15 अक्तूबर 2012

भारतीय राष्ट्र के पुनर्जागरण का संघर्ष - कुछ समस्याएँ


ओमप्रकाश दीपक, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 30 जून 1968

हिन्दुस्तान में अध्ययन, विचार, विवेचन और विश्लेषण की जगह बड़ी हद तक फ़िकरेबाज़ी ने ले ली है. मैं जानता हूँ कि यह बात बहुतेरे लोगों के गले नहीं उतरेगी. कुछ लोग तो जवाब में यह भी कह सकते हैं कि मेरा यह वाक्य इस बात का प्रमाण है कि मैं स्वयं भी हीन भावना से पीड़ित हूँ. मैं उलट कर इस आरोप को भी फ़िकरेबाज़ी का एक नमूना कह सकता हूँ. आम तौर पर हमारे यहाँ बहसें इससे आगे नहीं बढ़तीं क्योंकि जो लोग स्थिति को अनुभव करते हैं वे भी आगे जा कर कहीं उँगली नहीं रख पाते कि रोग कहाँ है.

मैं यहाँ कोशिश करूँगा कि कुछ जगहों पर उँगली रखूँ. इसके बाद भी कोई सार्थक बहस चलेगी, इसकी उम्मीद मुझे बहुत ज़्यादा नहीं है. लेकिन इतना ज़रूर है कि और भी काफ़ी लोग हैं, खास कर नौजवान लोग जिन्हें फ़िकरेबाज़ी से सन्तोष नहीं होता. जो विचारों के क्षेत्र में आज की निरर्थक एकरसता और जड़ता को तोड़ना चाहते हैं.

पिछले बीस इक्कीस सालों से भारतीयों का अपना एक स्वतंत्र राज्य है. लेकिन भारत क्या एक राष्ट्र है? इस सवाल का आज तक सामना नहीं किया गया. इस मामले में हमारी स्थिति बड़ी विचित्र है. दुनिया में ऐसे कई राज्य हैं जो एक राष्ट्र नहीं हैं. पश्चिमी जर्मनी-पूर्वी जर्मनी, उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया, उत्तरी वियतनाम-दक्षिणी वियतनाम, उत्तरी आयर-दक्षिणी आयर. इन सभी मामलों में एक राष्ट्र को दो राज्यों में विभाजित कर दिया गया है. निकट भविष्य में उनके फ़िर से एक होने की आशा भी नहीं, क्योंकि आयर को छोड़ कर, जिसके बँटवारे का आधार धर्म है, अन्य सभी देश अमरीकी-रुसी-चीनी क्षेत्रों में बँटे हैं. वे फ़िर से एक तभी हो सकते हैं जब इनमें से कोई एक या दोनों ही वहाँ से हट जायें. लेकिन राज्य भले ही दो हों, राष्ट्र के एक होने के बारे में कोई बहस नहीं.

दूसरी तरफ कुछ बड़े देश है, जिनमें राज्य तो एक है, लेकिन राष्ट्र कई हैं. अमरीका किस हद तक एक राष्ट्र है या कनाडा किस हद तक एक राष्ट्र है इस पर बहस हो सकती है. लेकिन हवाई द्वीप भी अमरीकी राष्ट्र का अंग है इसे किस आधार पर स्वीकार किया जा सकता है? रूस और चीन का मामला तो बिल्कुल साफ़ है. एक राज्य होने के अलावा और कोई सामान्य तत्व नहीं है, जो इन राज्यों के सारे निवासियों को एक सूत्र में बाँधता हो - न इतिहास, न भूगोल, न संस्कृति, न धर्म, न भाषा, न और कुछ. राज्य की सहायता से अर्थ व्यवस्था और समाज व्यवस्था की एकरूपता के जरिये राज्य के सभी हिस्सों को बाँधने की कोशिश की गयी है.

हमारे यहाँ स्थिति यह है कि आज़ादी से पहले ही राष्ट्रीयता की जो धारणा विकसित हुई थी, उसके आधार भौगोलिक भी थे, एतिहासिक भी, जातीय भी थे और साँस्कृतिक भी, आर्थिक भी थे और राजनीतिक भी. लेकिन 1947 में हिन्दुस्तान का बँटवारा इस ढंग से किया गया कि यह सभी आधार खत्म हो गये. कोई भी सूत्र ऐसा नहीं है जिससे हम कोहिमा, कलकत्ता, अमृतसर, श्रीनगर और तंजौर को बाँध सके, और ढाका, लाहौर और पेशावर को छोड़ा जा सके. भारतीय समाज को जोड़ने वाला एक ही तत्व रह गया - भारतीय राज्य.

इस आधार पर तो केवल एक बेजान और कमजोर राजनीति चलाई सकती थी. यही हुआ भी. भारतीय राजनीति ने चाहा कि राष्ट्रीयता के आधार वही रहें जो आज़ादी के पहले थे लेकिन भौगोलिक सीमा वर्तमान भारतीय राज्य की रहे. अर्थव्यवस्था पर राज्य का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि आर्थिक नीतियों को भी किसी हद तक राज्य की सीमाओं के आधार पर चलाया जा सका. लेकिन कश्मीर के साथ तो पहले ही एकमात्र बर्नहाल दर्रे के ज़रिये सम्पर्क था, 1965 के भारत पाक संघर्ष के बाद शेष भारत के साथ असम का सम्बन्ध भी सिलीगुड़ी के रेलमार्ग से ही रह गया - पूर्वी बंगाल से हो कर गुज़रने वाले महत्वपूर्ण जलमार्ग बन्द हो गये.

कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि राष्ट्रीय जीवन का जितना हिस्सा राज्य के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं था, उसमें राष्ट्रीयता की धारणा खत्म हो गयी. अकेले भारत का न कोई इतिहास है, न कोई भूगोल, न कोई संसकृति है न कोई साहित्य. यह बड़ी ही दिलचस्प लेकिन उतनी ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सत्तारूढ़ राजनीति ने जो भ्रम फ़ैलाया भारतीय बुद्धिजीवियों ने लगभग निरपवाद उसे आँख मूँद कर स्वीकार कर लिया. कहने को इस समय भारत में पचास के करीब विश्वविद्यालय हैं, हज़ारों कालेज हैं, दर्जनों उच्च शिक्षा और शोधकार्य के संस्थान हैं, लेकिन किसी ने भी इस विसंगति की ओर ध्यान नहीं खींचा कि भारत एक राज्य अवश्य है, किन्तु उसकी राष्ट्रीयता का कोई तार्किक आधार नहीं है. राष्ट्रीयता अगर हो सकती है तो भारत-पाकिस्तान की, पूरे हिन्दुस्तान की एक ही.

स्थिति का एक दूसरा पक्ष भी है. समूचे भारत की राष्ट्रीयता का कोई तार्किक आधार नहीं है, लेकिन उसके अंगों के अलग अलग आँशिक आधार हैं. यह अंग भौगोलिक भी हो सकते हैं, सामाजिक भी. कश्मीर का इतिहास, कश्मीर का भूगोल, तमिल भाषा, तमिल संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति, जाटों का इतिहास, जाट संस्कृति, मगध का इतिहास, मालवा का इतिहास, राजस्थानी संस्कृति, आदि आदि. इन समूहों को अगर नज़दीक से देखें तो हम पायेंगे कि मुख्य रूप से तीन आधार हैं जिन पर बने समूह विषेश रूप से सक्रिय और मुखर हुए हैं - धर्म (हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी), भाषा और जाति. असलियत यह है कि इस समय भारत में समूह जीवन के लगभग सभी पक्षों को यह तत्व मिल कर या अलग अलग नियन्त्रित और संचालित करते हैं.

भाषाओं में भी अंग्रेज़ी का मामला दूसरों से अलग है. एक ओर तो अंग्रेज़ी किसी भौगोलिक क्षेत्र विषेश की भाषा नहीं है, सारे देश में ही एक छोटा सा वर्ग है जो थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी लिख बोल और समझ लेता है. दूसरी ओर अंग्रेज़ी इस वर्ग को किसी राष्ट्रीय केन्द्र से नहीं जोड़ती, सीधे पश्चिम से जोड़ती है. फ़लस्वरूप एक ऐसी मानसिकता का विकास हुआ है जिसे हम "प्राँतीय अंतरराष्ट्रीयता" कह सकते हैं. यह दिमाग एक तरफ़ तो प्राँतीय है, या और भी संकीर्ण है, और दूसरी तरफ़ अंतरराष्ट्रीय है. लेकिन राष्ट्रीय नहीं है. राष्ट्रीय हो भी कैसे, राष्ट्रीयता की कोई तर्कसंगत धारणा ही नहीं है.

इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान रखना चाहिये कि हमारे देश में सारा साहित्य इन्हीं लोगों के द्वारा, इन्हीं लोगों के लिए लिखा जाता है, कम से कम सारा आधुनिक कहा जाने वाला साहित्य. इस लिए आधुनिकता के नाम पर हमारे यहाँ यह प्रांतीय अन्तरराष्ट्रीयता ही फली फूली है. इस अन्तरराष्ट्रीयता के भी कई रूप देखे जा सकते हैं. एक रूप में प्रांतीय होना जनाभिमुख होना है और अन्तरराष्ट्रीय होना आधुनिक होना है, लेकिन राष्ट्रीय होना तो दकियानूसीपन है. ऐसे लोगों के लिए राष्ट्रीयता का वर्तमान मात्र राजकीय आधार बहुत सुविधाजनक है. कुछ ऐसे लोग हैं जो अंग्रेजी ज्ञान के द्वारा इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि दुनिया तो अब एक हो गयी है. राष्ट्र वगैरा की मनुष्य जाति को बाँटने वाली बातें तो निहायत दकियानूसी, पुरानी और भदेस हो गयीं हैं. उनके लिए यह बात इस हद तक तो सच है ही कि इस देश में अंग्रेज़ीदां लोग अकाल में भूख से नहीं मरते. बाकी लोग अंग्रेजी पढ़ लें तो वे भी न मरें. अगर अभी अन्तरिक्ष यात्रा केवल अमरीकी या रूसी ही कर सकते हैं तो क्या फर्क पड़ता है. हर अमरीकी ही कहां चाँद पर चला जा रहा है? और जब इतनी प्रगति हो जायेगी, तब इनमें से भी किसी न किसी को तो मौका मिल ही जायेगा. कुछ लोगों की राय में जमाना ही पश्चिम का है. अगर हमने इतनी बेवकूफी की वहां पैदा न हो कर हिन्दुस्तान में पैदा हो गये, तो अब इतना ही कर सकते हैं कि जहाँ तक हो सके पाश्चात्य बन जायें.

यूँ इस नकली आधुनिक मानसिकता का किस्सा बहुत लम्बा है. मैं पहले ही कह चुका हूँ कि हमारे यहाँ के इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, किसी ने भी अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया. करते भी कैसे, सब तो इसी अन्तरराष्ट्रीय वर्ग के हैं. बहरहाल मैं उम्मीद करता हूँ कि कभी कोई आदमी मेहनत करके "आधुनिक भारतीय" नाम के जन्तु का अध्ययन करेगा कि इसका दिमाग कैसे काम करता है.

धर्म, भाषा और जाति को तोड़ने वाले प्रभाव आम तौर पर उतने प्रकट नहीं हैं, सिवाय पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण के प्रसंग में, लेकिन उनका असर किसी तरह कम नहीं है. प्रकट रूप में नागा विद्रोह भी है, लचित सैना भी, और उस तरह की घटनाएँ भी, जिनमें कछार की बंगाली स्त्रियों को असमी मेखला पहनने को बाध्य किया गया था. जिस तरह का प्रचार कभी मुस्लिम लीग की तरफ से किया जाता था - मुसलमान तहमत बांधते हैं, पश्चिम की तरफ मुँह करके नमाज पढ़ते हैं, हिन्दू लांग बांधते हैं, पूर्व की ओर मुँह करके पूजा करते हैं - उस तरह का प्रचार अब दक्षिण में भी होने लगा है, कि दक्षिण के लोग लुंगी बांधते हैं, उनका संगीट कर्नाटक संगीत है, आदि, आदि. यों सच यह है कि राष्ट्र का इस तरह बांटना शुरु करें तो फ़िर इसका कोई अन्त नहीं. बीच में कहीं रुकना चाहें तो कुछ समूहों पर अन्याय करके ही रुक सकते हैं - इस्लामी पाकिस्तान ही बंगाली, सिन्धी और पख्तून के लिए जेलखाना बन गया है. बंगाली अधिपत्य की यादें असमिया, बिहारी और उड़िया लोगों में, और तमिल अधिपत्य की यादें तेलगू और कन्नड़ लोगों में अभी बहुत ताजी हैं.

हिन्दी क्षेत्र में भी राजस्थानी-मैथिली वगैरह की आवाज़ें उठने लगी हैं. दूसरी ओर हम देखते हैं कि हिन्दी के प्रवक्ता उर्दू को अलग भाषा मानने को तैयार नहीं, उसे हिन्दी की ही एक शैली का ही दर्ज़ा देते हैं. पर उर्दू साहि्त को हिन्दी साहित्य के एक अँग के रूप में मान्यता देने को तैयार नहीं. यह लिपि का मामला ही नहीं क्योंकि सूफ़ी साहित्य फारसी लिपि में होने पर भी उसे हिन्दी का अँग मान लिया गया है. फ़िर पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद को उर्दू साहित्य को हिन्दी में क्यों शामिल नहीं किया जाता? यहां धर्म पर आधारित एक ऐसी कमज़ोरी दिखायी देती है जो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से ही चली आ रही है. हिन्दी और पंजाबी का अलगाव बहुत कुछ राजनीति में हिन्दू-सिख अलगाव का ही प्रतिफलन है.

वर्ग और जाति का प्रभाव जितना अप्रकट है उतना ही गहरा है. यह प्रभाव शायद हिन्दी में अन्य भाषाओं के साहित्य से अधिक है. हिन्दी का औसत लेखक आर्थिक दृष्टि से मध्यवर्गीय और संस्कार की दृष्टि से द्विज है. फलस्वरूप सारे हिन्दी लेखन में जबर्दस्त एकरसता है. कुछ पुरानी मान्यताएँ हैं, जो सारे हिन्दी साहित्य में व्याप्त हैं. यह एक बड़ा कारण है कि हिन्दी का लगभग हर कवि किसी न किसी समय महाकाव्य लिखने की चेष्ठा करता है. "प्रिय प्रवास" से ले कर "लोकायतन" तक इन महाकाव्यों को नज़दीक से देखने पर हम पायेंगे कि उनके पीछे द्विज दृष्टि ही है, भले ही उसे आधुनिकता का आवरण पहना दिया गया हो. द्विज दृष्टि को कुछ इस तरह भारतीय संस्कृति का पर्याय मान लिया गया है कि इनको पढ़ते हुए कोई शंका भी मन में नहीं उठती - पढ़ने वाले भी तो सब द्विज ही होते हैं.

यानि दुहाई चाहे भारतीय संस्कृति की दी जाती हो, चाहे आधुनिक अन्तरराष्ट्रीयता की, दोनो ही सूरतों में मानसिक जड़ता, संकीर्णता, अलगाव, टूट और बँटवारे की प्रवृत्तियाँ ही अभिव्यक्ति पाती हैं. इसके कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं. भारतीय समाज में न जाने कितनी सदियों से दो विरोधी प्रतीत होने वाली, लेकिन परस्पर पूरक प्रवृत्तियों का शिकार रहा है - एक प्रवृत्ति रही है अतिशुद्धता की, जो अंग अशुद्ध हो जाये, उसे काट कर अलग कर दो. दूसरी प्रवृत्ति रही है विदेशी शासक की अन्धी और ऊपरी नकल करने की, चाहे वह शासक मुगल हो या अंग्रेज. दुनिया में शायद और कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है जो विदेशी हमलावरों द्वारा इतनी बार कुचला और रौंदा गया हो जितना हिन्दुस्तान. हर बार जब देश इस तरह रौंदा गया तब यह दोनो ही प्रवृत्तियाँ काम करती रहीं. फलस्वरूप दो तरह के झूठे संतोष एक साथ हिन्दुस्तानी मन को भुलावा देते रहे हैं. एक ओर अतिशुद्धता और संकीर्णता की प्रवृत्ति यह भ्रम उतपन्न करती है कि कठिन से कठिन परिस्थितयों में भी हमने अपने व्यक्तित्व को बचाये रखा, अपनी संस्कृति को बचाये रखा. दूसरी ओर विदेशी शासक की भाषा-भूषा आदि की नकल यह भ्रम उत्पन्न करती है कि समन्वय के द्वारा पुनर्जागरण हो रहा है, भारत आधुनिक हो रहा है. यह दोनो प्रवृत्तियाँ दोनो मामलों में कुछ अलग अलग भी दिखायी देती हैं, लेकिन आम तौर पर एक ही वर्ग में, एक ही व्यक्ति में दिखायी देती हैं. हर सूरत में, हमारे जड़ बेजान समाज को बदलने का, उसमें जान डालने का काम नहीं होता. मौलिक प्रतिभा का, नये विचारों का, देश काल के अनुकूल नयी संस्थाओं का विकास नहीं होता.

हमारे यहाँ हर चीज़ या तो हजारों साल पुरानी है, या विदेशों से आयातित है.हमारे किसान या मछुआरे या जुलाहे आज भी उसी तरह काम करते हैं जैसे हजार साल पहले उनके पुरखे करते थे. या फ़िर ऐसी मशीने आ गयी हैं जिनके चलते रहने के लिए हम पूरी तरह से विदेशों पर निर्भर हैं. देश में ऐसे कारखाने मुश्किल से दस प्रतिशत होंगे जो बिना विदेशी आयात के चल सकते हों. विचारों के क्षेत्र में, पिछले एक हज़ार साल में हमारे यहाँ कोई मौलिक प्रतिभा नहीं हुई, केवल गाँधी जी के सत्याग्रह के बारे में ही कुछ बहस हो सकती है. मैं खुद राममनोहर लोहिया को भी एक अपवाद मानता हूँ लेकिन इसका फैसला हम इतिहास पर छोड़ सकते हैं. ऊपर मैंने जो कुछ कहा है उसमें इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता.

एक आशाजनक तथ्य यह है कि युवा और नवयुवा बुद्धिजीवियों का ऐसा समूह जरूर पैदा हो गया है जिसे समूची भारतीय स्थिति के खोखलेपन का, उसमें निहित विसंगतियों का अहसास हो गया है. यह बुद्धिजीवी आज मोहभंग की स्थिति में हैं. वे इतना तो समझने लगे हैं कि आधुनिक भारतीय निर्माण न तो विदेशों की ऊपरी नकल से हो सकता है, न शास्त्रों के आधार पर. नये आधारों की खोज भी धीरे धीरे होने लगी है - साहित्य में भी, अर्थशास्त्र और राजनीति में भी. विज्ञान का अध्ययन करने वाले लोगों में भी यह चेतना आने लगी है कि विज्ञान के सामान्य सिद्धांत जिस तरह सार्विक होते हैं, व्यावहारिक विज्ञान उसी तरह स्थानीय परिस्थितियों से प्रभावित होता है.

मगर भारतीय राज्य की शक्ति अभी भी जड़ता और दास भावना के साथ ही है. और इसलिए भारतीय राज्य के और अधिक विघटित होने का खतरा बढ़ता जाता है. मुझे लगता है कि भारतीय राष्ट्र का पुनर्जागरण का संघर्ष अब निर्णायक दौर में पहुँच रहा है. और मुझे यकीन है नयी पीढ़ी न सिर्फ भांटने वाली प्रवृत्तियों को खत्म करके राष्ट्रीयता को फिर से प्रतीष्ठित करेगी, वरन उसमें भी राष्ट्र की मौलिक प्रतिभा जीवन के सभी क्षेत्रों में जागेगी.

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टिप्पणी: ओमप्रकाश दीपक ने यह आलेख १९६८ में साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका के लिए लिखा था. तब भारत की स्वतंत्रता की इक्कीस वर्ष हुए थे और शायद बँटवारे के बाद बचे भारत की राष्ट्रीयता पर प्रश्न करना समझा जा सकता था. लेकिन यह प्रश्न वहीं स्माप्त नहीं हुआ था. इसी विषय पर सुनील खिलनानी या रामचन्दर गुआ जैसे लोगों में पिछले कुछ सालों में भी लिखा है. इस आलेख में उनका यह कहना कि अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय सभी विदेश की ओर देखते हैं या फ़िर यह कि भारत में किसी भी क्षेत्र में मौलिक सोच नहीं हुई, जैसी बातों पर अवश्य आज बहस हो सकती है.

यह आलेख आज कितना प्रसंगीय है यह तो पढ़ने वाले ही कह सकते हैं, हाँ स्वंत्रता के बीस साल बाद वे इसके बारे में क्या सोचते थे, यह जानना भी दिलचस्प हो सकता है, यह समझने के लिए कि इसके लिखने के चालिस सालों के बाद क्या बदला है, क्या नहीं बदला! (सुनील दीपक)

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