19 फ़रवरी 2011

एक खिड़की खुली छोड़ देना

(कमला दीपक की डायरी से, जून २००२)

 
आज तुम्हारे बेटे का जन्मदिन है, वह अड़तालिस का हो जायेगा. वह आज कल नादिया के साथ न्यागाराह फालस के पास किसी स्थान पर अपनी संस्था की मीटिंग के लिए आया हुआ है. सतरह जून को दोनो यहां हो कर जायेंगे. मिनी भी लास एजेल्स अंजोर के पास आयी हैं सो आज अंजोर के साथ शाम को यहां आयेंगी एक सप्ताह के लिए. अंजोर के बेटा हुआ है, वह दादी और मैं परदादी बन गयी हूँ. मुझे बहुत अच्छा लगा परदादी बन कर. देखो कितनी लम्बी ज़न्दगी मुझे मिली है. तुम्हारे परिवार में मैं ही हूँ तुम्हारी पीढ़ी में शेष बची. सुख और दुख दोनो ही देख रही हूँ. बच्चों का स्नेह बहुत ही मिला है मुझे.

पिछले वर्ष बम्बई में थी कुछ दिन. बेटे बहू ने बहुत या यूँ कहूँ भरपूर स्नेह दिया. शोभा और निधु ने कमी महसूस नहीं होने दी दीदी जीजा की. परन्तु उनसे जुड़ी छोटी छोटी घटनाँए चलचित्र जैसी घूमती रहीं दिमाग में. निधुजी का घर कोलाबा के बधवार पार्क में दसवीं या इससे भी उपर की मंज़िल में था. चारों ओर समुद्र का अथाह जल ही जल. वहीं से गोवा भी विनी ले गयी थी. होटल समुद्र के किनारे ही था, वही जल ही जल खिड़की से दिखायी देता था. इसी सब को याद करके न जाने क्यों आज मुझे लोर्का की एक पंक्ति याद आ गयी कि "जब मैं मरूँ तो बालकनी की एक खिड़की खुली छोड़ देना". देखो ना कहाँ से कहाँ मन भटक गया है. मुझे लगता है कि जब अधिक स्नेह मिलता है तो ऐसे विचार ही जीवन को कुछ दिशा देने लगते हैं.

यहां पिंकी इसी महीने में किराये का घर छोड़ कर अपने घर में जायेगी. बोस्टन का घर छोड़ कर इसी वाशिंगटन के एरिये में घर खरीदा है उसने. तेरह जुलाई को मैं लौट जाऊँगी. पंद्रह दिन नये घर में रहना हो जायेगा. उनतीस जून को नये घर में जायेगी. गुड्डा भी एक सप्ताह ही रहेगा. जब यहाँ आ रही थी तो इस बार इटली का वीज़ा ही नहीं मिला था. सो ठीक ही है यहीं नादिया से भी भेंट हो जायेगी. गुड्डा तो अपने काम से भारत आता जाता ही रहता है. मार्को को करीब तीन वर्ष पहले देखा था. लम्बा हो गया है या यह कहना चाहिये कि जवान हो गया है पोता.

और तो कोई विषेश बात नहीं है. अशोक जी के पत्र लगातार आते हैं. इस बार कलकत्ता भी जाने की सोच रही हूँ, दिनेश दा को देखने का मन हो रहा है. बीमार भी चल रहे हें वह. अशोक जी का उनसे सम्पर्क बना रहता है, तो उनका समाचार मिलता रहता है. कुछ तुम्हारी पत्रिका भी वहां से निकल रही है. शायद बालकृष्ण स्वयं तो नहीं रहे, लेकिन भाई हैं उनसे भी मिल कर शायद तुम्हारी कुछ चीज़ें मिलें. और तो सब प्रयास चल ही रहे हैं.

पता नहीं क्यों, घूमना भी अब अधिक अच्छा नहीं लगता. इलाहाबाद में कृष्णा शरण को देखे भी मुद्दत ही हो गयी है. कब जाना होगा, कौन जाने. इस बार जहाँ जहाँ रही हूँ तुम्हारे साथ उन जगहों को पुनः देखने का मन कर रहा है. जब तक हूँ सोचती हूँ कि अपने ऊपर लिखना शुरु करूँ चलचित्र की तरह, सबके साथ चलता रहता है रात दिन तुम्हारे साथ जिया जीवन. अधूरा ही सही.

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माँ की डायरी से, जून 2002 बेथेस्डा अमेरिका. पिछले साल, आज के दिन ही माँ की अस्थि विसर्जन के लिए गये थे.

06 फ़रवरी 2011

उलझने

(कमला दीपक की डायरी से)

1 मई 2000 दिल्ली

ज़िन्दगी में कुछ इस तरह उलझी रही कि उस समय सुख की कद्र नहीं कर पायी और आज बार बार अतीत को याद करके लगता है कि मेरे पास कुछ ऐसा था जिसे मैं संभाल कर नहीं रख पायी. उस हीरे की कीमत लगा नहीं पाई थी. ज़िन्दगी के अन्य झमेलों में उलझी कहीं और ही भटकती रही. वह सब अब आयु के साथ इस पड़ाव में बहुत याद आ रहा है. इधर बहुत दिनों से तुम्हे देखा भी नहीं.

फ़रीदा ख़ानुम्म की गज़ल "आज जाने की ज़िद न करो, यू ही पहलू में बैठे रहो, जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम" की पंक्तियाँ दिमाग में घूमती हैं. फ़ैज़ को भी इधर बहुत दिनो से नहीं सुना. शायद वह कैसेट गुड्डे के पास है.

12 जून 2001 दिल्ली

इधर समय कुछ ऐसे गया कि कुछ पता ही नहीं चला. पिछले वर्ष मई 2000 में लिखा था, उसके बाद तुम्हारी लेखन सामग्री इकट्ठी करने में जुट गयी. पिंकी के पास से फरवरी 2000 में दिल्ली लौट आयी थी. चार वर्ष पूर्व कोहाट की ज़मीन बेच कर अलकनंदा में घर खरीदा था, स्वयं वहां रह नहीं पायी, लेकिन सामान सब वहीं रखा है. अधिक समय पिंकी के वास विदेश में निकल जाता है. यहाँ आ कर विनी के घर रह जाती हूँ. घर पास ही है, बीच बीच में जाती रहती हूँ.

इधर एक इच्छा हो रही है कि अब कुछ समय कहीं अलग से शान्त और सुनसान जगह पर व्यतीत करूँ. पिछले कई वर्षों में शरीर और मन दोनो से थक गयी हूँ. अड़सठ वर्ष की होने को आयी हूँ. मानसिक उथलपथल से छुटकारा नहीं मिल रहा है. अकेले परेशानियां सुलझाते सुलझाते थक गयी हूँ मैं, तुम सब मेरे भरोसे छोड़ कर लम्बी नींद सो गये.

1 सितंबर 2001, दिल्ली

तुम्हारा उपन्यास "कुछ ज़िंदगियाँ बेमतब" छप कर आ गया है. नन्द किशोर आचार्य ने भूमिका बहुत अच्छी लिखी है, छपाई भी अच्छी हुई है.

कभी कभी सोचती हूँ कि आदमी सम्पत्ति से नहीं स्वतंत्रता से सम्राट होता है. मेरे पास मैं हूँ और इससे बड़ी कोई सम्पदा नहीं है. मैं सोच नहीं पाती कि मेरे पास क्या नहीं है जो किसी सम्राट के पास है. सौंदर्य देखने के लिए आँखें हैं, हृदय है और प्रार्थना में प्रवेश करने की क्षमता है. पर फ़िर भी तुम्हारी कमी अखरती है.

शादी एक दूसरे के लिए सुविधानुसार एक साथ जीने के लिए की थी और एक दूसरे का ख्याल, एक दूसरे की ज़रुरत को समझा. कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया. कई बार तर्क वितर्क हुए लेकिन उस स्थिति में अच्छी तरह समझौता किया. शिकायतें थीं लेकिन कभी की नहीं तुमसे. तुम भी ज़रुरत के समय मेरे साथ रहे. साथ रहने व निर्णय एक दूसरे की इज़्ज़त के साथ एक दूसरे के लिए किया. सो अभी भी वैसा ही लगता है कि तुम्हारा एहसास तो हमेसा साथ रहेगा. तुमने तो बच्चों का कुछ देखा नहीं, मैं अच्छा बुरा सब देख रही हूँ तुम्हारे अंशों का.

(माँ की डायरी से)