30 अक्तूबर 2011

उपेन्द्र नाथ अश्क


उपेन्द्र नाथ अश्क हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखकों में गिने जाते हैं. कुछ दिन पहले अपने पिता के कागज़ों में से मुझे उनका एक पत्र मिला, जिसे उन्होंने 20 फरवरी 1962 में लिखा था. तब वह 5 ख़ुसराबाग़ रोड, इलाहाबाद 3 में रहते थे. इस पत्र में वह अपने लेखन की बात भी करते हैं. प्रस्तुत है उनका यह पत्रः

प्रियवर दीपक जी,
आप का 30 जनवरी 1962 का कृपापत्र समय से ही मिल गया, पर आपने उस पर पता नहीं लिखा. और पित्ती साहब का वह पत्र जिस में उन्होंने आप का पता दिया था, मुझे मिला नहीं. आज सहसा जब कागज़ों में ही वह पत्र मिल गया तो मैं उसमें से पता देख कर आपको पत्र लिख रहा हूँ. अब कभी आप का बेपते का पत्र आया और मैं उत्तर न दे सका तो मुझे दोष न दीजियेगा. मेरे यहाँ बड़ी अव्यवस्था है. एक बार की गुमी हुई पुस्तक या चिट्ठी फ़िर नहीं मिलती.
मैं आप से सहमत नहीं कि हमारे यहाँ किसी को संस्मरण लिखने नहीं आते. मैं आजकल संकेत (उर्दू) की छपाई में लगा हूँ उसमें दो संस्मरण इतने अच्छे हैं कि पाँच छै बार पढ़ने पर भी फ़िर पढ़ने का मन होता है. एक इसमत चग़ताई ने अपने भाई अज़ीमबेग चग़ताई पर लिखा है और दूसरा साहिर ने देवेन्द्र सत्यार्थी पर लिखा है.
कौशल्या द्वारा भेजी गयी पुस्तक में भी बेदी, कृष्ण, मार्कण्डेय, सुधीन्द्र रस्तोगी तथा कौशल्या के संस्मरण बहुत अच्छे हैं. यों नज़र अपनी अपनी, पसन्द अपनी.
यह जान कर आश्चर्य हुआ कि आज से बीस साल पहले आप की कहानी छपी थी. शायद राजनीतिक कार्यों में फँसे रहने के कारण आप इधर ध्यान नहीं दे सके. मैं इसे हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहूँगा. अजीब बात यह है कि आप की कोई भी कहानी मेरी नज़र से नहीं गुज़री. यद्यापि मैं प्रायः सब पत्र पत्रिकाएँ देखता हूँ. कभी कभी जब मैं अत्याधिक व्यस्त होता हूँ तो नहीं देख पाता. तो भी कभी जब आप संग्रह रूप में उन्हें प्रस्तुत करें, मैं देखना चाहूँगा.
नयी कविता अधिकांश झूठी हैं. लेकिन अच्छी कविता सदा ही कम परिभाषा (?) में रहती है ढेरों साहित्य लिखा जाता है. उच्च कोटि का अव्यक्त  कम परिमाषा (?) में निकलता है, यही बात कविता पर लागू होती है. मैंने "सड़कों में ढले साये" की भूमिका में व्यंग विनोद शैली में काफ़ी पते की बातें कहीं हैं, पर उन बातों पर विचार करने के बदले लोग चिढ़ गये और गाली गलौज पर उतर आये. बहरहाल कभी पढ़ियेगा तो ज़रूर राय दीजियेगा.
"पँलग" की कहानियों पर इधर बड़ी ले दे मची है. मैं तो समझता हूँ कि वर्षों बाद मैंने कुछ बहुत अच्छी कहानियाँलिखी हैं और मैं उनसे सन्तुष्ट भी हूँ. लेकिन लेखक की राय कोई महत्व नहीं रखती. आप पढ़ें तो ज़रूर राय दें. मैं प्रतीक्षा करूँगा.
मैं इधर "सन्केत" (उर्दू) के सिलसिले में व्यस्त हूँ. 600 पृष्ठों का संकलन है. अभी चार छै कार्य शेष हैं. छप जाये तो जान छूटे. बहुत थक गया हूँ.
इधर बीमारी ही में मैंने अपने बृहत उपन्यास "गिरती दीवारें" का दूसरा भाग "शहर में घूमता आइना" के नाम से पूरा किया है. यह साल तो उसी के revision में लगेगा. फ़रवरी 1963 में ही उसे प्रकाशित करूँगा. तब एक प्रति आप के अवलोकनार्थ भेजूँगा.
सखाऊ (?)
उपेन्द्र नाथ अश्क

टिप्पणीः जैसा कि आप नीचे चिट्ठी के अंतिम पृष्ठ की तस्वीर से देख सकते हैं, वैसे तो अश्क जी की हस्तलिपि साफ़ थी लेकिन मात्रा लिखने का तरीका कुछ विशिष्ठ थी और कुछ शब्द समझने में मुझे कठिनाई हुई. जहाँ मुझे शब्द समझने में दिक्कत हुई वहाँ (?) का निशान लगाया है.

सुनील दीपक


Letter Hindi writer Upendra Nath Ashk

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