27 अगस्त 2010

कौन हैं इस तस्वीर में?

यह तस्वीर 1967-68 की लगती है, इसमें दाहिनी तरह पहली कुर्सी पर जो बैठे हैं शायद वह हिन्दी लेखक देवीशंकर अवस्थी हैं और उनके साथ ओमप्रकाश दीपक. बाकी के लोग कौन हैं इस तस्वीर में यह तो कोई उस समय का लेखक पत्रकार भी बता सकता है. चेहरों को देख कर मन में धुँधले से नाम उभरते हैं लेकिन ठीक से याद नहीं आता. क्या आप किसी को पहचान सकते हैं?

Om Prakash Deepak, Devi Shanker Awasthi & other Hindi writers, 1967-68

23 अगस्त 2010

स्मृतियों के दंश

  (कमला दीपक की डायरी से)

आज न जाने क्यों स्मृतियां चीटियों की तरह लहुलुहान मन को चाटने लगी हैं. उम्र की इस पड़ाव पर पीड़ाएँ आप छुपा सकते हैं, चेहरे के कसाव या जुबान की खामोशी में, लेकिन उसका प्रभाव शरीर या मन पर पड़ने से कब रुक पाता है?

अन्तराल कितने वर्षों का आ गया है, तेईस वर्ष बीत गये. क्या कुछ हुआ, गुज़रा सबके अपने अपने दायरों में, कौन कितना रीता, कितना बदला, इस सब का हिसाब कैसे लगायें? अब लगता है कि अपने बाल उम्र में नहीं, सचमुच धूप में सफ़ेद किये मैंने. ठूँठ की ठूँठ ही रह गयी, खड़ी स्थिर और सब कुछ चलता नहीं, दौड़ता रहा, जैसे स्वयं ही नियती ने सब निश्चित कर दिया हो.

माँ के जीवन की सार्थकता उसके बच्चे ही होते हैं. वह स्वयं कुछ नहीं कर सकती. हालातों से मुक्ति मुश्किल है, उसे ही नये पुराने समाज में सामंजस्य बना कर सन्तान की ममता की डोर थामनी पड़ती है. मोह का जाल न चाहते हुए भी बुनता जाता है, जिसे काट कर मुक्त होने में स्वयं को असमर्थ पाती हूँ. वह क्षमता मुझमें कभी आयी ही नहीं. इसीलिए बदले समाज और मनुष्य से रिश्ता बदलते तेवरों को मैंने हमेशा अस्वीकार किया. खुल कर समाज के सामने आ कर के दायित्व ही निभाया किसी तरह.

आत्म विस्मृति मनुष्य को साधारण अवस्था में किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है. प्राकृतिक नियमों की सूक्ष्म श्रृखलाएँ स्वयं बनती बिगड़ती रहती हैं. कर्म के नियमों के कुछ पहलू यंत्रवत चलते हैं, सो बुद्धिमान व्यक्ति इन्हीं आदर्शों को प्रतीक मान स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल कर अपने हिसाब से ढ़ाल लेता है. यदि अदृश्य शक्ति मुझे थोड़ी बुद्धि और देती तो शायद मैं इस तरह की न बन कर कुछ अधिक प्रखर व स्वतंत्र खुद को बना पाती.

अब लगता है कि मैं स्वयं क्यों चार दिन भी अपने लिए न जी पायी. स्वयं को तलाशने की साध धरी रह गयी. बर्फीली नदियां शरीर पर बहती रहीं और मैं स्वयं मुट्ठी भर धूप बाँटती रही सभी के लिए. जहाँ तक सम्भव हुआ अपनी परम्परा व उत्तरदायित्व निभाती रही.

एक बार छोटी बेटी ने शिकायत भी की थी कि कैसे संस्कार दिये हैं कि उनसे बाहर निकल ही नहीं पाते. यहाँ दोषी हूँ, स्वयं भी नहीं निकल पायी.

मैं तो पल पल बहने वाले वर्तमान के सा इस तरह बह रही हूँ कि मेरे लिए भविष्य का कोई वजूद ही शेष नहीं है अब. कमज़ोर पड़ने लगी हूँ मैं. आस्थाएँ भी डगमगाने लगी हैं. लगता है कि अब इस एकांत में रह कर मैं स्वयं को तलाशने लगी हूँ. स्मृतियों की कर्म श्रृँखलाओं से मुक्ति चाहने लगी हूँ. स्वयं को भूलने लगी हूँ. कभी न कभी जाने किन गहराईयों में मन डूबने लगा है तब स्वयं को असहाय पाती हूँ. पिछले तेईस वर्षों में अकेले ही अपने दायित्वों और कर्तर्व्यों में उलझी रही और धीरे धीरे सभी प्रेरणा सोत्र और परिचित मेरा साथ छोड़ते जा रहे हैं, लोग जिन्होंने स्नेह और सहयोग से मेरी सहायता की, मेरे अकेलेपन और अभावों में साथ रहे. ऐसे प्रिय साथ छोड़ते गये जिनसे मन की बात होती थी.

पिछले कुछ दिनों से लगातार तुम्हें देख रही हूँ, लखनऊ, इलाहाबाद, हैदराबाद, दिल्ली और यहां अमेरिका में भी. अचानक नींद टूटती है, हड़बड़ा कर अपने आसपास देखती हूँ, बड़ी विचित्र हूँ मैं. कारण समझ नहीं पा रही हूँ. कहीं कुछ विषेश घटने वाली बात है क्या? जो घट रहा है उससे ज्यादा अब क्या होगा? आने वाला भविष्य और क्या लायेगा? कितनी ज़िन्दगी और है? अदृश्य रह कर तुम प्रेरणा देते हो, फ़िर भी बहुत कमज़ोर पाती हूँ स्वयं को. जब तक जीवन है सामना तो परिस्थितियों का करना ही होगा. भविष्य कब कहाँ छोड़ता है? कौन जाने. अचानक यह सब हुआ कि मुझे स्वयं को संभालने में समय लगेगा. ज़ख्म गहरा है न. सोचने की शक्ति भी अब तो नहीं रही. पढ़ने की कोशिश करती हूँ लेकिन जो पढ़ती हूँ याद नहीं रहता कि क्या पढ़ा है. दिमाग सुन्न है. आयु भी तो बढ़ रही है, उसी का असर होगा. फ़ैज़ की गज़ल का छोटा सा हिस्सा जो तुम्हें बहुत पसंद था और प्रायः गुनगुनाया करते थे दिमाग में घूम रहा हैः

वेती चले गये हैं दिल
याद से उनकी प्यार कर
ग़म है तेरे नसीब में
मौत का इंतज़ार कर

तुम्हारी स्मृति ही मेरी शक्ति, विश्वास और आस्था रही है, उसका अवलंबन कर यहाँ तक खिंचती चली आयी हूँ. इस बीच समझ नहीं पायी कि समय की गति के साथ बहते हुए यहां तक आयी हूँ. आज अचानक एक घटना याद आ गई, अचानक याद आ गया कि कहीं किसी की ऊँची आवाज़ आ रही है. प्लेन था फ्रेंकफर्ट से दिल्ली के लिए, सो सोचा घूम लेती हूँ, हैंडबेग उठा कर चल पड़ी. बहुत लोग इक्टठे थे और एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले स्वामी जी, गोरे लाल ऊँचे कद के, साथ ही गेरुआ वस्त्र धारण किये लोगों को पश्चिमी संस्कृति की आलोचना और भारतीय संस्कृति की विषेशताएँ बता रहे थे, "यहाँ के लोग मेटिरियलिस्ट हैं, मोबाईल और ट्राँजिस्टर के अतिरिक्त कुछ सोचते ही नहीं, ईश्वर, नैतिकता और धर्म को भूल बैठे हैं, लेकिन हम भारतीय नैतिक और आध्यात्मिक रूप से कितने विकसित हैं." स्वामी अच्छे वक्ता होने के साथ साथ विद्वान भी दिखाई देते थे. धर्म और दर्शन सम्बंधी संस्कृत के श्लोकों का अंग्रेज़ी अनुवाद भी पप्रभावशाली ढंग से कर रहे थे, भोग और मोह निन्द्रा में पड़े लोगों को धर्म और आध्यात्म का मार्ग बता रहे थे. घन्टा भर सुनने के पश्चात स्वयं को रोक नहीं पायी, तब उनसे पूछा कि स्वामी जी आप यह बात क्यों नहीं समझते कि आध्यात्मवाद की जितनी जरूरत हम भारतीय लोगों को है उतनी इन लोगों को नहीं है. कुछ क्षण तक सन्नाटा रहा और स्वामी जी मुझे तीखी नज़रों से देखते रहे. तो मैंने कहा स्वामी जी आप जानते हैं हमारे देश में इस आध्यत्मिकता के कारण जितनी उन्नती हुई है? ठगी, घूसखोरी और अनैतिकता और चोर बाज़ारी अपने चरम पर हैं. साधारण आदमी अंध विश्वासों में डूब कर आप की भारतीय संस्कृति की बखिया उधेड़ रहा है और इस स्थिति में हमारी संस्कृति और आध्यात्मिकता धार्मिकता आप को अर्थहीन नहीं लगती, यह जो प्रवचन आप दे रहे हें इसे आत्मप्रवंचना ही कह सकती हूँ मैं. यहां के लोग इस तरह के अंधविश्वास से दूर हैं और जैसा चाहते हैं वैसा स्वछन्द जीवन जीते हैं तथा हमारी तरह की नैतिकता नहीं बघारते. कब तक आप इस अर्थहीनता में स्वयं को और अपनी सांस्कृतिक धरौहर को बेचते रहेंगे? कुछ तो इस तरह का काम करें कि उसका लाभ आप के देश और समाज को मिल सके.

स्वामी जी खीजे स्वर में बोले, "भौतिकचाद की पूजा करने वालों में नैतिकता कहां रह गयी है. पश्चिम वालों को कृतज्ञ होना चाहिये कि हमने उनके उद्धार के लिए आज भी वस्तुवाद की दुनिया में रह कर भी धर्म और ईश्वर को सहेज रखा है." धर्म और ईश्वर पर केवल भारत का कैसे अधिकार हो? लेकिन मैं वहां से चली आयी. कितने लोगों को स्वामी जी के साथ यह वार्तालाप समझ में आया यह अन्दाज़ मुझे नहीं है लेकिन स्वयं स्वामी जी काफ़ी परेशान दिखाई दे रहे थे.

जिस धर्म दर्शन और ऊँची संस्कृति की लम्बी चौड़ी व्याख्या हम भारतीय करते हैं, वह तो अब केवल खण्डहर ही रह गये हैं और धार्मिकता और अध्यात्मिकता के यह ठेकेदार उन खण्डहरों को भी अपने लिए नहीं रखेंगे, मुझे लगता है.

लोग विदेशों से भारतीय संस्कृति के इन खण्डहरों में स्वयं ही भारतीय आध्यात्मिकता धार्मिकता और नैतिकता को खोज रहे हैं. यह उन अध्यात्मिकता के रक्षकों की समझ में शायद नहीं आ रहा है और यह संस्कृति के रक्षक ज़मीन पर तो रहते नहीं आकाश में ही विचरण करते हैं तो कैसे समझ सकते हैं?

माँ की डायरी से - शेरोन बोस्टन अमेरिका 1998 (तारीख नहीं लिखी)