुनिया क्या है, किस वातावरण में हूँ. मेरे जैसों की जगह कहाँ है, कुछ यही समझ में नहीं आता. यहाँ भी काम नहीं चलता. सब मिला कर पिछले सात महीनों में सात सौ रुपये पार्टी के और पांच सौ रुपये ऊपर से, कुल बारह सौ रुपये मिले हैं जिसमें से आठ सौ रुपये तो कमला को भेजे, 400 खुद खर्च किये और दो सौ का कर्ज़ है. मतलब हुआ कि दो सौ रुपये से कम में काम नहीं चल सकता. लेकिन दो सौ रुपये आयें कहाँ से? दफ्तर से सौ मिलते हैं, विपिन के आने पर बात करूँगा, तब शायद डेढ़ सौ कर दें. लेकिन 50 रुपये महीने की तो फ़िर भी कमी रहेगी ही. मार्च तक तो छोड़ कर जाना भी मुमकिन नहीं. समस्या यह है कि मार्च तक भी काम कैसे चलेगा. और छोड़ कर जाऊँगा भी कहाँ? सोच रहा हूँ कि कुछ विदेशी पत्रिकाओं के लिए कुछ लिखा करूँ. लेकिन एक तो कोई सिलसिला नहीं. दूसरे, अगर कोई छापे भी तो सम्पर्क बनाते कुछ समय लगेगा. ख़ैर कोशिश तो करूँगा ही, देखो क्या होता है.

इस बार इलाहाबाद की यात्रा सुखद से अधिक दुखद रही. जो हाल है घर का, उसने मन पर विचित्र सा बोझ छोड़ दिया है. माता जी अब थक गयीं हैं, उन्हें अब आराम की ज़रूरत है. लेकिन अगर वे काम छोड़ दें, तो वह आमदनी भी बन्द हो जाये. कमला सुबह छः बजे से ले कर रात तक जुटी रहती है, फ़िर भी उसे न मानसिक शान्ती है, न शारीरिक सुख सुविधा. गुड्डा बेचारा अलग परेशान रहता है. मुनियाँ से उसे कोई ईर्ष्या नहीं होती, लेकिन वह प्यार का, ध्यान का भूखा रहता है. दूसरी ओर माता जी और कमला के भावनात्माक तनाव के बीच, उसकी दुर्दशा हो जाती है. हिन्दुस्तान के ज़्यादातर घरों की हालत कहीं बुरी है, इससे कैसे संतोष मिले. उन्हें तो चेतना नहीं है. शारीरिक दुख वे उठाते हैं, लेकिन मन में उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. अपने साथ तो शरीर का दुख गौण और मन का दुख प्रधान है. भौतिक जीवन में भी सफ़ाई से रहना हमने सीखा है, इस कारण और भी कष्ट होते हैं. सफ़ाई से रहने के लिए पैसा चाहिये.

उस दिन गुड्डे को मैंने पीटा, वह मुझे बहुत दिन तक नहीं भूलेगा. गलती हमारी थी, उसे ले कर जाना ही नहीं चाहिये था. उसके वे शब्द, "मारो नहीं" न जाने कब तक मेरे कानों में गूँजते रहेंगे. कैसी क्रूरता है जीवन में. कैसी विडम्बना है. उसे बुखार में छोड़ कर आया था. न जाने कैसा है अब. कमला ने अभी तक पत्र नहीं भेजा.

(ओम प्रकाश दीपक की डायरी से)

02 जुलाई 2011

तस्वीरें

आज पहले समाजवादी पार्टी के अखिल भारतीय सम्मेलन से जुड़ी करीब पचास साल पहले की दो तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Badge, All India Socialist party assembly, 1959

Badge, All India Socialist party assembly, 1962

एक तीसरी तस्वीर है एक व्यक्ति की जिसे मैं नहीं पहचान पाया. क्या आप में से कोई बता सकता है कि यह कौन हैं?

Some person

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15 जून 2011

परंपरा और शूद्र नारी

परंपरा और शूद्र नारी
किशन पटनायक, सामयिक वार्ता, जून 1999

टिप्पणी - किशन पटनायक (1930 - 2004), समाजवादी धारा के प्रमुख चिंतक, लेखक और नेता थे. बचपन से मैंने उन्हें अपने पिता के मित्र के रूप में जाना था, और पिता के सभी मित्रों में से वे मेरे सबसे प्रिय थे. जब तक वह थे, आज यह स्वीकारते हुए शर्म आती है कि मैंने उनका लिखा कभी कुछ नहीं पढ़ा था, उनकी मृत्यु के बाद ही उनका लिखा पढ़ना शुरु किया. आज "ओम और कमला" पर उनका एक विचारोतेजक आलेख प्रस्तुत है जो सामयिक वार्ता पत्रिका में सन् 1999 में छपा था.

किशन की यह तस्वीर मैंने 2003 में खींची थी जब वह दिल्ली में एक गोष्ठी में बोलने आये थे, वही आखिरी बार थी जब मैंने उन्हें देखा था.

Kishen Patnaik, Indian socialist leader, image by S. Deepak

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पिछले एक दशक या अधिक समय से एक ऐसी जीवन दृष्टि समूची दुनिया पर हावी होती जा रही है कि प्रचलित मूल्यों में किसी प्रकार का बड़ा परिवर्तन जल्दी दिमाग को सूझता नहीं है. जब सत्ता और विचार दोनो एक ध्रवुवीय हो जाते हैं तब बुनियादी परिवर्तन की बात सामान्य मालूम होती है. लगता है, जो है वही रहेगा. सत्ता की पहल से ही कोई सुधार हो सकेगा.

जब तक स्थापित सत्ता और प्रचलित विचार को चुनौती देने वाला कोई दूसरा ध्रुव दिखायी नहीं पड़ता है, तब तक किसी बड़े बदलाव के पक्ष में भावनाएँ पैदा नहीं होती. बदलाव की कल्पना बिखरे हुए सोच और छिटपुट कर्म तक सीमित रहती है.

नारी आंदोलन इस जड़ता का शिकार है. इस भ्रम का शिकार नहीं होना चाहिये कि उदारीकरण जगतीकरण के युग में आर्थिक लक्ष्यों पर आधारित क्रांतीकारी आंदोलन का न होना तो स्वाभाविक है, लेकिन नारी आंदोलन तथा अन्य सामाजिक आंदोलन अधिक गतिशील होंगे, क्योंकि जगतीकरण आधुनिकता का वाहक है. असलियत यह है कि आधुनिकता का जो नया दौर आया है उसका नारी आंदोलन से कोई सकरात्मक संबंध नहीं हो सकता है.

नारी की स्वतंत्रता और नारी पुरुष के बीच सामाजिक समानता का कोई आक्रामक विचार दुनिया के किसी कोने में प्रभावी नहीं है. जिन दिनों जनतंत्र को अधिक प्रगतिशील बनाने के लिए वैचारिक सरगरमी थी, या पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, तानाशाही और रंगभेद आदि के विरुद्ध संघर्ष और विचार दोनो स्तरों पर आंदोलनों की तीव्रता दुनिया के विभिन्न देशों में थी, उन्ही दिनों दबे हुए अन्य मानव समूहों के साथ साथ महिलाओं का आंदोलन भी सक्रिय हुआ था. स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्य मनुष्य मात्र के लिए ज़रूरी लगते थे, यह एक वैचारिक स्थिति थी. इसी से प्रेरित हो कर मजदूर आंदोलन भी संगठित हो जाता था और नारी आंदोलन भी. जब सम्रग वैचारिक परिप्रेक्ष्य के केन्द्र से समानता का मूल्य हट गया है तो नारी वर्ग में उसकी आकांक्षा कँहा से आयेगी? (प्राचीन भारत की समग्र विचार संपदा में स्वतंत्रता का मूल्य स्पष्ट नहीं होता है, लेकिन समत्व विचार के केन्द्र में था)

सत्तर अस्सी के दशकों में पश्चिम के नारी आंदोलन में एक ज्वार आया था जिसका प्रभाव विकासशील देशों में भी अनूभूत हुआ है. आंदोलन के प्रभावी दौर में भी यह परिभाषित नहीं हो सका कि नर नारी समानता का क्या मतलब है? नारी पुरुष की जो प्राकृतिक भिन्नताएँ हैं उसके साथ समानता का समन्वय कैसे हो सकेगा, और प्रचलित विषमतापूर्ण अर्थव्यवस्था में वह कितना संभव है? क्या हमारी साँस्कृतिक मान्यताएँ उसके अनुकूल हैं? इन प्रश्नों पर स्पष्ट विचार न होने के कारण उपर्युक्त आंदोलन का गहरा और व्यापक प्रभाव विकासशील देशों के समाजों पर नहीं हो पाया है.

Art work by Sunil Deepak on the theme women, castes, India

भारत में हाल के दिनों में संसद में आरक्षण के सवाल को ले कर नारी आंदोलन में तीव्रता आयी, लेकिन बहुत सारे सवाल जो पहले उठते थे, छिप गये हैं. पानी, ॡाखाना, चूल्हे आदि सवालों को मौजूदा नारी आंदोलन अपनाना नहीं चाहता है. कहा जाता है कि नारी आंदोलन का नेतृत्व शहरी मध्यवर्गीय है. ऐसा होना कोई गलत बात नहीं है. सवाल है कि क्या आंदोलन का लक्ष्य दूरगामी है और अधिकांश महिलाओं के जीवन से इसका संबंध है? पानी, पाखाना, चूल्हा, यह सब महिलाओं की समस्या नहीं, पूरे समाज की समस्या है. नारी पुरुष दोनों की समस्या तो है ही. लेकिन इन समस्याओं से महिलाओं की तकलीफ़ ज़्यादा बढ़ती है, इसीलिए इन्हें महिला आंदोलन का विषय बनना चाहिये. इन सवालों को उठा कर ही दबी कुचली महिलाओं की चेतना में समानता की आकांक्षापैदा की जा सकती है. मध्य वर्ग में पैदाइश के कारण नहीं, बल्कि सामान्य और देहाती महिलाओं के सवालों को न उठा पाने के कारण नारी नेतृत्व का चरित्र शहरी मध्यवर्गीय हो जाता है.

दहेज, और विज्ञापन में नारी का प्रदर्शन भी आंदोलन का महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रह गया है, क्योंकि आधुनिक उदारवादी विचारधारा ने उपभोक्तावाद को संपूर्ण स्वीकृति दे दी है. दहेज का प्रचलन तेज नहीं होगा तो अधिकांश देहात में रंगीन टेलीविज़न और दोपहिए वाहनों की बिक्री बंद हो जायेगी. विज्ञापन में नारी के जिस ढंग के प्रदर्शन को अपसंस्कृति माना जाता था वह अभी देश के महानगरों में संभ्रांत समाजिकता की सूचक है, वही आधुनिक जीवन शैली है. इंडिया टुडे, आउटलुक आदि पत्रिकाओं का एक विषेश काम है जीवन शैली और जीवनदर्शन के ऐसे विचारों को प्रसारित करना जो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के पोषक हैं. लगभग समूचा शिक्षित वर्ग इन विचारों का अनुमोदन कर रहा है. पानी पाखाना जैसी सुविधाएँ सबके लिए हों, ऐसी बातें इस विचारधारा में निहित नहीं हैं. इसलिए इस वक्त की प्रमुख और एकमात्र विचारधारा शंघर्ष किये बगैर कोई महिला आंदोलन बहुजन महिलाओं का सवाल नहीं उठा सकता है. उदारवादी विचार का समर्थक नारी संगठन सिर्फ महिलाओं पर होने वाले स्थानीय अन्याय अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठा सकता है, या विदेशी अनुदान देने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सुझाये गये कार्यक्रमों को चला सकता है.

ऐसी हालत में आधुनिकता बनाम परंपरा की बहस से जल्दी कोई निष्कर्ष निकलने वाला नहीं है. आधुनिकता ने नारी और पुरुष को समान माना है, लेकिन आधुनिक संस्कृति और अर्थव्यवस्था इसके अनुरूप नहीं हैं. पश्चिम के विकसित देशों के समाज में नारी का स्थान दोयम दर्जे से बेहतर नहीं है. कुछ देशों में आर्थिक रूप से असहाय तबका न होने के कारण यह जल्दी दीखता नहीं है. अत्यंत धनी देशों में असहाय और बेरोज़गार नागरिकों को मिलने वाली सरकारी सहायता अगर हटा दी जाये तो नारी की स्थिति बदतर हो जायेगी. गरीब राष्ट्र इस प्रकार की सहायता नहीं दे सकते हैं. इस बात का खंडन कोई नहीं करता है कि उदारीकरण से महिलाओं की बेरोज़गारी बहुत अधिक बढ़ जायेगी. न सिर्फ रोज़गार का दायरा संकुचित होगा, ब्लकि बेरोज़गार औरतों का स्थान परिवार में भी नहीं होगा. उदारवादी विचार में इस संकट का कोई समाधान नहीं है. कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ जिस प्रकार का सुझाव दे रही हैं वह विकासशील देशों की नारी को गुलाम बनाने की दिशा में है.

तर्क के लिए कहा जा सकता है कि परंपरावादी विचार इससे बेहतर था. नारी पुरुष की विषमता को प्राकृतिक या दैवी नियम मान कर उसके अनुरूप जो संस्थाएँ बनायी गयी थीं उनमें सुरक्षा और संतुलन पर ध्यान दिया जाता था. पारंपरिक समाज में जब यह संतुलन नष्ट हो जाता था, तब समाज की पतनशीळ अवस्था आ जाती थी. सारे संगठित धार्मिक समाज नारी को दोयम दर्जा देते हैं. असमानता के सिद्धांत को मान लेने के बाद कई जटिलताएँ खत्म हो जाती हैं. सुरक्षा समाज का दायित्व हो जाती हैं. समाज पर विपत्ति आने से नारी को अधिक कष्ट होगा, कारण वह नारी है.

असमानता के दर्शन को मानने वाला समाज का विकास जब स्थिर ढंग से होता है तब नारी व्यक्तित्व के कुछ गुणों का खास विकास होता है. ये गुण बहुत सभ्य और सुंदर लगते हैं. इन गुणों को तीन विभागों में एकत्रित किया जा सकता हैः मातृत्व भाव के गुण, भोटे पैमाने के कार्य में कुशलता और रूप सज्जा. इन गुणों का विकसित होना पारंपरिक समाज की उपलब्धी मानी जाती है. इन में से कुछ गुण कुछ खास प्रकार के सामाजिक आर्थिक घेरे में रहने का परिणाम है, और कुछ गुण संभवतः नारी प्रकृति का पूर्ण विकास हैं. इस पर कोई विस्तृत समाज शास्त्रीय बहस नहीं हुई है कि इन आकर्षक गुणों में से किन गुणों को जान बूझ कर शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ाना चाहिये. सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि असमानता के दर्शन को बगैर माने नारी के इस आकर्षक व्यक्तित्व को काफ़ी हद तक बनाये रखने के लिए समानता की एक नयी संस्कृति और नयी आर्थिक व्यवस्था की ज़रूरत हो सकती है. कुछ पारांपरिक गुण ऐसे हैं जिनको समानता के किसी भी ढांते में छोड़ना ही होगा. गांधी और रविन्द्रनाथ के विचारों मे यह संदेश मिलता है कि नारी के पारंपरिक व्यक्तित्व का एक अंश नारी की महत्वपूर्ण विषेशता है. उसको बनाये रखने के लिए संस्कृति और अर्थ व्यवस्था की आधुनिक अवधारणाओं को बदलना होगा. इस विषय पर उनके बाद के समय में ज़्यादा चर्चा नहीं हुई है, समाजशास्त्र में तो बिल्कुल नहीं हुई है.

सामाजिक संरचना में जब सबसे निजी सम्पत्ति और हिंसा को संस्थागत रूप दे दिया गया है तब से नारी का दोयम दर्जा स्थापित हो गया है. उसके पहले की तस्वीर बहुत साफ़ नहीं होने पर भी इतना स्पष्ट है कि नारी नेतृत्व वाले बड़े मनुष्य समूह बड़ी संख्या में रहे हैं. जैसे जैसे निजि सम्पत्ति और हिंसा की व्यवस्था दृढ़तर होती गयी है नारी नेतृत्व वाले जन समूहों की संख्या घट कर अब शून्य में आ गयी है. इसका समाजशास्त्रीय निष्कर्ष निकलना चाहिये. आधुनिकता का जो नया दौर जो भारत जैसे विकासशील देशों में चल रहा है उसमें सम्पत्ति व्यवस्था का निजिकरण अधिक तीव्रता से हो रहा है. निजि सम्पत्ति प्राप्त करने की होड़ में कामयाब हुए बगैर कोई महिला सम्मानजनक अस्तित्व नहीं बचा सकती है.

इसी अर्थ में पारंपरिक समाज की औरत ज़्यादा सुरक्षित (या व्यवस्थित) थी. पारंपरिक समाज में निजि संपत्ति का पैमाना छोटा था और सार्वजनिक संपत्ति अधिक थी. कमजोर तबकों का भरण पौषण सामूहिक संपत्ति से भी हो जाता था. पूँजी के बिना भी कई प्रकार के धंधे चलाये जा सकते थे. कुछ प्रकार के धंधे विषेशकर परित्यक्तताओं और विधवाओं के लिए होते थे. पूँजीवादी उद्योगीकरण के पहले के अधिकांश समाजों की संरचना ऐसी थी कि असहायता तथा बेरोजगारी को रोका जाता था. भारत के कई क्षेत्रों में उत्पादन और वितरण की सामूहिक व्यवस्थाएँ थीं. ध्यान देने वाली बात यह है कि परंपरा का यह सामाजिक पहलू नहीं, आर्थिक पहलू है. भारत में जो परंपरावाद की इस समय मुख्य धारा है वह सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर ही ध्यान केन्द्रित करती है. पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था या पूँजीवादी प्रौद्योगिकी पर उसने कभी कोई आपत्ति नहीं की.

सामाजिक परंपरा को ही लें तो परंपरा के कई कालखंड हैं. भारतीय परंपरा की मुख्यधारा का आग्रह उन सामाजिक परंपराओं के बारे में है जो ब्रिटिश पूर्व उत्तर भारत भारत में प्रचलित थीं. ब्रिटिश पूर्व काल में तथा ब्रिटिश राज के प्रारम्भिक काल में गंगा यमुना के क्षेत्र में नारी से संबधित जो द्विज परंपरा थी, उसको भारत की निकृष्ट परंपरा मानना चाहिये. सती, घूँघट, बाल विवाह आदि प्रथाओं का प्रकोप देश के अन्य क्षेत्रों में, विषेशकर गैरद्विज समूहों में नगण्य था. भारत का सामाजिक सास्कृतिक इतिहास नहीं लिखा गया है. जो तथ्य आ चुके हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि उपर्युक्त काल में भारत की अर्थ व्यवस्था मजबूत थी, गाँव की शासन व्यवस्था अच्छी थी, लेकिन सामाजिक व्यवस्था अच्छी नहीं थी. राष्ट्रीय चरित्र पतनशील था. पतनशीलता का आरंभ शायद सातवीं या आठवीं सदी से हो रहा था.

असल में भारत का इतिहास इतना लम्बा है कि "भारतीय परंपरा" को अच्छा या बुरा कहने का कोई मतलब नहीं होता है. परंपराओं का उत्थान पतन हुआ है. हम किस परंपरा की बात कर रहे हैं? इस विषय पर आलोचनात्मक दृष्टि न रहने का परिणाम यह है कि अतीत की कुछ गलत परंपराओं पर पलने वाले निहित स्वार्थ समूह परंपरावाद को अपना गढ़ बना लेते हैं. उनका विरोध करने वाले आधुनिकों का एक प्रगतिशील खेमा बन जाता है. दोनो का सह अस्तित्व और संयुक्त राज लंबे समय तक बना रहता है. भारत और अरब देशों का उदाहरण हमारे सामने है.

ब्रिटिश पूर्व काल में भारतीय नारी दोहरे अनुशासन के कटघरे में थी, जातिप्रथा और नारी का दोयम दर्जा. नारी का दोयम दर्जा तो सारी दुनिया की बात है. लेकिन उसके अतिरिक्त जातिप्रथा की कट्टरता के चलते द्विज नारियों को विषेश रूप से शुद्ध रहना पड़ता था. व्यवहार में सती की घटना बहुत ज़्यादा न होने पर भी सती होना एक आदर्श था. परंपरावाद का एक बौद्धिक खेमा है जो उसके औचित्य को समझाने का तर्क प्रस्तुत करता है.

द्विज समाज के बाहर विधवा विवाह पर भी पाबंदियाँ नहीं थीं. द्विज समाज कुल भारतीय समाज का छोटा सा अंश था. लेकिन परंपरा की दृष्टि से जब हम "भारतीय नारी" की बात करते हैं, हमारे सामने द्विज (शास्त्र के हिसाब से उच्च जाति की) नारी की तस्वीर खड़ी हो जाती है. समाज की आम धारणा में द्विज नारी ही अधिक सभ्य और शास्त्र के द्वारा समर्थित थी. शूद्र नारी अधिक स्वच्छंद थी, उसके लिए यौन संबंधी नैतिक मानदंड स्वभाविकता के नज़दीक था. वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो सकती थी, कारीगर बन सकती थी, सर्वसाधारण में हँस सकती थी और नाच सकती थी. व्यवहार में इतना भिन्न होने के बावजूद शूद्र नारी परंपरा को एक भिन्न परंपरा के रूप में चिन्हित नहीं किया जाता है. परंपरा की चर्चा में उसकी बात को छुपा दिया जाता है. यह समझ लिया जाता है कि धर्म शास्त्रों का प्रभाव शूद्र जातियों तक नहीं पहुँच पाता है, इसलिए उनका आचरण निकृष्ट हिंदू है. निकृष्ट हिंदू होने का भ्रम अधिकांश मंडलवादी तथा आधुनिकतावादी शूद्रों को भी है. जब भी उनके पास पैसा व प्रतिष्ठा आने लगते हैं, वे अपनी महिलाओं को द्विज नारी के साँचे में ढालने की कोशिश करते हैं.

यह शूद्र परंपरा आयी कहाँ से? एक अनुमान यह हो सकता है कि यह किसी बेहतर परंपरा का अवशेष है. जातिप्रथा की कट्टरता के पहले या उस कट्टरता के विरुद्ध जो प्रभावी धाराएँ थीं उनके अवशेष पर शूद्र परंपरा आधारित है. बौद्ध, लिंगायत, शक्तिपूजक जितनी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराएँ थी, उनकी अपनी अपनी सामाजिक व्यवस्था विभिन्न क्षेत्रों में थी. बाद के समय में मनुवादी हिंदू धर्म आक्रामक हो कर पूरे भारतीय समाज को जाति प्रथा के कठोर ढाँचे में संगठिक करने की कोशिश करता है. समूचा भारत उस ढाँचे के अंदर नहीं संगठित हो सका, लेकिन बौद्धिक स्तर पर उसने विजय प्राप्त कर ली. गैर मनुवादी भारतीय शास्त्र, दर्शन और संस्थाओं को खत्म करने की कोशिश ब्रिटिश काल में भी जारी रही. भारत की सारी प्राचीन विद्या शुद्र नारी परंपरा का विरोध नहीं करती है. प्राचीन साहित्य का एक बड़ा हिस्सा है जिसमें वर्णित समाज का ज़्यादा सामंजस्य शूद्र नारी परंपरा से है. राधा, पार्वती, द्रौपदी, वाल्मीकि की सीता जैसी नायकाओं का व्यवहार शूद्र नारी व्यवहार से जुड़ता है और ब्रिटिश पूर्व काल की द्विज नारी से बिल्कुल मेल नहीं खाता. अगर हम ब्रिटिश पूर्व उत्तर भारत की द्विज परंपराओं को एक पतनशील समाज की विकृति मान ले तो भारतीय नारी का बेहतर स्वरूप सामने आ सकता है. विडंबना यह है कि प्रभावशाली परंपरावादी उसी को असली भारतीय नारी मानते हैं, जो एक विकृति है.

कुछ विद्वान समूह शास्त्रों और परंपराओं को बौद्धिक और गैर बौद्धिक इन दो हिस्सों में बाँटते हैं. रक्षणशीलताको बौद्धिक धारा के साथ जोड़ दिया जाता है. यह गलत है. शायद पश्चिम की अध्ययन पद्धति का यह एक प्रभाव है. परंपराओं और विचारों में बहुत घालमेल है. ऐ एक का त्तव दूसरे में चला गया है और उसमें पूरी तरह से मिल गया है. काल खंडो के आधार पर ही भारत सृजनशील और पतनशील समयों में चिन्हित किया जा सकता है. इसमें कहीं कहीं क्षेत्र की विषेशता होगी. भौगोलिक तौर पर जाति प्रथा का बहुत ज़्यादा फैलाव अँगरेज़ों की हकूमत में हुआ. फ़िर भी अनेक क्षेत्रों में जातिप्रथा का संगठन नहीं हो सका. वहाँ की परंपराएँ बची रह गयी हैं. परंपराओं का सही अध्ययन तब होगा जब विभिन्न कालों और विभिन्न क्षेत्रों की स्वस्थ परंपराओं को जोड़ कर भविष्य निर्माणकारी तत्वों को सूत्रबद्ध करने का प्रयास होगा.

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19 फ़रवरी 2011

एक खिड़की खुली छोड़ देना

(कमला दीपक की डायरी से, जून २००२)

 
आज तुम्हारे बेटे का जन्मदिन है, वह अड़तालिस का हो जायेगा. वह आज कल नादिया के साथ न्यागाराह फालस के पास किसी स्थान पर अपनी संस्था की मीटिंग के लिए आया हुआ है. सतरह जून को दोनो यहां हो कर जायेंगे. मिनी भी लास एजेल्स अंजोर के पास आयी हैं सो आज अंजोर के साथ शाम को यहां आयेंगी एक सप्ताह के लिए. अंजोर के बेटा हुआ है, वह दादी और मैं परदादी बन गयी हूँ. मुझे बहुत अच्छा लगा परदादी बन कर. देखो कितनी लम्बी ज़न्दगी मुझे मिली है. तुम्हारे परिवार में मैं ही हूँ तुम्हारी पीढ़ी में शेष बची. सुख और दुख दोनो ही देख रही हूँ. बच्चों का स्नेह बहुत ही मिला है मुझे.

पिछले वर्ष बम्बई में थी कुछ दिन. बेटे बहू ने बहुत या यूँ कहूँ भरपूर स्नेह दिया. शोभा और निधु ने कमी महसूस नहीं होने दी दीदी जीजा की. परन्तु उनसे जुड़ी छोटी छोटी घटनाँए चलचित्र जैसी घूमती रहीं दिमाग में. निधुजी का घर कोलाबा के बधवार पार्क में दसवीं या इससे भी उपर की मंज़िल में था. चारों ओर समुद्र का अथाह जल ही जल. वहीं से गोवा भी विनी ले गयी थी. होटल समुद्र के किनारे ही था, वही जल ही जल खिड़की से दिखायी देता था. इसी सब को याद करके न जाने क्यों आज मुझे लोर्का की एक पंक्ति याद आ गयी कि "जब मैं मरूँ तो बालकनी की एक खिड़की खुली छोड़ देना". देखो ना कहाँ से कहाँ मन भटक गया है. मुझे लगता है कि जब अधिक स्नेह मिलता है तो ऐसे विचार ही जीवन को कुछ दिशा देने लगते हैं.

यहां पिंकी इसी महीने में किराये का घर छोड़ कर अपने घर में जायेगी. बोस्टन का घर छोड़ कर इसी वाशिंगटन के एरिये में घर खरीदा है उसने. तेरह जुलाई को मैं लौट जाऊँगी. पंद्रह दिन नये घर में रहना हो जायेगा. उनतीस जून को नये घर में जायेगी. गुड्डा भी एक सप्ताह ही रहेगा. जब यहाँ आ रही थी तो इस बार इटली का वीज़ा ही नहीं मिला था. सो ठीक ही है यहीं नादिया से भी भेंट हो जायेगी. गुड्डा तो अपने काम से भारत आता जाता ही रहता है. मार्को को करीब तीन वर्ष पहले देखा था. लम्बा हो गया है या यह कहना चाहिये कि जवान हो गया है पोता.

और तो कोई विषेश बात नहीं है. अशोक जी के पत्र लगातार आते हैं. इस बार कलकत्ता भी जाने की सोच रही हूँ, दिनेश दा को देखने का मन हो रहा है. बीमार भी चल रहे हें वह. अशोक जी का उनसे सम्पर्क बना रहता है, तो उनका समाचार मिलता रहता है. कुछ तुम्हारी पत्रिका भी वहां से निकल रही है. शायद बालकृष्ण स्वयं तो नहीं रहे, लेकिन भाई हैं उनसे भी मिल कर शायद तुम्हारी कुछ चीज़ें मिलें. और तो सब प्रयास चल ही रहे हैं.

पता नहीं क्यों, घूमना भी अब अधिक अच्छा नहीं लगता. इलाहाबाद में कृष्णा शरण को देखे भी मुद्दत ही हो गयी है. कब जाना होगा, कौन जाने. इस बार जहाँ जहाँ रही हूँ तुम्हारे साथ उन जगहों को पुनः देखने का मन कर रहा है. जब तक हूँ सोचती हूँ कि अपने ऊपर लिखना शुरु करूँ चलचित्र की तरह, सबके साथ चलता रहता है रात दिन तुम्हारे साथ जिया जीवन. अधूरा ही सही.

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माँ की डायरी से, जून 2002 बेथेस्डा अमेरिका. पिछले साल, आज के दिन ही माँ की अस्थि विसर्जन के लिए गये थे.

06 फ़रवरी 2011

उलझने

(कमला दीपक की डायरी से)

1 मई 2000 दिल्ली

ज़िन्दगी में कुछ इस तरह उलझी रही कि उस समय सुख की कद्र नहीं कर पायी और आज बार बार अतीत को याद करके लगता है कि मेरे पास कुछ ऐसा था जिसे मैं संभाल कर नहीं रख पायी. उस हीरे की कीमत लगा नहीं पाई थी. ज़िन्दगी के अन्य झमेलों में उलझी कहीं और ही भटकती रही. वह सब अब आयु के साथ इस पड़ाव में बहुत याद आ रहा है. इधर बहुत दिनों से तुम्हे देखा भी नहीं.

फ़रीदा ख़ानुम्म की गज़ल "आज जाने की ज़िद न करो, यू ही पहलू में बैठे रहो, जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम" की पंक्तियाँ दिमाग में घूमती हैं. फ़ैज़ को भी इधर बहुत दिनो से नहीं सुना. शायद वह कैसेट गुड्डे के पास है.

12 जून 2001 दिल्ली

इधर समय कुछ ऐसे गया कि कुछ पता ही नहीं चला. पिछले वर्ष मई 2000 में लिखा था, उसके बाद तुम्हारी लेखन सामग्री इकट्ठी करने में जुट गयी. पिंकी के पास से फरवरी 2000 में दिल्ली लौट आयी थी. चार वर्ष पूर्व कोहाट की ज़मीन बेच कर अलकनंदा में घर खरीदा था, स्वयं वहां रह नहीं पायी, लेकिन सामान सब वहीं रखा है. अधिक समय पिंकी के वास विदेश में निकल जाता है. यहाँ आ कर विनी के घर रह जाती हूँ. घर पास ही है, बीच बीच में जाती रहती हूँ.

इधर एक इच्छा हो रही है कि अब कुछ समय कहीं अलग से शान्त और सुनसान जगह पर व्यतीत करूँ. पिछले कई वर्षों में शरीर और मन दोनो से थक गयी हूँ. अड़सठ वर्ष की होने को आयी हूँ. मानसिक उथलपथल से छुटकारा नहीं मिल रहा है. अकेले परेशानियां सुलझाते सुलझाते थक गयी हूँ मैं, तुम सब मेरे भरोसे छोड़ कर लम्बी नींद सो गये.

1 सितंबर 2001, दिल्ली

तुम्हारा उपन्यास "कुछ ज़िंदगियाँ बेमतब" छप कर आ गया है. नन्द किशोर आचार्य ने भूमिका बहुत अच्छी लिखी है, छपाई भी अच्छी हुई है.

कभी कभी सोचती हूँ कि आदमी सम्पत्ति से नहीं स्वतंत्रता से सम्राट होता है. मेरे पास मैं हूँ और इससे बड़ी कोई सम्पदा नहीं है. मैं सोच नहीं पाती कि मेरे पास क्या नहीं है जो किसी सम्राट के पास है. सौंदर्य देखने के लिए आँखें हैं, हृदय है और प्रार्थना में प्रवेश करने की क्षमता है. पर फ़िर भी तुम्हारी कमी अखरती है.

शादी एक दूसरे के लिए सुविधानुसार एक साथ जीने के लिए की थी और एक दूसरे का ख्याल, एक दूसरे की ज़रुरत को समझा. कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया. कई बार तर्क वितर्क हुए लेकिन उस स्थिति में अच्छी तरह समझौता किया. शिकायतें थीं लेकिन कभी की नहीं तुमसे. तुम भी ज़रुरत के समय मेरे साथ रहे. साथ रहने व निर्णय एक दूसरे की इज़्ज़त के साथ एक दूसरे के लिए किया. सो अभी भी वैसा ही लगता है कि तुम्हारा एहसास तो हमेसा साथ रहेगा. तुमने तो बच्चों का कुछ देखा नहीं, मैं अच्छा बुरा सब देख रही हूँ तुम्हारे अंशों का.

(माँ की डायरी से)