09 नवंबर 2010

बेटियाँ

 (कमला दीपक की डायरी से)

मेरी बड़ी बेटी दिल की मरीज़ थी दो वर्ष भी नहीं जी पायी. उसके बाद गुड्डा पैदा हुआ था, फ़िर पिंकी इलाहाबाद के कमला नेहरू अस्पताल में. तुम्हारे मित्र कश्यप भार्गव की बहन डाक्टर थी और वहां रेज़ीडेंसी कर रही थी और उसकी सारी सहेलियाँ भी इकट्ठी थीं. उसने सबको कहा कि मेरी भाभी हैं यह. सो सब बीच में आ कर मेरे पास बैठ जातीं. उन्हीं मे से एक डाक्टर दयाल थी जिसकी दो लड़कियाँ थीं और उसकी सास उसे बहुत तंग करती थी. उसने तय किया कि अब बच्चा पैदा ही नहीं करेगी. जब पिंकी हुई तो डाक्टर दयाल ही ड्यूटी पर थी. सो लड़की होने पर पिंकी की दादी को कहने लगी कि लीजिये लड़की हुई है. माता जी बहुत खुश हुईं, बोली मेरी पहली पोती वापस आ गयी है. डाक्टर दयाल ने कहा कि माता जी आप पोती पा कर इतनी खुश हो रहीं हैं और मेरी सास होती तो न जाने क्या क्या बोल देती. तब तुम हैदराबाद में थे. माता जी ने अपने भाई के बेटे कृष्णा को कहा कि जा कर सबके लिए मिठाई ले आओ, और सबको ढेर मिठाई बाटीं. बाद में जितनी बार डाक्टर दयाल और सुनीति भार्गव घर आतीं, माता जी उन्हें खाना खिला कर ही भेजती थीं. उनका कहना था कि बिना लक्ष्मी के घर कैसा, कि उन्होंने बहुत मन्नते मांग कर इस बेटी को पाया था. डाक्टर का लटका मुँह देख कर माता जी पहले तो डर गयीं थीं, लेकिन फ़िर उन्हे पता चला कि डाक्टर यह बताने से डर रही थी कि लड़की हुई सुन कर माता जी न जाने क्या उल्टा सीधा बोलें. इसकी दादी ने तभी भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरी पोती भी डाक्टर बनेगी आप की तरह, इसका भविष्य बड़ा उज्जवल है, बड़ा नाम होगा इसका. आज अचानक माता जी यह भविष्यवाणी याद आ गयी.

माता जी की एक और बात याद आयी, विनी के जन्म की. रात को डा. सरला की ड्यूटी थी, सुबह छः बजे से डा संतोष की. उनका घर अस्पताल में ही था, सो सरला चली गयी कि नहा कर आती हूँ. विन्नी तभी पैदा हुई. नर्स को संभालने के लिए कह कर बाहर सूचना दी गयी कि आप की पोती हुई है. माता जी से पूछा कि क्या पहले पोती है, माता जी ने कहा कि हाँ एक है, तो बोली अब दो हो गयीं. वह माता जी को अन्दर ले आ कर आयीं और कहा कि विनी को इनकी गोद में डाल दो. माता जी ने कहा कि सूर्यवंशी बालिका हुई है मेरे परिवार में, इसके पापा को भेज दो कि मिठाई का डिब्बा ले कर आयें, और दोनो डाक्टरों को दी. डा. संतोष सकपका गयी कि लड़की होने पर इसकी दादी इतनी खुश है, कितनी अच्छी सास पायी है आप ने. मैंने कहा कि उन्होंने कभी अंतर नहीं किया लड़के लड़की में. शायद यही भविष्यवाणी दोनो बेटियों को उन्होंने आशीर्वाद में दी है.

कमला की डायरी से, 1 जनवरी 2000 अमरीका

15 अक्तूबर 2010

किताबें और यादें

 (कमला दीपक की डायरी से)

आज सुबह करीब पांच बजे बहुत गहरी नींद में थी अचानक सपने में छोटी दीदी जीजा दिखाई दिये. कुछ बात नहीं हुई. केवल देखा कि बाथरूम में बहुत गन्दगी और पानी भरा हुआ है और जीजा वहां से निकल दीदी के पास जा रहे हैं और आसपास तरह तरह की आवाज़ें आ रहीं हैं. सम्भवतः जानकी देवी कालेज ही रहा होगा. पहली बार दोनो को साथ देखा है. दिन भर उनके साथ बिताये पल मेरे आसपास घूमते रहे. सपने क्यों मनुष्य को वास्तविकता ही लगते हैं. वास्तविकता क्या है कौन जाने इस तरह के सपनो में.

आजकल अनिया हुसैन का अंग्रेजी उपन्यास "सन लाईट ओन ए ब्रोकन कोलम" पढ़ रही हूँ. पढ़ते पढ़ते याद आयीं मिसेज़ शफ़ी किदवई, (रफ़ी किदवई नेहरु के पहले कैबिनेट में मंत्री रहे थे). वहीं किश्वर आपा की बेटी के साथ अनिया हुसैन से भी बात हुई थी और उसी परिवार से उनका सम्बंध था कुछ. लखनऊ के तालुकदार घराने से थी और किदवई परिवार से भी. सुंदर, सुसंस्कृत, शिक्षित, पत्रकारिता करती थी, लिखा भी सब लखनऊ की नज़ाकत और सास्कृतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि पर. पुनः अनिया हुसैन से भेंट हुई तालुकदार रिज़वी भाई की बेटी की शादी के वक्त. लोहिया भी साथ थे तब. पता नहीं अब हैं या नहीं होंगी, शायद 82 या 83 साल की होंगी. इनकी बड़ी बेटी शमा की शादी हबीबउल्ला के साथ हुई थी शायद. अब तो बहुत वर्षों से कोई सम्पर्क ही नहीं रहा. अनिया बाद में लंदन रेडियो में कार्यरत थी, और समाचारपत्रों में भी फ्रीलांसिंग करती रही. उनकी शादी चचेरे भाई से हुई थी और वह विदेशसेवा में कार्यरत थे.

अब तो केवल श्रीमति शफ़ी अहमद ही याद है. शफ़ी अहमद को हिंदू मुस्लिम दंगों में मसूरी में मारा दिया था. आपा से परिचय हुआ था जामा मिलिया द्वारा संचालित बाड़ा हिंदूराव वाले स्कूल में. मैंने परीक्षा के फार्म भरे थे पर परीक्षा नहीं दे पायी. तीन माह तक स्कूल में काम करके सोशल सर्विस का सार्टिफिकेट ले सकते थे, मैंने नहीं लिया था. तभी आपा से भेंट हुई तो मैं उसके बाद मृदुला बहन के शान्ति दल में कार्य करने लगी. दंगों में पीड़ित लोगों की और जो मुसलमान बच गये थे उनके विषय में जानकारी इक्टठी की, जो लड़कियाँ गांव में छूट गयीं थी उनका निकाल कर कैम्प में रखना और अगर चाहें तो उन्हें पाकिस्तान भेजना आदि कार्य थे. इसमें मृदुला बहन की अहम भूमिका रही. सुभद्रा जोशी, सिकंदर बख्त, लीला बहन, विद्या कुतुब आदि अनेक लोग साथ काम कर रहे थे, और शाम को लौट कर पूरी रिपोर्ट हरिजन कोलोनी में गाँधी जी को देनी होती थी, प्रार्थना सभा से पहले फ़िर सब लोग प्रार्थना सभा में रहते थे.

विक्रम सेठ का उपन्यास "ए सूटेब बोअय" (A suitable boy) की पृष्ठभूमि भी 1950 और 51 की है. कथानक चार परिवारों का है. मेहरा, कपूर, खान और चैटर्जी. सेठ स्वयं मेहरा परिवार से सम्बंधित है. राजनीतिक जोड़तोड़ साथ साथ चलती है. नेहरु का नाम कांग्रेस में था, गाँधी का नहीं. ज़मींदारी उन्मूलन शुरु हो गया था. रफ़ी अहमद किदवई का ज़माना और नेहरु से अलगाव, कृपलानी के एम पी पी, अर्थात राजनीतिक जोड़तोड़ के साथ मुस्लिम धार्मिक उन्माद और प्रेम प्रसंग, युनिवर्सिटी की राजनीति के बहुपरिचित चर्चा, सब कहानी 1350 पन्नों में है. कहानी संतुलित और रोचक है. मेरी अंग्रेज़ी ठीक नहीं है, बहुत समय लगा पूरा पढ़ने में. भारी पुस्तक के कारण भी बहुत समय लगा, अगर दो भागों में होती तो बेहतर होता. उस समय की राजनीतिक सामाजिक स्थिति का वर्णन, भाषा शैली सीधी सादी, पर लेखक ने कहीं भी कहानी को अटपटा नहीं होने दिया. साधारण परिवारों का सुंदर वर्णन है. प्रेम प्रसंग, दुख सुख और अन्य व्यव्हार यथापूर्व सुंदर और सधे हुए और प्राकृतिक हैं. बीच बीच में मुझे अपने परिवार की याद आती रही. इसी तरह की कहानी हमारे परिवार की भी है. पाकिस्तान बनने से पूर्व, पूर्व पंजाबी परिवारों की याद दिलाता है यह उपन्यास.

कलमा की डायरी से, 12 अप्रैल 1998, शैरोन बोस्टन अमेरिका
(आज माँ का जन्मदिन है, पहली बार उनके न होने के बाद.)

27 अगस्त 2010

कौन हैं इस तस्वीर में?

यह तस्वीर 1967-68 की लगती है, इसमें दाहिनी तरह पहली कुर्सी पर जो बैठे हैं शायद वह हिन्दी लेखक देवीशंकर अवस्थी हैं और उनके साथ ओमप्रकाश दीपक. बाकी के लोग कौन हैं इस तस्वीर में यह तो कोई उस समय का लेखक पत्रकार भी बता सकता है. चेहरों को देख कर मन में धुँधले से नाम उभरते हैं लेकिन ठीक से याद नहीं आता. क्या आप किसी को पहचान सकते हैं?

Om Prakash Deepak, Devi Shanker Awasthi & other Hindi writers, 1967-68

23 अगस्त 2010

स्मृतियों के दंश

  (कमला दीपक की डायरी से)

आज न जाने क्यों स्मृतियां चीटियों की तरह लहुलुहान मन को चाटने लगी हैं. उम्र की इस पड़ाव पर पीड़ाएँ आप छुपा सकते हैं, चेहरे के कसाव या जुबान की खामोशी में, लेकिन उसका प्रभाव शरीर या मन पर पड़ने से कब रुक पाता है?

अन्तराल कितने वर्षों का आ गया है, तेईस वर्ष बीत गये. क्या कुछ हुआ, गुज़रा सबके अपने अपने दायरों में, कौन कितना रीता, कितना बदला, इस सब का हिसाब कैसे लगायें? अब लगता है कि अपने बाल उम्र में नहीं, सचमुच धूप में सफ़ेद किये मैंने. ठूँठ की ठूँठ ही रह गयी, खड़ी स्थिर और सब कुछ चलता नहीं, दौड़ता रहा, जैसे स्वयं ही नियती ने सब निश्चित कर दिया हो.

माँ के जीवन की सार्थकता उसके बच्चे ही होते हैं. वह स्वयं कुछ नहीं कर सकती. हालातों से मुक्ति मुश्किल है, उसे ही नये पुराने समाज में सामंजस्य बना कर सन्तान की ममता की डोर थामनी पड़ती है. मोह का जाल न चाहते हुए भी बुनता जाता है, जिसे काट कर मुक्त होने में स्वयं को असमर्थ पाती हूँ. वह क्षमता मुझमें कभी आयी ही नहीं. इसीलिए बदले समाज और मनुष्य से रिश्ता बदलते तेवरों को मैंने हमेशा अस्वीकार किया. खुल कर समाज के सामने आ कर के दायित्व ही निभाया किसी तरह.

आत्म विस्मृति मनुष्य को साधारण अवस्था में किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है. प्राकृतिक नियमों की सूक्ष्म श्रृखलाएँ स्वयं बनती बिगड़ती रहती हैं. कर्म के नियमों के कुछ पहलू यंत्रवत चलते हैं, सो बुद्धिमान व्यक्ति इन्हीं आदर्शों को प्रतीक मान स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल कर अपने हिसाब से ढ़ाल लेता है. यदि अदृश्य शक्ति मुझे थोड़ी बुद्धि और देती तो शायद मैं इस तरह की न बन कर कुछ अधिक प्रखर व स्वतंत्र खुद को बना पाती.

अब लगता है कि मैं स्वयं क्यों चार दिन भी अपने लिए न जी पायी. स्वयं को तलाशने की साध धरी रह गयी. बर्फीली नदियां शरीर पर बहती रहीं और मैं स्वयं मुट्ठी भर धूप बाँटती रही सभी के लिए. जहाँ तक सम्भव हुआ अपनी परम्परा व उत्तरदायित्व निभाती रही.

एक बार छोटी बेटी ने शिकायत भी की थी कि कैसे संस्कार दिये हैं कि उनसे बाहर निकल ही नहीं पाते. यहाँ दोषी हूँ, स्वयं भी नहीं निकल पायी.

मैं तो पल पल बहने वाले वर्तमान के सा इस तरह बह रही हूँ कि मेरे लिए भविष्य का कोई वजूद ही शेष नहीं है अब. कमज़ोर पड़ने लगी हूँ मैं. आस्थाएँ भी डगमगाने लगी हैं. लगता है कि अब इस एकांत में रह कर मैं स्वयं को तलाशने लगी हूँ. स्मृतियों की कर्म श्रृँखलाओं से मुक्ति चाहने लगी हूँ. स्वयं को भूलने लगी हूँ. कभी न कभी जाने किन गहराईयों में मन डूबने लगा है तब स्वयं को असहाय पाती हूँ. पिछले तेईस वर्षों में अकेले ही अपने दायित्वों और कर्तर्व्यों में उलझी रही और धीरे धीरे सभी प्रेरणा सोत्र और परिचित मेरा साथ छोड़ते जा रहे हैं, लोग जिन्होंने स्नेह और सहयोग से मेरी सहायता की, मेरे अकेलेपन और अभावों में साथ रहे. ऐसे प्रिय साथ छोड़ते गये जिनसे मन की बात होती थी.

पिछले कुछ दिनों से लगातार तुम्हें देख रही हूँ, लखनऊ, इलाहाबाद, हैदराबाद, दिल्ली और यहां अमेरिका में भी. अचानक नींद टूटती है, हड़बड़ा कर अपने आसपास देखती हूँ, बड़ी विचित्र हूँ मैं. कारण समझ नहीं पा रही हूँ. कहीं कुछ विषेश घटने वाली बात है क्या? जो घट रहा है उससे ज्यादा अब क्या होगा? आने वाला भविष्य और क्या लायेगा? कितनी ज़िन्दगी और है? अदृश्य रह कर तुम प्रेरणा देते हो, फ़िर भी बहुत कमज़ोर पाती हूँ स्वयं को. जब तक जीवन है सामना तो परिस्थितियों का करना ही होगा. भविष्य कब कहाँ छोड़ता है? कौन जाने. अचानक यह सब हुआ कि मुझे स्वयं को संभालने में समय लगेगा. ज़ख्म गहरा है न. सोचने की शक्ति भी अब तो नहीं रही. पढ़ने की कोशिश करती हूँ लेकिन जो पढ़ती हूँ याद नहीं रहता कि क्या पढ़ा है. दिमाग सुन्न है. आयु भी तो बढ़ रही है, उसी का असर होगा. फ़ैज़ की गज़ल का छोटा सा हिस्सा जो तुम्हें बहुत पसंद था और प्रायः गुनगुनाया करते थे दिमाग में घूम रहा हैः

वेती चले गये हैं दिल
याद से उनकी प्यार कर
ग़म है तेरे नसीब में
मौत का इंतज़ार कर

तुम्हारी स्मृति ही मेरी शक्ति, विश्वास और आस्था रही है, उसका अवलंबन कर यहाँ तक खिंचती चली आयी हूँ. इस बीच समझ नहीं पायी कि समय की गति के साथ बहते हुए यहां तक आयी हूँ. आज अचानक एक घटना याद आ गई, अचानक याद आ गया कि कहीं किसी की ऊँची आवाज़ आ रही है. प्लेन था फ्रेंकफर्ट से दिल्ली के लिए, सो सोचा घूम लेती हूँ, हैंडबेग उठा कर चल पड़ी. बहुत लोग इक्टठे थे और एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले स्वामी जी, गोरे लाल ऊँचे कद के, साथ ही गेरुआ वस्त्र धारण किये लोगों को पश्चिमी संस्कृति की आलोचना और भारतीय संस्कृति की विषेशताएँ बता रहे थे, "यहाँ के लोग मेटिरियलिस्ट हैं, मोबाईल और ट्राँजिस्टर के अतिरिक्त कुछ सोचते ही नहीं, ईश्वर, नैतिकता और धर्म को भूल बैठे हैं, लेकिन हम भारतीय नैतिक और आध्यात्मिक रूप से कितने विकसित हैं." स्वामी अच्छे वक्ता होने के साथ साथ विद्वान भी दिखाई देते थे. धर्म और दर्शन सम्बंधी संस्कृत के श्लोकों का अंग्रेज़ी अनुवाद भी पप्रभावशाली ढंग से कर रहे थे, भोग और मोह निन्द्रा में पड़े लोगों को धर्म और आध्यात्म का मार्ग बता रहे थे. घन्टा भर सुनने के पश्चात स्वयं को रोक नहीं पायी, तब उनसे पूछा कि स्वामी जी आप यह बात क्यों नहीं समझते कि आध्यात्मवाद की जितनी जरूरत हम भारतीय लोगों को है उतनी इन लोगों को नहीं है. कुछ क्षण तक सन्नाटा रहा और स्वामी जी मुझे तीखी नज़रों से देखते रहे. तो मैंने कहा स्वामी जी आप जानते हैं हमारे देश में इस आध्यत्मिकता के कारण जितनी उन्नती हुई है? ठगी, घूसखोरी और अनैतिकता और चोर बाज़ारी अपने चरम पर हैं. साधारण आदमी अंध विश्वासों में डूब कर आप की भारतीय संस्कृति की बखिया उधेड़ रहा है और इस स्थिति में हमारी संस्कृति और आध्यात्मिकता धार्मिकता आप को अर्थहीन नहीं लगती, यह जो प्रवचन आप दे रहे हें इसे आत्मप्रवंचना ही कह सकती हूँ मैं. यहां के लोग इस तरह के अंधविश्वास से दूर हैं और जैसा चाहते हैं वैसा स्वछन्द जीवन जीते हैं तथा हमारी तरह की नैतिकता नहीं बघारते. कब तक आप इस अर्थहीनता में स्वयं को और अपनी सांस्कृतिक धरौहर को बेचते रहेंगे? कुछ तो इस तरह का काम करें कि उसका लाभ आप के देश और समाज को मिल सके.

स्वामी जी खीजे स्वर में बोले, "भौतिकचाद की पूजा करने वालों में नैतिकता कहां रह गयी है. पश्चिम वालों को कृतज्ञ होना चाहिये कि हमने उनके उद्धार के लिए आज भी वस्तुवाद की दुनिया में रह कर भी धर्म और ईश्वर को सहेज रखा है." धर्म और ईश्वर पर केवल भारत का कैसे अधिकार हो? लेकिन मैं वहां से चली आयी. कितने लोगों को स्वामी जी के साथ यह वार्तालाप समझ में आया यह अन्दाज़ मुझे नहीं है लेकिन स्वयं स्वामी जी काफ़ी परेशान दिखाई दे रहे थे.

जिस धर्म दर्शन और ऊँची संस्कृति की लम्बी चौड़ी व्याख्या हम भारतीय करते हैं, वह तो अब केवल खण्डहर ही रह गये हैं और धार्मिकता और अध्यात्मिकता के यह ठेकेदार उन खण्डहरों को भी अपने लिए नहीं रखेंगे, मुझे लगता है.

लोग विदेशों से भारतीय संस्कृति के इन खण्डहरों में स्वयं ही भारतीय आध्यात्मिकता धार्मिकता और नैतिकता को खोज रहे हैं. यह उन अध्यात्मिकता के रक्षकों की समझ में शायद नहीं आ रहा है और यह संस्कृति के रक्षक ज़मीन पर तो रहते नहीं आकाश में ही विचरण करते हैं तो कैसे समझ सकते हैं?

माँ की डायरी से - शेरोन बोस्टन अमेरिका 1998 (तारीख नहीं लिखी)

27 जुलाई 2010

आधुनिक इतिहास और पारम्परिक समूहों का भविष्य

टिप्पणीः परम्पराओं और परम्परागत समूहों पर धर्म के प्रभाव, उपनिवेशवाद और धर्म के सम्बंध, आने वाले भूमंडलीकरण का आभास और उसका संस्कृति तथा भाषा पर प्रभाव, जैसे विषयों को छूने वाला ओम का यह लेख विश्व के विभिन्न देशों और संस्कृतियों पर विहंगम दृष्टि डालता है और बहुत विचारोत्तेजक है. १९७१ के आसपास लिखे इस आलेख, जो "मैं और मेरा वक्त" नाम के आलेख संग्रह का हिस्सा था, में कही कुछ बातों को इतिहास ने सही साबित किया, कुछ अन्य बातें गलत साबित हुईं. आज के समाजवादी लेखन में भारत में धर्म के विषय पर इस तरह स्पष्ट शब्दों में बात कहना शायद गलत माना जायेगा, और न ही इस तरह के विषयों पर आज कोई बहस संभव है.

मेरे अपने मन में इस लेख ने बहुत से प्रश्न उठाये, कुछ बातों से असहमती लगी, टाईप करते करते, मन ही मन उनसे बहस कर रहा था.

आधुनिक इतिहास और पारम्परिक समूहों का भविष्य, भाग 2
ओमप्रकाश दीपक (1971 के आसपास)

गोरी सभ्यता के बाहर दुनिया के लोगों का भविष्य क्या है, इस सवाल का जवाब खोजने से पहले हम इस तथ्य को देख सकते हैं कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में जन्में बौद्ध धर्म ने जब दीक्षा ले कर धर्म परिवर्तन की व्यवस्था शुरु की, तो उसने धर्म और पारम्परिक संगठन में एक बड़ी क्रांती का सूत्रपात किया. तब तक राज्य, धर्म, संस्कृति और सामाजिक संगठन में सब मिल कर एक इकाई का निर्माण करते थे. धर्म में न केवल आदमी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बल्कि उसके सामाजिक सम्बंध भी आ जाते थे. बौद्ध धर्म ने आध्यात्मिक व्यक्तित्व को सामाजिक सम्बंधों से अलग किया. बौद्ध धर्म ने इसे सम्भव बनाया कि एक दिन पहले तक की नगरवधू, दूसरे दिन भिक्षुणी बन गयी. लेकिन इसके अलावा, बौद्ध धर्म का दार्शनिक आधार पाराम्परिक, पौराणिक समाजों के दार्शनिक आधार के काफ़ी निकट था कि वहाँ जहाँ कहीं भी फ़ैला, पराम्परिक धर्मों के साथ घुल मिल गया. संभर्ष न हुए हों ऐसा नहीं, लेकिन एक तो पाराम्परिक धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की भी कोई एक किताब नहीं, दूसरे स्वयं बुद्ध भी ज्ञान की ऐसी अवस्था के प्रतीक हैं जिसे प्राप्त करना दूसरों के लिए भी असम्भव नहीं माना गया. "धर्म परिवर्तन" की व्यवस्था के बावजूद बौद्ध धर्म मूलतः व्यक्तिवादी है.

पाँच सौ वर्ष बाद जन्मे मसीही धर्म और उसके भी पाँच सौ वर्ष बाद बाद जन्मे इस्लाम का चरित्र भिन्न है. बुद्ध जहाँ रास्ता है, ईसा मूलतः माता है, मसीहा है. और मसीही धर्म संगठन उनका प्रतीक है, प्रतिनिधि है. पैगम्बर मोहम्मद "रसूल अल्लाह" हैं, और इस कारण आध्यात्मिकता से ले कर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में मनुष्य के मार्ग दर्शक हैं, नेता हैं. मसीही धर्म और इस्लाम दोनो में एक अन्तिमता और एकांतिकता है जो बौद्ध धर्म और पाराम्परिक धर्मों में नहीं है. बहरहाल, यहाँ धर्मों की तुलना करना मेरा उद्देश्य नहीं. मैं इस तथय की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ कि दुनिया की दो तिहाई या और ज़्यादा आबादी अब इन तीन धर्मों के अंतर्गत आ गयी है. यूरोप, दोनो अमेरिका और आस्ट्रेलिया, इन चार महाद्वीपों में तो मसीही धर्म का एकक्षत्र साम्राज्य है. उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया के कुछ भाग उसी तरह मुसलमान हैं. अफ्रीका में सहारा के दक्षिण में मसीही धर्म पराम्परिक धर्मों का स्थान लेने को सचेष्ठ है. दक्षिणी एशिया में इस्लाम, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच एक तनावपूर्ण सह‍अस्तित्व है. चीन, मंगोलिया और जापान में ऐसे ही बौद्ध धर्म, ताओवाद, कन्फ़ूशियस मत और शिन्तो धर्म के बीच सहअस्तित्व है, लेकिन वहाँ दक्षिण एशिया जैसा तनाव नहीं.

ईसाइयों में गोरो से हमे यहाँ मतलब नहीं, क्योंकि गोरी सभ्यता तो उन्हीं की सभ्यता है. ऐसे अधगोरे लोगों को भी छोड़ देना चाहिये जो हर स्तर पर, पूरी तरह गोरी सभ्यता से जुड़ गये हैं. लेकिन इसके बाद ईसाइयों की बड़ी संख्या बची रहती है, गो ईसाइयों की कुल संख्या देखते हुए बहुत अधिक नहीं, दुनिया की आबादी में लगभग एक तिहाई गोरे हैं जिनके अलावा दुनिया में ईसाइयों की संख्या एक मोटे अनुमान के अनुसार पंद्रह बीस करोड़ के बीच हो सकती है. इनमे भी दो हिस्से हैं.

मसीही धर्म के विभिन्न मतों सम्प्रदायों के अपने अपने विशाल केंद्रीय संगठन हैं, जो सारे के सारे, युरोप या उत्तरी अमेरिका से संचालित होते हैं. ये संगठन मसीही धर्म का इस्तेमाल गोरी सभ्यता के एक उपकरण के रूप में करते हैं. युरोपीय भाषाएँ, युरोपीय रहन सहन और पहनावा और गोरी दुनिया के साथ आर्थिक या व्यापार सम्बंध, युरोप से संचालित केंद्रीय संगठनों के हाथ में इन बातों के साथ मसीही धर्म अनिवार्य और अभिन्न रूप में जुड़ा रहता है.

दूसरा हिस्सा ऐसे ईसाइयों का है जो निष्ठावश या अन्य किसी कारणवश ईसाई तो हो गये हैं, या पीढ़ियों से हैं, लेकिन जो मसीही धर्म के माध्यम से गोरी सभ्यता के साथ नहीं जुड़े, बल्कि जिन्होंने मसीही धर्म को अपने पाराम्परिक जीवन में समाविष्ट कर लिया, कहीं कहीं तो अपने पाराम्परिक धर्म में ही ईसा, मरियम और ईसाई सन्तों को भी उन्होंने अपने देवी देवताओं के बीच यथास्थान प्रतिष्ठित कर दिया.

कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, मुख्यतः अफ्रीका में इथियोपिया और भारत में केरल, जहाँ युरोप में मसीही धर्म संगठन से सर्वथा स्वतंत्र, डेढ़ हज़ार साल या और ज़्यादा अर्से से ईसाइयों की बस्तियाँ चली आ रही हैं. इस दूसरी कोटी के सभी तरह के ईसाइयों को पराम्परिक समूहों में ही गिनना चाहिये.

इन मामलों की जानकारी में बड़ी जबर्दस्त कमी है. संयुक्त राज्य अमरीका में अब मुश्किल से पांच दस लाख के बीच आदिवासी बचे हैं, वह अभी भी अमरीकी समाज का अंग नहीं बन पाये हैं. उनकी औसत आमदनी ढाई तीन सौ डालर सालाना है (इससे दस गुनी आय तक के लोग सरकारी परिभाषा के अनुसार ग़रीब माने जाते हैं). अपनी धार्मिक मान्यताओं और धार्मिक संस्कारों को वे यथासंभव दूसरों से गुप्त रखते हैं. लेकिन उनमें ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अपने पाराम्परिक समाज से कट गये हों. उनके गांव पहले जैसे नहीं, उनकी पौशाक पहले जैसी नहीं, और आम तौर पर उन्होंने अंग्रेज़ी बोलना सीख लिया है. लेकिन उसके अलावा उन्होंने अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर रखी हैजिसमें किसी बाहरी आदमी का घुस पाना मुश्किल है. उस दायरे के अंदर पाराम्परिक नाच और अन्य संस्कार होते हैं. युद्ध (कोरिया या वियतनाम) से लौटने वाले सैनिक का कबाइली पुरोहित के द्वारा शुद्धि संस्कार होता है. लेकिन कब तक? क्या गोरे अमरीकी समाज में समा जाने के अलावा इनकी कोई और नियति भी हो सकती है? उसकी कल्पना करना कठिन है लेकिन स्वयं उनमें ऐसे लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं कि गोरे लोग सार्थक ढंग से जीना नहीं जानते, आदिवासी उन्हें सिखा सकते हैं.

मध्य और दक्षिणी अमरीका का युरोपीय नामकरण "लातिनी अमरीका" अपने आप में औपनिवेशिक दिमाग का सूचक है, क्योंकि समूचे क्षेत्र में गोरों का अनुपात एक चौथाई से अधिक नहीं होगा. इससे यह ऐतिहासिक तथ्य भी छिपा रह जाता है कि उत्तरी अमरीका की तरह दक्षिणी अमरीका में भी आदिवासियों को या तो समूल नष्ट कर दिया गया है या जंगल पहाड़ और रेगिस्तान में जा कर सिर छिपाने को बाध्य कर दिया गया है. अर्जेन्टीना, उरुग्वे और दक्षिणी ब्राज़ील में अब आदिवासी नहीं के बाराबर ही रह गये हैं. चिली में भी आदिवासी तो नहीं रह गये, लेकिन बहुसंख्या गोरों की है या मिश्रित रक्त वालों की, उसके बारे में कुछ बहस है.

आदिवासियों की कुल संख्या कितनी है, इसका कुछ ठीक पता नहीं. लेकिन कुल आबादी में उनका अनुपात भी मोटे तौर पर एक चौथाई आँका जाता है. शेष आधी आबादी मिश्रित रक्त वालों की है. गोरे और मिश्रित रक्त वाले लगभग सारे ही ईसाई हैं. आदिवासियों में भी ईसाईयों की संख्या काफ़ी है. समूचे क्षेत्र में रोमक कैथोलिक मत का एकाधिपत्य है. यहाँ पाराम्परिक समूहों की स्थिति पर विचार करते समय धर्म और रक्त मिश्रण दोनो को ही ध्यान में रखना ज़रूरी है. मेक्सिको ही शायद एकमात्र ऐसा देश है जिसने कम से कम सांस्कृतिक स्तर पर अपने को पुरानी आदिवासी सभ्यताओं से जोड़ने की चेष्टा की है. लेकिन वहाँ की साक्षरता की कसौटी स्पेनी भाषा है, और राजनीतिक आर्थिक जीवन में बहुसंख्यक आदिवासी शक्ति केंद्रों से कटे हुए हैं. धर्म के क्षेत्र में एक किसी हद तक सतही होने पर भी काफ़ी महत्वपूर्ण मिसाल गुआडेलोप की प्रसिद्ध मरियम की मूर्ति है जिसमें मरियम गोरी नहीं हैं, अमरीकी आदिवासी हैं और गिरजाघर में प्रतिष्ठित मूर्तियों में एक मूर्ति आदिवासियों के पाराम्परिक सांस्कृतिक देवता की भी है. लेकिन मेक्सिको में भी पहाड़ी और रेगिस्तानी इलाकों में आदिवासी गरीब और निरक्षर हैं और अब भी अपना पाराम्परिक जीवन बिता रहे हैं.

अन्य देशों में तो आदिवासियों की स्थिति बहुत कुछ अछूतों जैसी है. वे अब भी अपनी प्राचीन भाषाएँ बोलते हैं और इस कारण एक्वाडोर और पेरू जैसे देशों में मताधिकार से भी वंचित हैं - मताधिकार के लिए स्पेनी भाषा का जानना आवश्यक है. इस प्रकार जहाँ उनका समूल नाश नहीं हुआ है, वहाँ भी उनके सामने दो ही विकल्प हैं - अपने पारम्परिक जीवन को त्याग कर अधगोरे बनें और गोरी सभ्यता में दूसरे दर्जे की नागरिकों की हैसियत प्राप्त करें, या जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों में अपने पाराम्परिक जीवन की रक्षा करने की चेष्टा करते हुए धीरे धीरे नष्ट हो जायें. इस संदर्भ में मिश्रित रक्त वालों के भी मोटे तौर पर दो हिस्से हैं. एक हिस्सा ऐसा है जो गोरों के साथ जुड़ा रहा है और उनकी शक्ति और सम्पन्नता में कम ज़्यादा हिस्सेदार है. दूसरा हिस्सा ऐसा है जो नाम करने को भले ही ईसाई है, और उसकी नसों में कुछ युरोपीय रक्त भी है लेकिन अन्यथा उसकी स्थिति भी आदिवासियों जैसी ही है और उसके सामने भी वही विकल्प हैं.

अफ्रीका के पारम्परिक समूहों के बारे में जानकारी और भी कम है. एक अनुमान के अनुसार अफ्रीका की आबादी में आधे मुसलमान हैं, एक तिहाई ईसाई और शेष, यानि कुल आबादी का केवल छठा भाग ही पारम्परिक धर्मों को मानने वाला रह गये हैं. लेकिन कुछ अफ्रीकी सूत्रों के अनुसार अफ्रीका की तीस करोड़ से कुछ अधिक आबादी में आठ दस करोड़ के बीच मुसलमान हैं, पाँच सात करोड़ के बीच ईसाई. अगर यह अनुमान सच है तो अफ्रीका की आबादी में लगभग 40-50 प्रतिशत लोग अब भी अपने पाराम्परिक धर्मों को मानते हैं.

लेकिन इन ऊपरी तथ्यों से अलग इस बारे में कोई मतभेद नहीं है के उत्तरी अफ्रीका के अरब देशों को छोड़ कर, आम तौर पर अफ्रीकी लोगों ने जहाँ इस्लाम या मसीही धर्म को स्वीकार कर लिया है वहाँ भी इससे उनकी पाराम्परिक जीवन पद्धिति में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है. पिछले कुछ दशकों में, खास तौर पर मसीही धर्म के सम्बंध में, दो प्रवृतियाँ विषेश रूप से दिखाई पड़ी हैं. एक तो सम्भवतः राष्ट्रवाद के प्रभाव के कारण, युरोप स्थित केंद्रों के नियंत्रण से मुक्त, स्वतंत्र अफ्रीकी धर्म संगठनों के निर्माण के आंदोलन बड़े पैमाने पर हुए हैं. अफ्रीकी धर्म और दर्शन के एक ईसाई अध्यापक के अनुसार इस तरह के लगभग पाँच हज़ार संगठन पूरे महाद्वीप में बने हैं, जबकि युरोपीय केंद्रों से सम्बद्ध मसीही धर्म संगठनों की संख्या लगभग एक हज़ार है. स्वतंत्र धर्म संगठनों के अनुयायियों की संख्या अफ्रीकी ईसाईयों में कितनी हो गयी है, इसकी जानकारी नहीं है. दूसरे ऐसा भी काफ़ी बड़े पैमाने पर हुआ है कि मसीही धर्म स्वीकार करने के कुछ समय बाद लोग फ़िर अपने पाराम्परिक धर्मों में वापस चले जाते हैं. यहाँ भी हम ईसाईयों की एक दुविधा देख सकते हैं. एक स्तर पर युरोप से स्वतंत्र होने की चेष्टा, रानीतिक अधिक है, सांस्कृतिक कम. अगर आर्थिक संगठन और आर्थिक विकास के संदर्भ में लक्ष्य गोरी सभ्यता की नकल करना ही रहता है, तो अफ्रीका के मसीही धर्म संगठन स्वतंत्र भले ही जायें, अफ्रीकी लोगों का पराम्परिक जीवन कायम नहीं रह सकता. यह बात उन लोगों के लिए भी सच है जो धर्मों को अब भी मानते हैं. और मूलतः उनके सामने भी वही समस्या है जो मध्य और दक्षिणी अमरीका के आदिवासी समूहों के सामने है. इतना फर्क शायद है कि अफ्रीका में गोरों और मिश्रित रक्त वालों की संख्या बहुत कम होने के कारण पारम्परिक अफ्रीकी समूहों के समूल नष्ट होने की संभावना नहीं है. लेकिन अगर नाश नहीं, तो सड़न. गोरी सभ्यता की बंदर नकल (जिसकी प्रवृति अफ्रीकी शासक वर्ग में भी बड़े पैमाने पर दिखाई देती है) या सड़न, अभी तो यही विकल्प दिखायी देते हैं.

इस्लाम बड़े धर्मों में सबसे नया, और सबसे अधिक राजनीतिक है. मसीही धर्म के पोप मूलतः धार्मिक नेता रहे हैं, जिनकी राजनीतिक शक्ति धीरे धीरे घटती रही है, गो अब भी आम तौर पर जैसा समझा जाता है उससे बहुत अधिक है. लेकिन इस्लाम के ख़लीफ़ा मुख्यतः राजनेता थे जिनका कर्तव्य इस्लाम के प्रचार और और उसकी रक्षा के लिए राजशक्ति का इस्तेमाल करना था. धर्म संगठन की शक्ति धर्म की व्याख्या करने वाले उलमाओं के हाथ में थी और अब भी है. लेकिन इस्लाम रंगीन चमड़ी वाले लोगों का धर्म है और इसलिए राजनीतिक दृष्टि से दुर्बल है. इस्लाम के सामने इस कारण मुख्य समस्या आंतरिक है. फ़िलहाल इस्लाम में इतनी शक्ति नहीं है कि राजशक्ति के इस्तेमाल से सारी दुनिया को मुसलमान बनाने की बात सोची जाये. आंतरिक शक्ति का भी विकास होने पर यह सोचना भी संभव होता कि इस्लाम को राजनीति से उसी तरह जोड़ा जाये जैसे गोरी सभ्यता अभी भी मसीही धर्म से जुड़ी है. कुछ लोगो ने सारी दुनिया में इस्लाम और मसीही धर्म के गँठजोड़ की कल्पना भी की है. लेकिन यह तमाम बातें वस्तुस्थिति के संदर्भ में अयथार्थ प्रतीत होती हैं, क्योंकि इस्लामी समाज स्वयं एक प्रकार का पाराम्परिक समाज बन गया है, स्थिर, गतिहीन. इस्लाम का ह्वास चूँकि पिछले छः सौ सालों में ही हुआ है, इस कारण मुसलमानों के लिए इस तथ्य को स्वीकार करने में एक तरह की मानसिक अड़चन आती है कि अन्य धर्मों की तरह इस्लाम के आध्यातमिक और मानवीय मूल्यों का महत्व भी कम होगा, लेकिन इस्लामी कानून और इस्लामी राजनीति के आधार पर नयी दुनिया नहीं बनायी जा सकती. फ़िर भी यह एक असलियत है कि गैर अरब अफ्रीका में, हिन्दुस्तान में, मलयेशिया और इन्दोनेशिया में, इन क्षेत्रों के पाराम्परिक धर्मों के साथ इस्लाम का समन्वय उसी प्रकार हुआ है कि धार्मिक भावनाओं का आवेग छोड़ दें तो इन देशों के मुसलमानों और अन्य लोगों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है. जिन देशों की सारी आबादी मुसलमान है, वे भी पाराम्परिक समाज ही हैं, चाहे मोरोक्को हो या मिस्र, ईरान हो या सऊदी अरब. इस्लाम की समस्या कुछ ज़्यादा पेचीदा इस कारण हो जाती है कि आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ यहां धर्म और राजनीति के सम्बंधों की समस्या भी जुड़ गयी है. समस्या अन्य समूहों में भी है लेकिन उसका रूप भिन्न है. दक्षिण अमरीका में वह आत्मरक्षा की है. गैर अरब अफ्रीका में समस्या यह है कि राज्यों की सीमाएँ पुराने उपनिवेशों की ही सीमाएँ हैं, जिसके फ़लस्वरूप राज्यों के अन्दर प्रतिद्वन्द्विताएँ भी उभरी हैं और कई राज्यों में बटे हुए समान सांस्कृतिक परम्परा वाले लोगों के बीच एकता की इच्छा भी. उत्तरी अफ्रीका के लोगों के लिए यह तो मुमकिन है कि वे अरब और अफ्रीकी राजनीति में मेल बिठा सकें, लेकिन उनकी राजनीति अफ्रीकी है या इस्लामी, इसके बीच तो उन्हें चुनाव करना ही पड़ेगा.

हिंदुस्तान में, खास तौर पर बँगलादेश के मुक्ति संग्राम से धीरे धीरे मामला साफ़ होता नज़र आता है कि इस्लाम को राजनीति का आधार बना कर नहीं चलाया जा सकता. मलयेशिया और इंडोनेशिया में यह समस्या पहले से ही ग़भीर नहीं है.

एशिया को वास्तव में हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं, उत्तर और दक्षिण. सोवियत संघ का एशियाई भाग, जापान और अब चीन, इनमें पाराम्परिक समाज में परिवर्तन हुए हैं. दक्षिण एशिया अब भी पाराम्परिक है. वास्तव में गोरी सभ्यता के चलते, पाराम्परिक समाज किस सीमा तक जा सकते हैं, जापान, एशियाई सोवियत गणराज्य और चीन इसके उदाहरण हैं. ये उदाहरण भी ऐसे नहीं हैं जो हर जगह लागू किये जा सकते हों. सामन्ती जापान साम्रज्यवाद फाशीवाद के मार्ग से हो कर पूँजीवादी लोकतंत्र तक पहुँचा है. यह मार्ग अपवाद ही हो सकता है, नियम नहीं. दूसरे अगर यहाँ सन्तोष की बात कोई है तो यही कि जापान कम से कम शक्तिशाली तो बन गया है. किसी वक्त जापान में फाशीवाद के उदय की एक व्याख्या शिन्तो धर्म के सन्दर्भ में भी की गयी थी. जापानी सम्राट सूर्यपुत्र हैं और जापानी लोगों पर ईश्वर की विषेश अनुकम्पा है, जनसाधारण के इस विश्वास के कारण जापानी शासक वर्ग लोगों को फाशीवाद के कठोर सैनिक अनुशासन में बाँध सका. लेकिन अगर यह सच हो तो फ़िर जापान में पूँजीवादी लोकतंत्र का आधार भी शिन्तो धर्म को ही मानना पड़ेगा. वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत है. शिन्तो धर्म से न फाशीवाद का उदय हुआ न पूँजीवादी लोकतंत्र का. बल्कि गोरी सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्थाओं को अपनाने के फ़लस्वरूप स्वयं जापानी समाज का चरित्र बदल गया है. पाराम्परिक संस्कृति के अवशेष अभी हैं, लेकिन ऐसे अवशेष तो युरोप के हर देश में भी हैं, जो पूँजीवाद विकास की होड़ में जापान से बहुत पहले शामिल हुए थे.

सोवियत संघ के एशियाई हिस्से में भी ऐसे परिवर्तन हुए हैं कि अब उन्हें पराम्परिक समाज कहना सही नहीं होगा. सोवियत संघ एक ऐसा संयुक्त परिवार है जिसके बजुर्ग उसके युरोपीय सदस्य हैं, और उनमें भी "कर्ता" का स्थान मस्क्वा के इलाके को हासिल है. सोवियत संघ के एशियाई गणराज्यों की हैसियत पिछले पचास सालों में परिवार के "आश्रितों" की रही है, और जहाँ तक भविष्य को देखा जा सकता है इस स्थिति में परिवर्तन की कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती. रूस की साम्यवादी तानाशाही की व्याख्या भी अक्सर बाइज़ेनटाइन सभ्यता के संदर्भ में की गयी है. लेकिन फ़िर वर्तमान मध्य एशिया की व्याख्या समरकंद के संदर्भ में कैसे होगी? मार्कसवाद की युरोप केंद्रित दृष्टि के कारण साम्यवाद के अंतर्गत इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता कि गोरी सभ्यता के बाहर के लोग बच्चे जैसे समझे जायें और साम्यवाद उनकी प्रगति में सहायक हो. लेकिन इस प्रक्रिया में सम्बंधित ग़ैर युरोपीय समूहों का व्यक्तित्व भले बदल जाये, युरोप के साथ बराबरी नामुमकिन है.

साम्यवादी चीन में चल रही उथल पथल शायद मूलतः इस स्थिति के खिलाफ़ विद्रोह की अभिव्यक्ति है. पूर्वी युरोप के छोटे छोटे देशों को या अज़रबाइजान और उज़बेकिस्तान के आश्रित बना कर रखा जा सकता था. लेकिन विशालकाय चीन को नहीं. साम्यवादी चीन ने जो विकल्प चुना है वह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे दोनो महायुद्धों के बीच की अविधि में जापान ने चुना था. तमाम अटकलों और अख़बारी पतंगबाज़ी को छोड़ दें तो आखिर में तथ्य यही सामने आता है कि साम्यवादी चीन में दल और सेना की मिली जुली तानाशाही स्थापित हो रही है जिसका लक्ष्य एक ऐसे शासक वर्ग का निर्माण करना है जिसमें दल और सेना के अलावा, विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले चुने हुए लोग हों. आगे चल कर इनमें भी कोई फर्क न रह जाये. दल के चुने हुए नेता, सेना के चुने हुए लोग भी हों, और विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों के चुने हुए लोग भी. क्राँतिकारी परिषद का हर सदस्य एक साथ ही राजनीतिक कार्यकर्ता भी हो, सैनिक भी, उत्पादक भी. इस तरह चीन और क्यूबा के बीच का सैद्धांतिक फ़र्क घटा है.

चीन की साम्यवादी तानाशाही की व्याख्या अब कुछ लोग कन्फूशियस के व्यवहारवाद के सन्दर्भ में करने लगे हैं, खास तौर पर भारतीय अध्यात्मिकता की तुलना में. लेकिन जापान और रूस की तरह, इस व्याख्या का भी कोई खास मतलब नहीं है. मैं समझता हूँ कि अगर भारत में किसी प्रकार की कोई तानाशाही स्थापित हो जाये, तो जातिप्रथा के सन्दर्भ में उसकी व्याख्या बहुत आसानी से की जा सकेगी और उतनी ही एकाँगी तथा बेमतलब होगी. बहरहाल, चीन में जो नयी तानाशाही बन रही है, संस्कृति समेत चीन के पारम्परिक जीवन को नष्ट कर देना उसका घोषित उद्देश्य है, ताकि एक बिल्कुल नयी संस्कृति का निर्माण किया जा सके. लेकिन सैनिक, राजनीतिक, आर्थिक तानाशाही के द्वारा निर्मित संस्कृति, वह भी सारी दुनिया की एक ही संस्कृति, इससे अधिक राक्षिसी कल्पना और क्या हो सकती है?

भारत, पाकिस्तान से ले कर लाओस, कम्बोदिया और इंडोनेशिया तक एक संस्कृति क्षेत्र है. वियतनाम उस क्षेत्र और चीन के बीच का संधिक्षेत्र है. पारम्परिक समूहों के सामने इस समय जो समस्या है, वह अपने सभी रूपों में इस क्षेत्र में वर्तमान है. अमेज़न के जँगलों और एन्डीस पर्वतमाला में दुनिया से कटे हुए अमरीकी आदिवासियों की तरह, इस क्षेत्र में भी ऐसे आदिवासी समूह हैं जो इतिहास की आक्रामक लहरों से बचने के लिए जंगलों पहाड़ों में छिप गये, और अभी भी बाहर की दुनिया से उनका कोई सम्बंध नहीं है. ऐसे समूह भी हैं जिनकी तुलना अफ्रीकी पारम्परिक समूहों से की जा सकती है, वे बाहर की दुनिया से कटे हुए नहीं हैं, लेकिन जिनका सामाजिक संगठन अब भी वही पुराना पारम्परिक और पौराणिक है. बाहरी दुनिया के साथ सम्पर्क उनके पारम्परिक जीवन में दरारें पैदा कर रहा है. जंगलों की जगह बागानो और खादानो ने ले ली है. शराब अब उत्सव का अंग नहीं रही, उदासी से भागने का उपाय बन गयी है. स्वच्छंद जीवन को बाहरी दुनिया के सम्पर्क ने यौन रोगों से ज़हरीला बना दिया. फ़िर भी उनका पारम्परिक जीवन उन्हें ऐसी सुरक्षा प्रदान करता है जिसमें जीवन का रस बिल्कुल सूख नहीं गया है, लेकिन कब तक.

इसके अलावा इस क्षेत्र में दुनिया के चारों बड़े धर्म (इस्लाम, मसीही धर्म और बौद्ध धर्म के अलावा हिन्दू धर्म भी) सक्रिय हैं. हिन्दूस्तान में आधी सदी से अधिक समय तक हिन्दू मस्लिम तनाव अपनी चरम परिणितियों तक जा कर अब बँगला देश मुक्ति संग्राम के जरिये शायद ऐसी जगह आ रहा है जहाँ दोनो धर्मों के बीच एक नया सम्नवयपूर्ण सम्बंध संभव होगा. युरोपीय केन्द्रों से संचालित मसीही धर्म इस क्षेत्र में बहुत अधिक नहीं फ़ैल सका, लेकिन जहाँ वह अपने पाँव जमा सका (जैसे भारत के उत्तर पूर्वी कबाइली इलाके में) वहाँ उसने काफ़ी जहरीले बीज बोये. वियतनाम में उसका असर रहा है. लेकिन गोरी सभ्यता को मसीही धर्म से कहीं अधिक सहायता इस क्षेत्र के उस प्रभावशाली वर्ग से मिली है (यहाँ भी किसी हद तक अफ्रीकी शासक वर्ग से तुलना की जा सकती है) जिसने धर्म तो नहीं बदला, लेकिन भाषा, रहन सहन, पोशाक और उपभोग में गोरों की नकल करना सीख लिया है. यह एक तरह की असंस्कृतिकरण की प्रक्रिया है जो आधुनिकरण के नाम पर चलाई जा रही है. अगर यह सफल हो जाये तो किसी की कोई भाषा नहीं रह जायेगी, लोग बहुत कुछ उसी भाषा का इस्तेमाल करने लगेंगे जो किसी समय अँग्रेज साहबों के खानसामा साहबों के साथ इस्तेमाल किया करते थे. संभव है कि मेरी बात कुछ अत्युक्तिपूर्ण लगे लेकिन भाषा के छिछली और अर्थहीन होने के खतरे के बारे में कोई शक नहीं है. अभी ही हमारी भाषा बहुत हद तक पंगु हो गयी है. पारम्परिक जीवन में परिवर्तन के नाम पर रोज़ नये नये बाबा, सिद्ध, योगी, महायोगी और अवतार जन्म लेते रहेंगे. कीर्तन, भजन, जागरण, यज्ञ, मंदिरों में चढ़ावा, यह सब चलता रहेगा, बल्कि बलि की प्रथा फ़िर चल सकती है. लेकिन पारम्परिक धर्म के मूल्य नष्ट होने की कौन कहे, लोग धीरे धीरे भूलते जायेंगे कि कोई मूल्य थे भी. हिन्दुस्तान की गर्मी में, मई जून के महीने में आधुनिक व्यक्ति कोट पतलून पहने, टाई बाँधे, तो अब भी देखे जा सकते हैं. यह तो जंगलीपन भी नहीं है, आदमी का चिम्पांजी की सतह पर उतर जाना है.

संक्षेप में दक्षिण एशिया के क्षेत्र में एक ओर तो सामाजिक संगठन के विभिन्न स्तरों पर जमे हुए रूप हैं, दूसरी ओर विभिन्न पाराम्परिक धर्मों के परस्पर सम्बंधों में समन्वय की समस्या है, तीसरे समाज और धर्म दोनो में व्याप्त जड़ता है और चौथे गोरी सभ्यता का हमला है जो अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद का रूप लेने के बाद और भी तीव्र हो गया है. इस हमले की शुरुआत होती है अर्थव्यवस्था के तथाकथित आधुनिकीकरण से, जिसमें स्थानीय अर्थ व्यवस्था की पूरक और सहायक मात्र रह जाती है, मुख्यतः सस्ता श्रम और कच्चा माल देने वाली और नतीजे के तौर पर अन्ततः यही लक्ष्य पहली और आखिरी कसौटी बन जाता है, जिसमें आदमी चिम्पांजी से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं रहता.

दुनिया के अन्य पाराम्परिक समूहों के सामने भी इसी तरह की चुनौतियाँ हैं, लेकिन किसी अन्य क्षेत्र में चारों एक साथ नहीं हैं. गोरी दुनिया ने जो विकल्प रखे हैं, उनके अलावा पारम्परिक समूहों के सामने एक ही विकल्प है, आन्तरिक परिवर्तन के द्वारा शक्ति और गतिशीलता हासिल करना. कैसे? इसका ज़वाब विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को खुद ही खोजना पड़ेगा. दक्षिण एशिया में चुनौती सबसे गम्भीर है, क्या इससे यह सोचा जा सकता है दक्षिण एशिया के लोग दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा जल्दी सचेत होंगे और कुछ करेंगे? मैं इसकी आशा करता हूँ, लेकिन इस आशा के कारण जितने वस्तुपरक हैं, शायद उतने ही वैयक्तिक भी. बहरहाल, कुछ न करने के नतीजे मैं जो देख पाता हूँ, उनको समझ लेने के बाद उन्हें स्वीकार करने की कल्पना तो मैं तभी कर सकता हूँ जब मैं खूद अपनी और अपने बच्चों की चिम्पांजी बनने की नियती को स्वीकार कर लूँ, जो जाहिर है मैं नहीं कर सकता.

17 जुलाई 2010

मेरी कहानी

 (कमला दीपक की डायरी से)

मेरा जन्म फ़िरोज़पुर में हुआ. मुझसे पहले एक भाई था. हमारा गाँव पँजाब में जिला जेहलम, तहसील पिँडदादर खान, डाकखाना पिननवाल और कस्बा इरायाला में था. गाँव का नाम था दीवानपुर. चार मकान ज़मींदारों के थे, चार हिदुओं के. गाँव में स्कूल, अस्पताल आदि कुछ नहीं था. हिंदू मकानो में दो हवेली नुमा पुराने घर और दो नये पक्के बनाये गये थे, बाकी के घर कच्चे, मिट्टे के बने थे. पानी के लिए घर के अंदर हैंडपम्प लगा था, काम वालों के लिए बाहर बगीचे में कूँआ था. मुसलमानों के कूँए अलग थे. चारों घरों में खेती बाड़ी करने वाले लोग ही रहते थे. खेतों में फ़ल, सब्ज़ियाँ, गेँहू, चना, मूँगफ़ली, आदि उपजाया जाता था.

मेरे पिता के परदादा ठाकुरदास राजा रणजीत सिंह के दीवान थे. उनके बेटे थे भोलानाथ, कृपाराम और मूल चंद. मेरे दादा कृपाराम थे.

तब प्राईमरी स्कूल पिननवाल में था और बच्चे घोड़े पर बैठ कर वहाँ जाते. मुझे माँ के घर चकवाल तहसील में भेजा दिया गया था, वहीं करयाला कस्बे में मैं आर्यसमाज के प्राईमरी स्कूल में गयी. इसके बाद, एक छोटी बहन और दो भाईयों के साथ मुझे पढ़ायी के लिए शिमला छठी कक्षा में भेजा गया. तब छोटा भाई कृष्ण और दो छोटी बहनें गाँव में ही थीं. उस समय मेरे पिता ने डिफेन्स मिनिस्टरी में काम करना शुरु किया था. दूसरा महायुद्ध तभी स्माप्त हुआ था. तब अँग्रेज़ो का ज़माना था, गर्मियों में सभी कार्यालय शिमला में काम करते थे और सर्दियों में दिल्ली में. पिता जी ग्रेजुएट थे और हाकी के खिलाड़ी थे. ध्यानचंद उनके मित्र थे, हाकी की ट्रेनिंग साथ ही ली थी. शेख अब्दुल्ला लाहोर गवर्मैंट कालेज में उनसे एक वर्ष सीनियर थे और शेख अबदुल्ला की पत्नी का भाई उनके साथ पढ़ता था और गहरा मित्र था. जब तक शेख अब्दुल्ला रहे यह दोस्ती चली. वहाँ के अन्य राजा परिवारों से अच्छे सम्बंध थे.

मेरी दादी डिगियाँ के सिख परिवार की बेटी थी. पिंजनवाल के राजा सरदार खान मेरी दादी को बहन मानते थे. लियाकत अली भी पिता जी के अच्छे मित्र थे. रफ़ी अहमद किदवई से भी पारिवारिक मित्रता थी.

जब भारत स्वतंत्र हुआ तो पिता जी ने अपना ट्राँसफर लाहोर करवा लिया कि हमारा सब कुछ, ज़मीन, मित्र सब पाकिस्तान में ही है. आजादी मिली, बटवारा हुआ और लियाकत अली कुछ न कर पाये, हमें वहाँ से खाली हाथ तीन कपड़ों में भागना पड़ा. पिता जी की नौकरी जाती रही, बाद में मिली पर अफसर के रूप में नहीं, क्लर्क के रूप में. माडलबस्ती शीदीपुरा में एक मुसलमान के खाली घर में शरण मिली, घर आधा जला हुआ था. मैं मृदुला बहन के शान्ती दल में काम करने लगी, घूम घूम कर मुसलमान लड़कियों को खोजते और उन्हें बचा कर उनके परिवारों में भेजते. तब गाँधी जी, अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी आदि से भी भेंट हुई. कमला देवी चट्टोपाध्याय से रिफ्यूज़ी सेंटर में मिली.

पहले मुझे तीन महीने सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में बाड़ा हिंदुराव में हिंदी टाईपिंग का काम मिला, वहाँ जे स्वामीनाथन, सूरजप्रकाश, कश्यप भारगव और दीपक से मिली. चमनलाल भी मित्र थे जिन्होंने फैज़रोड पर एक मुसलमान के खाली घर में स्कूल खोला तो मैं, कश्पी, दीपक और विमला जो बाद में चमन की पत्नी बनी, वहाँ स्कूल में काम करते और मेरे तीन भाई और एक बहन वहाँ पढ़ने लगे. मुझे 40 रुपये तन्ख्वाह मिलती जिसमें से 20 रुपये उनकी फ़ीस में दे देती. छः मास वहाँ काम किया.

जब नेहरू की सरकार बनी तो लेजेस्लेटिव असेम्बली में संसद भवन में काम करना शुरु किया. तब सिद्धवा, दादा धर्माधिकारी, शाहनवाज़, पूर्णिमा बैनर्जी, मदनमोहन चतुर्वेदी आदि से पहचान हुई. मौलाना आज़ाद तब शिक्षा मंत्री थे, मसूद उनका पी.ए. था, मुझे उनके साथ काम मिलता. काम बहुत था और देर तक रुकना पड़ता था. मैं साईकल से आती जाती थी, रात को लौटती तो बिल्कुल सुनसान होता, रात के ग्यारह बारह भी बज जाते थे. वहाँ एक दक्षिण भारतीय अफसर था जिसने मुझे तंग करना शुरु कर दिया, उल्टी सीधी अटपट बातें करने लगा. तो मैं पंडित नेहरु के पास गयी जो मुझे मृदुला बहन के समय से जानते थे और मुझे बहादुर बेटी के नाम से पुकारते थे क्योंकि मैंने एक बार शान्ति दल में एक मुसलमान लड़की को भीड़ से बचाया था. तब मैं कभी भी तीन मूर्ती भवन के अंदर आ जा सकती थी.

मैंने पंडित जी को कहा कि मुझे असेम्बली से घर जाने में बहुत देर हो जाती है और अकेले घर जाने में डर लगता है. तो वह बोले तुम बहादुर लड़की हो, डर कैसा. मैंने कहा कि मुझे दरियागंज में नयी खुली टीचर्स इंस्टिट्यूट में भेज दीजिये, अभी तो ट्रेनिंग शुरु हुए दो महीने ही हुए हैं, मैं वह पूरा कर लूँगी. मौलाना आज़ाद के पी.ए. मसूद साहब मुझे फार्म दे गये, बस मैं संसद का काम छोड़ कर बेसिक टीचर्स ट्रैंनिग में चली गयी, जहाँ तीस रुपये महीने का वज़ीफ़ा मिलता था. एक साल बाद ट्रेनिंग पूरी हुई, मुझे दिल्ली के नवादा गाँव के स्कूल में नौकरी मिल गयी.

उसके बाद मैं शादी करके लखनऊ चली गयी जहाँ दीपक "संघर्ष" के लिए काम करते थे, मैंने मदर सिटी होम और म्यूनिसपल बोर्ड में काम किया. तभी पहले बेटी फ़िर बेटा हुआ. बेटी नहीं रही, उसे दिल की तकलीफ थी. "संघर्ष" का प्रकाशन बंद हुआ तो हम लोग इलाहाबाद चले आये जहाँ मैंने लैंड रिफोर्म के दफ्तर में काम किया और दीपक जी "लीडर" में काम कर रहे थे. जब दिल्ली में लोहिया के लोग पहुँचे और संसद ओफिस बना तो हम लोग दिल्ली चले आये. 1958 में दोबारा पंडित नेहरु से मिलने गयी तो उन्होंने पूछा कि क्या काम कर रही हो, मैंने बताया कि नौकरी नहीं मिली थी, तो उन्होंने मदन, अपने पी.ए. को बलाया और कहा कि मेरी बेटी को नौकरी दिलाओ, पहले दिल्ली प्रशासन में काम कर चुकी है, वहीं काम दिलाओ. पी.ए. ने दिल्ली प्रशासन के डायरेक्टर माथुर को टेलीफोन किया और मुझे नगर निगम के स्कूल में नौकरी मिल गयी.

तभी से दिल्ली में रही, दीपक जी भागते रहे, हैदराबाद चले गये. जब तक लोहिया रहे, उनके साथ ही रहे.

1998 दिल्ली, तारीख नहीं लिखी - माँ की डायरी से

13 जून 2010

रामकृष्ण अवस्थी और कश्यप भार्गव

 (कमला दीपक की डायरी से)

कुछ घँटों के बाद तुम्हें गये तेईस वर्ष पूरे हो जायेंगे. अब तो ऐसा लगता है कि मैं सुनहरी धूप में झरने के नीचे मुँह खोले लेटी थी और जीवन का अमृत स्वयं ही मेरे मुँह में गिर रहा था कि सहसा वह झरना सूख गया और मेरा मुँह खुला ही रह गया. क्या मनुष्य को गहरा उतरने के लिए मौत की घाटियों में झाँक लेना ज़रूरी है या उसकी एक असीम मानसिक कल्पना भी जीवन को उसकी सारी पीड़ाओं के होते हुए भी कितनी बहुमूल्य और सुन्दर बना सकती है. इसका अन्दाज़ केवल उन्हें है जो मृत्यु और उसकी वेदना को छू कर जीवित होते हैं, नहीं तो बहुथा लोग तो मात्र जीते ही हैं.

लखनऊ के हज़रतगंज के काफी हाउस की याद आ रही है, जब हमारे साथ रामकृष्ण अवस्थी थे, पता नहीं अब वह है या नहीं. मैंने बोला, "शादी क्यों नहीं लेते?" वह बोला, "सुनो ग्रीन (वह मुझे ग्रीन नाम से ही सम्बोधित करता था) मैंने जितनी भी शादी शुदा औरतें देखी हैं, वह दिमागी रूप से बीमार हैं. वैसे देखने में उन्हें कोई बीमारी नहीं है लेकिन मानसिक रूप में अधिकाँश एलर्जिक हैं, कोई इतर की और मिट्टी के तेल की, ठँड और गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती, सब परहेज़ी खाना खाती हैं, अक्सर दवाओं से पेट भरती हैं. ये सभी अपने पतियों से बेहद प्यार करती हैं और पति भी दिलोजान से उन पर मरते हैं, उनके ऐशोआराम व अन्य सुविधाओं की पूर्ती, यानि नौकर, रुपया सभी तरह से. कारण यह है कि इन औरतों ने दिमागी तौर पर पति को कबूल नहीं किया पर बेवफ़ा भी नहीं निकलीं. अपनी वफ़ा और पति को पसंद न कर सकने का बदला अपनी बीमारी और पति सेवा से ले रहीं हैं."

मैंने कहा कि तुम बकते हो, तो उसका उत्तर था कि मैं किसी ऐसी औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो मुझसे ज़िन्दगी भर अपनी वफ़ाओं का बदला ले. मैंने कहा, तुम्हें तो औरतें देवता मान कर पूजने को तैयार हैं. उसका उत्तर था केवल शादी से पहले, बाद में वह मुझे सिंहासन से उतार कर खुद उस पर बैठ कर चाहेगी कि मैं उनके आगे फ़ूल चढ़ाऊँ और यह सब मैं नहीं कर सकता. मैंने कहा, यह तुम्हारा अहं बोल रहा है.

उसका उत्तर, दुनिया में औरतों ने मर्दों के लिए कुर्बानी दी है और मैं इस तरह की कुर्बानी नहीं चाहता, केवल अपनी कर्बानी से डरता हूँ. मैंने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन इस उम्र में लड़कियाँ तुम पर जान देती हैं, कुछ वर्षों के बाद यह सब नहीं होगा, तब उस दशा में देहात की कोई सीधी सादी लड़की तुम्हारे जैसे घँमंडी से बाँध दी जायेगी, समझदार लड़की तो शादी करने से रही तुमसे.

बाद में सुना कि वह फ़िरोज़ गाँधी के साथ नेश्नल हैराल्ड में काम करता था. शादी भी घर वालों द्वारा हुई थी, एक या दो बच्चे भी थे. किसी ने बताया था कि उसका बेटा दिल्ली में नेश्नल हेरल्ड में काम करता है, लेकिन सम्पर्क नहीं कर पायी और अन्य उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज अपने "ग्रीन" नाम के साथ अवस्थी की याद आ गयी. नहीं होगा, होता तो पत्र भेजता तुम्हारे लिए, तुम्हारे विषय में पूछता या कहता देखो, दीपक ने कुर्बानी दी न तुम्हारे लिए.

ज़िन्दगी में यह कठोरता भी है कि जो पल गुज़र जाता है, वह फ़िर कभी आता नहीं लौट कर, केवल यादें ही शेष रह जाती हैं. शायर सलाम मछली शहरी का एक शेर याद आ गया - "ऐ निगराने चमन ज़ारे अवध, लखनऊ याद तो आता होगा".

और फ़िर इलाहाबाद में डा. सुनीती, कमला नेहरु अस्पताल में जो घर के पास ही था. पिंकी वहीं हुई थी. माता जी बहुत प्रसन्न थीं. तुम तो हैदराबाद में थे. सुनीति और सुमति अब न जाने कहाँ हैं?

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है. कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र. हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं. एक बार जानकीदेवी से निकल रही थी तो सविता मिली थी. तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही उसी तिथि और उसी समय में ही कश्यप भी नहीं रहा था. वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा. क्या कहती उससे. अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने. कई बार मन में आया कि उसके स्कूल बाल भारती में जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की.

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता. ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था. फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी. मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने. जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है.

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरज और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा. और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया. सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ.

कब सहला कर हाल पूछूँ, कब टटोलूँ क्या खो गया?
रात का अंधकार भी, बस झकझोरता रह गया.
फ़िर कभी फ़िर कभी कहते कहते, भूतकाल हो गया.

दिल्ली 24 मार्च 1998, कमला की डायरी से

27 मई 2010

आधुनिक इतिहास और पाराम्परिक समूहों का भविष्य (1)

"मैं और मेरा वक्त" आलेख संग्रह के लिए लिखा गया ओम  प्रकाश दीपक का यह विश्व की संस्कृति और सभ्यताओं के बीच होड़ तथा प्रभुत्व की आकाक्षाओं के विकास से उन्नीस सौ सत्तर के दशक तक के इतिहास का विषलेषण करते, आलेख का पहला हिस्सा प्रस्तुत है, जिसमें वह पश्चिमी सभ्यता द्वारा, पहले मसीही धर्म के नाम पर और फ़िर तकनीकी प्रगति के नाम पर हुए शोषण की बात करते हैं. यह आलेख शायद 1972-73 के आसपास लिखा गया था, (हस्तलिपि पर कोई तारीख नहीं है).

बहुत सी बातों में आलेख के लिखे जाने से आज तक आये विश्व परिवर्तन की बात सोच कर मुझे इसकी बातें अब भी सार्थक लगती हैं, लेकिन लिखते लिखते मन में प्रश्न भी उठे. जैसे कि तकनीकी को सभ्यता मानना, क्या विज्ञान को सभ्यता मानना नहीं है? पर क्या विज्ञान केवल औज़ार नहीं है, जिसे विभिन्न देशों के लोग अलग अलग तरीकों से इस्तमाल नहीं कर सकते? वैसे ही, जब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की बात होती है, तो मानवाधिकार या फ़िर समाज में नारी का स्थान और स्वतंत्रता, जैसी बातों को कहाँ रखा जाये? मैंने यह आलेख पहले नहीं पढ़ा था, इसलिए यह सोच कर थोड़ा दुख हुआ कि इन बातों पर उनसे बहस नहीं कर पाऊँगा.

***

बीसवीं सदी के आरम्भ तक पश्चिम के, यानि गोरी दुनिया के विद्वान युरोप की वर्तमान औपनिवेशिक सभ्यता के बाहर की सभी पुरानी सभ्यताओं का अध्ययन करते नृतत्व शास्त्रीय संग्रहालयों की तरह करते थे, ये जानने की कोशिश में कि यूरोप की गोरी, ईसाई, और औद्योगिक सभ्यता में मनुष्य की चरम, श्रेष्ठतम उपलब्धियों के पहले मनुष्य लड़खड़ाते कदमों से सभ्यता की किन छोटी चोटी सीढ़ियों पर चढ़ा था. यूरोप की नयी सभ्यता के बाहर के समाजों का अध्ययन, मनुष्य के इतिहास से भिन्न "प्राकृतिक इतिहास" विषय के अन्तर्गत किया जाता था. उसमें धर्म का भी शायद कुछ हाथ था, क्योंकि मसीही विश्वास के अनुसार जिन लोगों की पापमुक्ति के लिए ईश्वर ने न कोई मसीहा या पैगम्बर भेजा था, न कोई "किताब" दी थी, वे निश्चय ही यूरोपीय ईसाईसियों से भिन्न कोटी के जीव थे. इसी के अनुसार उन्नीसवीं सदी तक युरोप के "उदार" कहलाने वाले विद्वान भी दुनिया के रंगीन चमड़ी वाले तमाम लोगों को तीन मुख्य हिस्सों में बाँटते थेः "आदिम" समाजों के लोग, जो "सभ्यता" से सर्वथा अपरिचित थे, और बौद्धिक दृष्टि से भी अविकसित थे. मिस्र और पश्चिमी एशिया तथा मध्य और दक्षिणी अमेरिका की पुरानी अनगढ़ सभ्यताएँ, जो बहुत पहले नष्ट हो चुकीं, और इन इलाकों के लोग इन्सान कहलाने के लायक हैं तो धर्म के प्रभाव के कारण - उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में इस्लाम, और अमरीका में मसीही धर्म. तीसरे, चीन और हिन्दुस्तान जैसे देशों के "अर्ध सभ्य" लोग.

यूरोपीय देशों के औपनिवेशिक विस्तार के साथ ही इन गैर यूरोपीय क्षेत्रों को ले कर झगड़े भी शुरु हो गये थे, और अक्सर ऐतिहासिक अध्ययन इन झगड़ों को ले कर ही केंन्द्रित रहते थे - स्पेनियों द्वारा रक्त मिश्रिण, या अंग्रेज़ों-फ्राँसीसियों द्वारा सामूहिक हत्या, अमरीकी आदिवासी समाजों को खत़म करने का कौन सा तरीका ज़्यादा बुरा था? एशिया, अफ्रीका और अमरीका में विभिन्न यूरोपीय देशों के आचरण का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प ही नहीं शिक्षाप्रद भी हो सकता है, लेकिन यहाँ मैं ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ कि बाकी दुनिया के बारे में यूरोपीय देशों के बीच चाहे जो भी मतभेद रहे हों, एक बात पर सभी सहमत थे कि अगर कुछ गलतियाँ हुई भी थीं, तो ऐतिहासिक दृष्टि से उनका कोई विषेश महत्व नहीं था. औपनिवेशिक साम्राज्यों और विभिन्न क्षेत्रों में बसने या काम करने वाले गोरे व्यवसायियों और पादरियों के माध्यम से मसीही सभ्यता के कल्याणकारी प्रभाव के ज़रिये ही दुनिया के असभ्य और अर्ध सभ्य लोग अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता की हद तक सभ्य बन सकते थे. स्वभावतः, उसका तो कोई सवाल नहीं उठता था कि वे कभी सभ्य गोरी जातियों के समकक्ष भी आ सकते थे.

जिसे यूरोप का "नवजागरण" काल कहा जाता है (वास्तव में उसे केवल "जागरण" काल कहना चाहिए) उसके प्रारम्भ होने तक, यानि तैहरवीं चौदहवीं सदी तक, यूरोप के लोगों का सम्पर्क अधिकांश अरब लोगों के साथ ही था, जो उस काल में (11वीं से 18वीं सदी तक) ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों में युरोप के गुरु बन सकते थे. प्राचीन यूनान, खास तौर पर अरस्तु के दर्शन और विज्ञान से युरोपवासियों का वास्तविक परिचय भी स्पेन विजय करने वाले मुसलमान अरबों के माध्यम से हुआ था. उस समय युरोप को, जिसमें नयी स्फूर्ति और शक्ती का संचार हो रहा था, एक चीज़ की कमी बहुत अखर रही थी - इतिहास की. रोम का साम्राज्य, मसीही धर्म का विस्तार, इनमें ऐतिहासिक सामग्री काफ़ी थी, लेकिन मनुष्य की एकमात्र श्रेष्ठतम सभ्यता के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक आधार नहीं था. सेन्ट थामस ऐक्वीनास ने अरस्तु के विज्ञान को रोमन कैथोलिक धर्मशास्त्र के साथ जोड़ कर इस कमी को पूरा किया. प्राचीन यूनान की बौद्धिकता, रोम साम्राज्य का संगठन, और मसीही धर्म, इन महान आधारों पर निर्मित होने और उनकी उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली युरोपीय सभ्यता मनुष्य की एकमात्र सभ्यता हो गयी, अन्य सभ्यताएँ तो केवल "अर्ध सभ्यताएँ" थीं, अक्षम समूहों का असफल प्रयत्न.

इस संदर्भ में क्या युरोप के सामूहिक अवचेतन की किसी हीन भावना के कारण ही युरोप की मूलतः औपनिवेशिक सभ्यता के विद्वानों का दिमाग बराबर इतिहास दर्शन पर, इतिहास की व्याख्या करने की चेष्टाओं पर केंद्रित रहा है? आधुनिक युरोपीय सभ्यता के मूल उत्स से इन चेष्टाओं का कोई सम्बंध हो, यह ज़रूरी नहीं. बल्कि कोई महत्वपूर्ण सम्बंध शायद नहीं ही है. लेकिन इतिहास की व्याख्याओं में आम तौर पर और जो भी विवाद रहे हों, एक बात पर व्यापक सहमति रही है कि सभ्यता का अर्थ है युरोप और वह हमेशा से विश्व का नेता और गुरु रहा है. (भारत को विश्व गुरु का दर्जा देने दिलाने के इच्छुक लोग ज़रा इस तरह की बातों पर सोचा करें तो अच्छा हो.) इतिहास दर्शन की यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अन्त तक चलती रही, और मार्क्स शायद इसके अंतिम प्रवक्ता थे. एक विश्व व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के विस्तार और समाजवादी क्रांती में यह अन्तर्निहित था कि इस क्रम में युरोपीय सभ्यता अन्य "असभ्य" समाजों में जागरण लाती हुई (पहले पूँजीवादी, फ़िर समाजवादी रूपों में) विश्व सभ्यता बन जायेगी.

बीसवीं सदी की पहली चौथाई में ही यूरोप उत्तरी अमरीका के कुछ संवेदनशील लोगों के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगा. इसकी अभिव्यक्ति अगर एक स्तर पर स्पेंगलर की "डिक्लाईन ओफ दी वेस्ट" में हुई तो दूसरे स्तर पर ही एस. इलियट की "वैस्टलैंड" में. 1939-45 के युद्ध के पहले हिन्दुस्तान, चीन और मेक्सिको की राजनीतिक घटनाओं का, और काफ़ी हद तक तुर्की, मिस्र तथा कुछ दक्षिण अमरीकी देशों में होने वाली हलचलों का भी प्रभाव पड़ा. पुरातत्व, नृतत्व शास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में हुए अध्ययन और खोजकार्य से भी दृष्टिसुधार में सहायता मिली. बहरहाल दूसरे महायुद्ध के तत्काल बाद 1945 और 1950 के बीच के पाँच वर्षों में ऐसा प्रतीत हुआ जैसे युरोप उत्तरी अमरीका में कम से कम, चोटी के विद्वानों में, एक नये बौद्धिक वातावरण का निर्माण हुआ है जिसमें युरोपीय श्रेष्ठता की भावना का पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया गया है. उसमें दार्शिनकों और इतिहासकारों दोनों ने ही प्रमुख योग दिया.

इस नये बौद्धिक वातावरण की एक ख़ास मिसाल (यूँ इसके बहुसंख्यक उदाहरण हैं) अमरीकी दार्शनिक नारथ्राप की "दी मीटिंग आफ़ ईस्ट ऐन्ड वेस्ट" में देखी जा सकती है जिसके पहले अध्याय के प्रारम्भिक वाक्यों में ही 1939-45 के युद्ध के बारे में कहा गया है कि "ठीक ठीक कहें तो यह पहला विश्व युद्ध है." (रेखांकन मूल पुस्तक में) अर्थात 1914-18 का युद्ध विश्व युद्ध नहीं था, केवल युरोपीय देशों का आपस में युद्ध था. यहां यह आपत्ती उठायी जा सकती है कि 1939-45 का युद्ध भी विश्व युद्ध नहीं था, मूलतः 1914-18 के युद्ध का ही भौगोलिक दृष्टि से अधिक विस्तृत रूप था. इस भौगोलिक विस्तार के कारण उसे विश्व युद्ध कहना उचित है या नहीं, इसकी बहस यहाँ अप्रसांगिक होगी. नारथ्राप की बात का असली महत्व इस स्पष्ट स्वीकृति में है कि यूरोप के लोग एक लम्बे अरसे से अपने अनुभवों को, अपनी संस्थाओं और अवधारणाओं को, जो यूरोपीय सभ्यता के बाहर वैध या सार्थक नहीं थीं, बिल्कुल नकली और गलत ढंग से सार्विकता का जामा पहना कर सारी दुनिया पर लागू करते चले आ रहे थे.

लेकिन यह बौद्धिक वातावरण कायम नहीं रहा. इसका मूल कारण यही है कि कुछ ख़ास व्यक्तियों और छोटे छोटे समूहों को छोड़ कर, जिनका अपने समाज पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं है, इस बौद्धिक वातावरण के पीछे मूल भावना भय की थी. दो बड़े युद्धों और उनके बीच होने वाली घटनाओं ने गोरी दुनिया के अंदर यह भय उत्पन्न कर दिया कि उनकी सभ्यता कहीं आत्महत्या की ओर तो नहीं बढ़ रही है. अपने आपसी झगड़ों का निपटारा न कर पाने के कारण यूरोप के देश दो बड़े युद्धों में फँसे, जिनमें यूरोप की अपार क्षति हुई. 1905 में रूस पर जापान की विजय आधुनिक युग में किसी यूरोपीय महाशक्ति पर किसी एशियाई देश की पहली विजय थी, और दोनो युद्धों के बीच जापान स्वयं एक औद्यौगिक और सामरिक महाशक्ति बन गया था. 1947 की क्रांती के बाद, कम से कम पहले दौर में साम्यवादी रूस यूरोपीय सभ्यता से अलग एक नये प्रकार के समाज का निर्माण करता प्रतीत हो रहा था. कई देशों में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष काफ़ी तीव्र हो गया था, और दूसरे महायुद्ध में हालैन्ड, बेलजियम और फ्रांस की पराजय से उनके उपनिवेशों की स्वतंत्रता वैसे ही अनिवार्य प्रतीत होने लगी थी जैसे डेढ़ सौ साल पहले नेपोलियन के हाथों स्पेन की पराजय के बाद स्पेन के अमरीकी उपनिवेशों की स्वतंत्रता अनिवार्य हो गयी थी.

लेकिन 1950 के बाद यह भय दूर हो गया. मार्शल योजना के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के देश शीघ्र ही दोबारा अपने पावों पर खड़े हो गये, बल्कि उनकी समृद्धि उत्तरोतर बढ़ने लगी. रूस अमरीका के शीत युद्ध और उसके फलस्वरूप यूरोप के विभाजन से चाहे जो भी तनाव पैदा हुए, इससे यह भी साबित हो गया कि सोवियत रूस का लक्ष्य यूरोपीय सभ्यता का शक्तिशाली अंग बनना ही था. पराजित जापान में यूरोपीय राजनीतिक संस्थाओं और समाजिक संगठन के प्रतिरोपण में कोई कठिनाई अमरीका को नहीं हुई.

1950 के बाद यह भी स्पष्ट हो गया कि दूसरे महायुद्ध के बाद स्वतंत्र होने वाले देशों से गोरी सभ्यता को कोई खतरा नहीं था. अमरीका में उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वतंत्र होने वाले देशों को संयुक्त राज्य अमरीका ने तत्काल अपने संरक्षण में ले लिया था. मेक्सिको से ले कर चिली तक मध्य और दक्षिणी अमरीका के बीस देशों में से अधिकांश में नये शासक या तो स्पेन पुर्तगाल से आ कर बसे हुए लोग थे या मिश्रित रक्त के लोग. समूचे महाद्वीप के आदिवासियों का राजनीतिक सामाजिक संगठन बिखर गया था. मेक्सिको के जुआरेज़ को छोड़ कर सारे महाद्वीप में एक भी बड़ा आदिवासी नेता सामने नहीं आया. स्वतंत्र राज्यों में भी आदिवासी पहले की तरह शक्ति केन्द्रों से दूर, गरीबी और शोषण के शिकार रहे. मसीही धर्म नये राज्यों के साथ भी जुड़ा रहा. शायद केवल मेक्सिको में ही उसने एक विशिष्ठ रूप ग्रहण किया. लेकिन मेक्सिको में भी राज्यशक्ति अधिकांश गोरे अधगोरे लोगों के हाथ में ही केंद्रित रही. विदेशी सत्ता को समाप्त करने में आदिवासियों ने बहुधा प्रमुख योग दिया, लेकिन देश में शक्ति और सत्ता एक यूरोप अभिमुख अभिजात वर्ग में ही केंद्रित रही.

एशिया और अफ्रीका में जातीय स्थिति ऐसी नहीं थी. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक, चार सौ साल दुनिया में राज करने के बाद गोरी सभ्यता ने सारी दुनिया की स्थिति को चार बुनियादी मामलों में बदल डाला था - जापान के अपवाद को छोड़ कर, तमाम रंगीन चमड़ी वाले लोगों की उत्पादन व्यवस्थाएँ नष्ट हो गयीं थीं. उनकी जगह ऐसी व्यवस्थाओं ने ले ली थी जिनका उद्देश्य यूरोप की ओद्योगिक व्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करना था. दूसरे गोरों की आबादी का अनुपात दुनिया की आबादी के दसवें हिस्से से बढ़ कर तीसरे हिस्से पर पहुँच गया था. (इसपर क़यामत है कि अच्छे भले लोग रंगीन चमड़ी के लोगों में जनसंख्या वृद्धि को विश्व युद्ध के खतरे के बाद दुनिया का सबसे बड़ा खतरा मनाते हैं!) तीसरे, साम्राज्यवाद के ज़रिये गोरी सभ्यता ने अपनी उत्पादन प्रणाली का ऐसा विकास कर लिया कि गोरे मज़दूर की औसत उत्पादकता एशिया अफ्रीका के मज़दूर से बीस गुनी तक अधिक हो गयी. चौथे, उपनिवेशवाद ने अपने अधीन सभी देशों में नौकरशाही, व्यापार और सेना में एक ऐसे छोटे से वर्ग का निर्माण किया जो बोली, रहन सहन, और सतही विचारों में (जीवन के बुनियादी मूल्य नहीं) गोरे लोगों की बन्दर नकल को ही जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानने लगा. यह वर्ग पहले उपनिवेशवाद को कायम रखने का औज़ार था, फ़िर स्वतंत्र देशों में गोरी दुनिया के अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद को क़ायम रखने का औज़ार बन गया.

साम्यवादी चीन ने मूलतः वही मार्ग अपनाया है जो दूसरे महायुद्ध के पहले जापान ने अपनाया था - क्रूर सैनिक राजनीतिक तानाशाही के माध्यम से शक्ति और साधनों का केन्द्रीकरण, और इस केन्द्रित शक्ति के इस्तेमाल सामरिक शक्ति का विकास करके अपने को विश्व के राष्ट्रों के बीच एक महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना. विस्तारवाद का परिचय तो साम्यवादी चीन ने 1950 में तिब्बत पर सैनिक अभियान के द्वारा कब्ज़ा करके ही दे दिया था. भारतीय भूमि पर अधिकार और 1962 में भारत पर आक्रमण उसी नीति की कणियाँ थीं. चीन को इतनी सफलता मिली है कि आम तौर पर उसे अब एक महाशक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. अमरीका द्वारा चीन से सम्बंध सुधारने की कोशिश, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र संघ से ताइवान का निष्कासन इस स्विकृति के औपचारिक परिणाम हैं. अब यह अपेक्षा की जा सकती है कि चीन धीरे धीरे सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होगा.

इस सिलसिले का नतीज़ा बुनियादी तौर पर यह निकला है कि गोरी सभ्यता ही अब भी "असली" सभ्यता है, और सारी दुनिया को उसी के अनुरूप अपना विकास करना है. लेकिन आग्रह बदल गया है. अब यह सभ्यता उन्नीसवीं सदी की, या बीसवीं सदी कके पहले दशकों की "मसीही" सभ्यता नहीं है, वरन् "आधुनिक औद्योगिक" सभ्यता है. लेकिन इससे रंगीन चमड़ी वाले लोगों की दिक्कतें किसी तरह कम नहीं होतीं. अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी गिनती "आधुनिक" विचारकों में होती है, जो यह मानते हैं कि दुनिया के गोरे लोग अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं. कारण बदल गये हैं. गोरे लोग श्रेष्ठ ईसा मसीह की कृपा से नहीं हैं वरन् इस लिए हैं कि अपनी सभ्यता के माध्यम से वे दुनिया के अन्य सभी लोगों से श्रेष्ठ प्राणी के रूप में विकसित हुए हैं - प्राणीशास्त्रीय विकासवाद के अनुसार.

इसके समकक्ष, राजनीति में, अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी भाग में कालाहारी मरुस्थल के चारों ओर, इन श्रेष्ठ गोरों के द्वारा एक नये शक्तिकेंद्र का निर्माण किया जा रहा है. ब्रितानिया, हालैंड और पुर्तगाल से आ कर बसे लोग ज़िम्बाबवे (द. रोडेशिया), दक्षिणी अफ्रीका, नामिबिया (दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका), अंगोला और मोज़ाम्बीक में मिल कर गोरी सभ्यता के एक नये गढ़ का निर्माण कर रहे हैं. यह सभ्यता अपने इस गढ़ में "मसीही" भी है, "औद्योगिक" भी, "गोरी" भी. और यहाँ कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, लोकतंत्र-तानाशाही, लातिन-ऐग्लोसेक्सन, इन सब का कोई महत्व वास्तव में है नहीं, महत्व है सिर्फ यूरोपीय वंशज होने का.

बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो सिद्धांत रूप में अब गोरी दुनिया की श्रेष्ठता का दावा नहीं करते. लेकिन यह सब निहायत भले और सज्जन लोग, यह मान कर चलते हैं कि औद्योगिक विकास ही सभ्यता का आधार है. जाने अनजाने यह भूल कर कि जिसे "आधुनिक" औद्योगिक व्यवस्था कहा जाता है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के माध्यम से ही निर्मित हुई है. यह भले लोग निहायत मासूमियत के साथ दुनिया के तमाम ग़रीब देशों की तरफ़ देख कर सवाल उठाते हैं - इनका औद्योगिक विकास क्यों नहीं हो रहा? अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, राजनीति, सभी दृष्टियों और पहलुओं से इस प्रश्न पर विचार करने के बाद यह सज्जन मूलतः इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि रंगीन चमड़ी वाले लोग अपना आधुनिकीकरण करें, तभी उनमें औद्योगिक विकास हो सकता है. "पाराम्परिक समाजों का आधुनिकीकरण" यह पश्चिमी चिंतन की एक केंद्रीयसमस्या बन गयी है. यह समस्या ही इसी लिए है कि तथाकथित "पाराम्परिक" समाजों की कुछ खासियतें ऐसी हैं, जो उनके आधुनिकीकरन में बाधक हैं. इस चिंतन के नतीजे अलग अलग निकलते हैं. कुछ शुभचिंतक कहते हैं कि जो अपना आधुनिकीकरण नहीं करेंगे, नुकसान उन्हीं का होगा. कुछ को तकलीफ़ होती है कि पश्चिमी सभ्यता सार्विकता के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रही. कुछ की राय में पाराम्परिक समाजों में बस इतना ही परिवर्तन काफ़ी है कि उनमें औद्योगीकरण हो सके. लेकिन औद्योगीकरण की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के लिए, कुछ लोगों की राय में आमूल और व्यापक परिवर्तन आवश्यक है, यानी आधुनिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के बिना औद्योगीकरण भी नहीं हो सकता, गो ये "मूल्य" कौन से हैं इस पर सहमती केवल एक बात को ले कर है - तकनालाजी. यूरोप उत्तरी अमरीका की उत्पादन पद्धति आधुनिकता की बुनियादी शर्त है.

घूम फिर कर हम फिर उसी जगह वापस आ गये हैं. चार सौ साल तक बाक़ी दुनिया को जो अपनी ज़रूरत के मुताबिक गढ़ने की कोशिश, और इसमें बाधक सभी तत्वों कको नष्ट करने के बावज़ूद, बीसवीं सदी में इस दावे को जारी रखना संभव नहीं गया था कि गोरी सभ्यता ही एकमात्र "सभ्यता" है, और यूरोप हमेशा से दुनिया का नेता और गुरु रहा है, अब भी है. लेकिन सिद्धांत रूप में मनुष्य की समानता, और अतीत की अन्य सभ्यताओं की उपलब्धियों की स्वीकृति के बावज़ूद, गोरी सभ्यता अपनी आधुनिक "तकनालाजी" के कारण श्रेष्ठ है, और अगर व्यवहार में दुनिया के लोगों में समानता स्थापित करनी है, तो यह तभी हो सकता है जब सारी दुनिया इस तकनालाजी को अपना ले. अगर रंगीन चमड़ी वाले लोग ऐसा नहीं कर पाते तो ज़ाहिर है कि उनमें, उनके समाजों में, उनकी सभ्यता में कुछ बड़ी कमियाँ हैं. गोरी दुनिया को पहले ख़ुदा ने श्रेष्ठ बनाया, अब तकनालाजी ने श्रेष्ठ बना रखा रखा है.

कुछ थोड़े से गिने चुने लोग पश्चिम में ऐसे भी ज़रूर हैं, जो अगर पूरी तरह अपनी सभ्यता को अस्वीकार नहीं करते (गो पूर्ण अस्वीकृति वाले लोग भी हैं) तो कम से कम उसके वर्तमान रूप की सार्विकता से इन्कार करते हैं. इनमें बहुत तरह के लोग हैं, लेकिन मोटे तौर पर उनमें दो श्रेणियाँ हैं. एक प्रकार के लोग वे हैं जो अनुभव करते हैं कि यूरोप उत्तरी अमरीका के "समृद्ध", "उपभोत्ता" समाज ने न सिर्फ़ आदमी को मशीन का ग़ुलाम बना दिया है, बल्कि उसके मानसिक या आध्यात्मिक जीवन में शून्यता उत्पन्न कर दी है, जिसके फ़लस्वरूप पूरी सभ्यता ही खंडित व्यक्तित्व का शिकार हो गयी है. दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो अनुभव करते हैं कि उनकी पूरी सभ्यता जातीय विषमता और औपनिवेशिक शोषण की नींव पर ही खड़ी है. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो इस बात को भी समझते हैं कि यह दोनो पहलू एक दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. ऐसे लोगों ने स्वभावतः सभ्यता की समस्या को विश्व संदर्भ में देखा है, और कुछ ने इसे "संस्कृति का संकट" कहा है, इस अर्थ में कि मनुष्य की अब तक की कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं रही है कि उसमें मनुष्य का बहुमुखी व्यक्तित्व उसमें पूरी तरह विकसित हो सकता. हर सभ्यता किसी एक दिशा में ही विकसित हुई. फलस्वरूप विश्व का भौगोलिक विभाजन उसका सांस्कृतिक विभाजन भी है.

ऐसी हालत में, किसी ऐसी विश्व सभ्यता का निर्माण क्या संभव है जिसमें दुनिया की अलग अलग संस्कृतियाँ एक दूसरे से सीख कर अपने अभावों की पूर्ती कर सकें? सिद्धांत रूप में अगर इसे मान भी लिया जाये, तो दुनिया की मौजूदा विषमता और भिन्नताओं को देखते हुए, इसे व्यवहार में कैसे लाया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान नहीं है, और बहुत कम लोगों ने उसका जोख़िम उठाया है. उनकी विषेश चर्चा यहाँ अनावश्यक है. एक ऐतिहासिक अनीवार्यता की चर्चा भी इस संद्रभ में की गयी है - हथियारों की विध्वंसक शक्ति इतनी बढ़ गयी है या फ़िर इन हथियारों का इस्तमाल मौजूदा सभ्यता को ही ख़तम कर देगा. शायद एक विकल्प और भी है - एक शक्ति आधारित अंतर्राष्ट्रीय जाति प्रथा. पिछले पच्चीस वर्षों का इतिहास दिखाता है कि इस तरह की जाति प्रथा चलाई जा सकती है और शक्ति सम्बंधों में परिवर्तन के अनुसार उसमें थोड़ा बहुत हेर फ़ेर भी हो सकता है. मिसाल के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गयी है. इसके साथ ही अमरीका की हैसियत कुछ घटी है. साम्यवादी चीन दुनिया के द्विज राष्ट्रों की कोटि में आ गया है. लेकिन क्या किसी ऐसी व्यवस्था को अनिश्चित काल के तक चलाया जा सकता है जिसमें स्वयं को अपने निकट अतीत की तुलना में तो लगभग सभी देशों की स्थिति सुधरेगी, लेकिन विभिन्न देशों के बीच विषमता बढ़ती ही चली जायेगी? मिसाल के लिए निकट भविष्य में ही, जापान और जर्मनी की हैसियत का सवाल इस व्यवस्था के लिए बड़ी झंझट पैदा कर सकता है.

बहरहाल ऐतिहासिक अनिवार्यताओं की बात छोड़ें, हर हालत में किसी विश्व सभ्यता का निर्माण और विकास उस समस्या के हल से जुड़ा हुआ है, जिसे "संस्कृति का संकट" कहा गया है, यानि राष्ट्र के अंदर ही नहीं, राष्ट्रों के बीच भी समता हो. सम्भावतः धर्म इस "संस्कृति के संकट" का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, यद्यपि पश्चिमी विद्वान अक्सर इस पक्ष की उपेक्षा कर जाते हैं. इधर फ्राँसिसी नृतत्वशास्त्री क्लाउड लेवी स्ट्रास के अध्ययनों ने इस संकट के एक नये आयाम को उजागर किया है - जो समाज अभी तक लगभग सभी लोगों द्वारा असभ्य और जँगली समझे जाते रहे हैं (जो निरक्षर हैं, और जिन्हें लेवी स्ट्रास भी "पूर्व कालिक" कहते हैं) उनकी बौद्धिक प्रक्रियाएँ उतनी ही विकसित और पेचीदा हैं जितनी की "सभ्य" कहलाने वाले समूहों की. अर्थात ये "कबाइली" कहलाने वाला जीवन बिताने वाले लोग भी दरअसल उतने ही सभ्य हैं जितने कि प्राचीन सभ्यताओं के वारिस, या कि वर्तमान गोरी सभ्यता के लोग. लेकिन उनका भविष्य क्या है?

15 मई 2010

सखियाँ

पापा के कागज़ों में कुछ तस्वीरें भी थीं, जिसमें भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की यह तस्वीर भी थी. शायद कोई लेख लिखा होगा उसके साथ इसका उपयोग किया होगा, मालूम नहीं किस पत्रिका या अखबार के लिए. इसमें उनके साथ हैं उनकी दो सखियाँ, तेजी बच्चन (प्रसिद्ध कवि हरिवँश राय बच्चन की पत्नी तथा अमिताभ की माता जी) और पुष्पा भारती (धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती की पत्नी). इंदिरा जी के दाहिने ओर शायद उनकी सचिव है, जिनका नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद पुष्पा भगत था?

Indira Gandhi, Teji Bacchan, Pushpa Bharati

12 मई 2010

दिल जलता है की प्रेम कथा

ओम १९४७-४८ में सोशलिस्ट पार्टी में आचार्य नरेंद्र देव, डा लोहिया और जयप्रकाश जी के साथ जुटे. १९५२ से १९५५ तक लखनऊ में सोशलिस्ट सप्ताहिक "संघर्ष" के सम्पादक के रूप में काम किया.

लाहोर में पुराने सोशलिस्ट चौधरी सुलतान अहमदी के यहां ठहरा करते थे, जिनका परिवार सम्पन्न था. उनकी लड़की खालिदा चौधरी थी, उससे ओम की दोस्ती हो गयी. यह दोस्ती काफ़ी गहरी थी. जयप्रकाश और पुरषोत्तम दुग्गल के अनुसार लड़की बड़ी सुन्दर और जहीन थी. उस लड़की ने पार्टी में काम करना शुरु किया और अपने पिता को बताया कि वह शादी करना चाहती है. लेकिन सुलतान चौधरी बहुत नाराज हुए और मुन्शी से कह कर लाहोर से पार्टी के किसी काम के ओम को दिल्ली भेजा. वह लड़की भी कुछ सामान ले कर स्टेशन पहुँची लेकिन सुलतान चौधरी के लोगों ने उसे भारत आने नहीं दिया कि हिन्दु के साथ शादी नहीं हो सकती, लाहोर में दंगा हो जायेगा. तभी हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बटवारा हुआ. उस लड़की बहुत खोज की गयी लेकिन कुछ पता नहीं चला कि क्या हुआ.

कहानी खत्म हुई लेकिन उनका दिल टूट गया. "दिल जलता है तो जलने दो" गाने पर जेल में ओम का नाम उनके मित्रों नें दीपक रखा दिया. बाद में स्वयं उन्होंने इस बात का समर्थन किया था. यह घटना सोशलिस्ट पार्टी के बाड़ा हिन्दू राव में कश्यव भार्गव उर्फ कश्पी ने बतायी थी. उस समय मेरा परिचय केवल नाम से ही था.

उनकी एक कहानी सरिता में छपी थी शाहजहाँ के बेटी जहाँआरा या आलमआरा के प्रेम प्रसंग पर. वह मैंने पार्टी आफ़िस में ही पढ़ी थी, जे स्वामीनाथन से ले कर. यह मार्च १९४८ की बात है. सभी के आग्रह पर उन्होंने "दिल जलता है" गाया था जो मैंने सुना था.

(जब जेल में थे)छोटी सी जेल की कोठरी में जो बाहर से बन्द की जाती थी, दिसम्बर जनवरी में दस बारह लोगों को बन्द किया गया था. वहीं सब लोग बैठ कर सोते थे और दरवाज़े के पास अन्दर ही एक गड्ढ़े को टायलट का इस्तमाल करते थे. वहीं खाना खाते थे, ओढ़ने के लिए कुछ भी नहीं था, ठंड से बचने के लिए, बस एक दूसरे के शरीर की गर्मी महसूस करते थे. पूछताछ के समय कपड़े उतार कर बर्फ़ पर लिटा कर यातना दी जाती थी.

एक घटना और याद आयी. १९४९ की जनवरी की बात थी. मेरे साथ एक लड़की कमला अरोड़ा भी पार्टी आफ़िस में किसान पंचायत के दफ्तर में अंग्रेज़ी टाईपिंग का कार्य करती थी. कश्पी भी साथ था. अरुणा असिफ़ अली का कभी कभी किसी मीटिंग में आना होता था. अक्सर वह स्वामी (जे स्वामीनाथन) को घर पर ही बुलाती थी. एक दिन कुछ काम कराने के लिए स्वामी मुझे भी साथ ले गये. वहाँ बिहार के पुराने सोशलिस्ट रामनन्दन मिश्र, से भेंट हुई. शायद वह उस समय आल इंडिया किसान पंचायत के अध्यक्ष थे. वहीं सोशलिस्ट पार्टी की बात करते करते अरुणा ने दीपक जी की उस समय की बातें बतायीं जब वह अंडरग्राँऊड थे कि कैसे वह उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाते थे और पटवर्धन या लोहिया से सम्पर्क करवाते थे. मेरी उत्सुकता बढ़ी. क्योंकि उन दिनों, जब की बात अरुणा कर रही थीं, उस समय वह मेरे चाचा के यहाँ रह रही थीं. उसी के कारण फ़िर ओम को एयरफ़ोर्स से निकाल दिया गया. अब मेरे वह चाचा जीवित नहीं रहे लेकिन बहुत ही बीमार थे कलकत्ता में.

स्मृति का सब क्रम बिगड़ता जा रहा है, कभी सोचा नहीं था कि पिछले तेईस सालों में तुम्हारे बारे में कभी लिखना पड़ेगा. लेकिन अब सोचती हूँ कि जल्दी ही काम शुरु करना पड़ेगा. किशन जी के साथ कुछ दिन बैठना पड़ेगा. उनका स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं है. आने से पूर्व टेलीफ़ोन पर बातचीत की थी तो काफ़ी परेशान थे वाणी के स्वास्थ्य को ले कर.

१९४९ में जब लोहिया नेपाल आंदोलन के संदर्भ में जेल से छूटे तो औखला में एक पार्टी दी गयी. मैं भी वहाँ थी. और मेरे शाथ एक युगोस्लाव लड़की मलाडा कलाबावा भी थी जो लोहिया के यहां ही रह रही थी, बारहखम्बा में पदमसिंह के यहां. आयु उसकी उस समय २२ या २४ की होगी. लड़की बहुत ही अच्छी थी. लोहिया की दोस्त थी. हम दोनो नहर के किनारे बैठे बात कर रहे थे. वह हिंदी जानती थी.

तभी एक टोकरी में पांच छः आम लिए लोहिया हमारे पास आ कर बैठ गये कि अरे तुम लोग यहां बैठी हो और सब आम खत्म हो गये हैं. इतने स्नेह से वह दे रहे थे. इतने स्नेह से दे रहे थे कि मेरी आँखों में पानी भर आया. तो बोले, पीठ थपथपा कर, जल्दी से खालो. मुझे आम अधिक अच्छा नहीं लगता था फ़िर भी मैंने हाथ में लिया. तभी कश्पी, सूरज और दीपक तीनो आ गये कि यह तो बहुत ज्यादती है कि तुम दोनो सब आम खाओगी और हम देखते रहेंगे. मैंने मलाडा से कहा कि तुम ले लो और बाकी उन्हें दे दो और अपने हाथ वाला आम भी उन्हें दे दिया. मलाडा ने मेरी शिकायत लोहिया से की तो वह बहुत नाराज़ हुए कि मैंने तुम्हें बाँटने को नहीं दिये थे. मैंने माफ़ी माँग ली तो खिलखिला कर हँस पड़े. साथ ही कहा कि बहादुर तो तुम हो लेकिन समझदार नहीं हो.

- कमला की डायरी से, दिल्ली १९९८

03 मई 2010

स्नेहलता और पट्टाभि रेड्डी

पट्टाभि दम्पत्ति से ओम और कमला की जानपहचान हैदराबाद में हुई थी, पट्टाभि तब तेलुगू फ़िल्में बनाते थे. १९७० में जब उनकी पहली कन्नड़ फ़िल्म "संस्कार" निकली तो जातिवाद के विरुद्ध बनी इस फ़िल्म पर बहुत विवाद उठे थे, पहले तो यह फ़िल्म बैन कर दी गयी थी. बाद में इसी फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

पहली तस्वीर में हैं स्नेहलता रेड्डी जिन्होंने "संस्कार" में चंद्रा का भाग निभाया था.

दूसरी तस्वीर में फ़िल्म की शूटिंग के दौरान, टोम कोवन, पट्टाभि रेड्डी और श्रीनिवास राव.

Snehlata Reddy in film Samskara, Kannada 1970

Tom Cowen, Pattabhi Reddy & Srinivas Rao during shooting of Samskara, 1970

25 अप्रैल 2010

मैं कब मरा?

बँगलादेश युद्ध में उन औरतों के बारे में, जिनके गर्भ में बलात्कार के बच्चे पल रहे थे, ओम का एक विचारोतेजक लेख प्रस्तुत है. तब बलात्कार करने वाले पाकिस्तानी सिपाहियों की बात तो की गयी थी, लेकिन ओम प्रश्न उठाते हैं इन औरतों को शिविरों में बन्दी बना कर कैद रखने वाले क्रांतिकारियों तथा समाज की ज़िम्मेदारी का. मेरे विचार में यह लेख ओम ने मार्च 1972 में बँगलादेश यात्रा के बाद लिखा था. इसी यात्रा में खींची उनकी दो तस्वीरें भी लेख के साथ प्रस्तुत है. मैं नहीं जानता कि यह किसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था या नहीं. (सुनील)

मैं कब मरा था? मुश्किल यह है कि मैं सच बोलने की कोशिश करूँगा तो लोग समझेंगे मैं कविता कर रहा हूँ. लेकिन कविता करना, यानि सच को शब्दों में बाँध पाना इतना आसान है क्या. इसलिए मुझे कुछ डर लगता है. डर लगता है जब पढ़ता हूँ कि बँगलादेश के प्रधान मंत्री पत्रकारों के सवालों के जवाब में रविंद्र की कविता उद्धत करने लगते हैं. फ़िर सोचता हूँ कविताएँ प्रधानमंत्री उद्धत नहीं करते, बँगबन्धु करते हैं, "मुजीब भाई". बँगबन्धु प्रधानमंत्री हैं, लेकिन महज प्रधानमंत्री नहीं हैं. कम से कम मैं ऐसा सोचता हूँ, उम्मीद भी करता हूँ.
Jessore, Bangladesh 1972, image by Om Prakash Deepak
ढाका की हमीदा खाँ ने एक विदेशी पत्रकार से कहा था, अब हम प्यार नहीं करेंगे और कविता नहीं लिखेंगे. अब हम युद्ध करना सीखेंगे. प्यार, कविता और युद्ध में सचमुच ऐसा विरोध है क्या?

मुझे डर लगता है क्योंकि मैं सोचता हूँ कोई क्रांति क्या किसी कविता की तरह सच हो सकती है? नहीं, मैं सवाल कुछ गलत ढंग से पूछ रहा हूँ, क्योंकि हर क्रांति आखिर कविता में ही जीवित रहती है. कैसी भी क्रांति हो, और कैसी भी कविता हो. होता यह है कि कविता और क्रांति और कविता, इनके बीच कोई कड़ी टूट जाती है.

और जब ऐसा होता है तो हज़ारों, लाखों आदमी अचानक मर जाते हैं और किसी को पता नहीं चलता. पहले एहसास होता है, कि वे अचानक खो गये हैं. या कि उनका कुछ खो गया है. मैंने इसीलिए पहले पूछा कि मैं कब मरा.

यहाँ इस सवाल का जवाब खोजना गैर-ज़रूरी है, बेमतब भी है. इतना जानता हूँ कि यह सवाल दिमाग में उठते ही मन में एक तस्वीर उभरती है. रावलपिंडी के एक बाज़ार की. कहीं का भी बाज़ार हो सकता था. तारीख थी 3 जून 1947. सुबह थी या शाम, ठीक याद नहीं, शायद शाम. रेडियो पर तीन भाषण हुए थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू, जनाब मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार बलदेव सिंह. शायद अंग्रेज लाट भी. सुनते हुए लगा था कि जिन्ना साहब का अंग्रेजी बोलने का लहजा कुछ अजीब सा था.

वे लोग क्या बोले थे, सच पूछिये तो मुझे कुछ याद नहीं. बाद में पढ़े भी थे. जवाहरलाल जी की एक बात याद पड़ती है कि शायद इसी तरह हिन्दुस्तान जल्दी ही अपनी एकता हासिल कर सके. एक जुमला जिन्ना साहब का भी याद पड़ता है. उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की थी कि उनके जैसे लोगों को सरकार रेडियो का और ज़्यादा इस्तमाल करने का मौका देगी. इतिहास में कैसे कैसे क्रूर मज़ाक भरे पड़े हैं. इतना तो सभी जानते हैं कि हिन्दुस्तान के बँटवारे की माउन्टबैटन योजना क्रांग्रेस, मुस्लिम लीग, और अकाली दल ने मंज़ूर कर ली थी, यही बात उनके नेताओं ने बतायी थी.

लेकिन मैं खो गया हूँ इसका एहसास तो मुझे पहले से होने लगा था. बहरहाल, मैं न कविता लिख रहा हूँ, न आत्मकथा. इसलिए मैं कब मरा, इसमें दिलचस्पी सिर्फ़ मुझे हो सकती है. आप की बात मैं इस वक्त नहीं करूँगा. मैंने बहुत लोगों को मरते देखा है. लेकिन आज मैं किसी को बिला वजह नाराज़ नहीं करना चाहता. वैसे एक बात, काफ़ी बड़ी बात मैं आप को बता दूँ. ज़िन्दा आदमी जब मरता है, यानि डाक्टर उसे मुर्दा घोषित कर देते हैं, तो यकीनन वह हत्या का मामला होता है - चाहे आत्महत्या का या पर हत्या का.

स्वाभाविक मृत्यु जैसी कोई चीज़ होती है क्या आज की दुनिया में? मुमकिन है कुछ किस्मत वालों को नसीब होती हो.

बदकिस्मत सबसे ज़्यादा शायद वे लोग होते हैं जिन्हें इतना भी पता नहीं चलता कि उनसे ज़िन्दगी और मौत के बीच चुनाव करने को कहा जा रहा है. या शायद पता चलता है, लेकिन आदमी ज़िन्दगी के धोखे में मौत को चुन लेता है. अक्सर ऐसा कोई मौका ही नहीं मिलता. दूसरे लोग हमारी तरफ से फ़ैसला कर लेते हैं, और हज़ारों लाखों लोग मर जाते हैं, और किसी को पता ही नहीं चलता.
Jessore Bangladesh, 1972 image by Om Prakash Deepak
एक लड़की है, सुवर्णा. आप उसे नहीं जानते. या मुमकिन है जानते हों. उसने कहा कि यातना का एहसास अगर बना रहता है तो कोई बात नहीं. सीमा दरअस्ल वहाँ लाँघी जाती है, जब कोई अहसास बाकी नहीं रहता. लेकिन यातना सहने की क्षमता क्या असीमित होती है? किसी भी आदमी में क्या असीमित होती है?

एक और लड़की है, उसका नाम मैं भी नहीं जानता. आप जानते हों तो नहीं कह सकता. हर सवाल का वह बस एक ही जवाब देती है - मेरे पति मुझे लेने आयेंगे. उसका भाई पूछता हुआ आया था. सुना तो बिना मिले ही लौट गया.

पहले बच्चे को जन्म देने के पहले किसी युवती के चेहरे पर जो कांति आती है, वह आप ने कभी देखी है? ज़रूर देखी होगी. वैसी कांति लड़कियों के चेहरे पर सिर्फ़ एक बार आती है, सिर्फ़ एक बार. बेटी के चेहरे पर वह कांति देख कर मांओं के मन चिंता भरी ममता से भर उठते हैं. खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, उठना-बैठना. दोनो वक्त टहलना, खड़े खड़े झाड़ू लगाना. न, न, भरी हुई बाल्टी न उठाना. लेकिन हर बाप को वह दिन याद आ जाता है जब उसने पत्नी के चेहरे पर वह कांति देखी थी और अचानक सोचा था - कितनी सुंदर है, पहले तो इसका एहसास ही नहीं हुआ था.

लेकिन लड़की अगर पहले ही मर जाये तो उसके चेहरे पर यह कांति नहीं आती, क्योंकि शरीर के कसाव और चमड़ी की कोमल चिकनाई से इसका कोई सम्बंध नहीं होता. या ज़्यादा से ज़्यादा, बहुत मामूली सा होता है.

इसलिए मुझे डर लग रहा है, कहीं फ़िर तो ऐसा नहीं होने वाला कि हज़ारों लाखों आदमी मर जायेंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा. वह लड़की मरना नहीं चाहती जो इन्तज़ार कर रही है कि उसका पति उसे लेने आयेगा. वे तमाम लड़कियाँ मरना नहीं चाहती जो इसीलिए ज़हर माँगती हैं कि खा लें तो डाक्टर उन्हें मुर्दा घोषित कर दें.

लेकिन वक्त नहीं है. ये लड़कियाँ कुछ वैसी ही हैं जैसी किसी गहरी खाई के ऊपर सपाट चट्टान से महज़ अपनी उँगलियों के सहारे लटकी हों. कब किसकी उँगलियाँ जवाब दे जायें. कब किसका मन हार मान ले. क्रांति का मतलब उनके लिए सबसे पहले सिर्फ एक ही सकता है, कोई रस्सी या सीढ़ी जिसे पकड़ कर ये ऊपर सुरक्षित धरती पर आ जायें. मैं फ़िर शायद ग़लत ढंग से अपनी बात रख रहा हूँ. क्रांति का उनके लिए क्या मतलब है, उससे बहस नहीं. क्रांति को हर हालत में उनके लिए सीढ़ी या रस्सी होना चाहिये.
मुझे डर है ऐसा हो नहीं रहा है. शायद कोई समझ नहीं रहा है क्या हो रहा है. हर आदमी घर जा रहा है. जो अपना घर गाँव छोड़ कर कहीं और जा छिपे थे वे भी अपने घरों को वापिस लौट रहे हैं. सिर्फ़ ये लड़कियाँ हैं, सब मिला कर कई लाख लड़कियाँ हैं जो नहीं जा रही हैं. ये शरणार्थियों में भी शरणार्थी हैं. इनके लिए नये शिविर खोले जा रहे हैं. समूचे बँगलादेश में, हर शहर, हर कस्बे और गाँव से इन्हें इकट्ठा किया जा रहा है.

किसी बहुत पुराने दर्द की तरह, जिसकी आदत ऐसी पड़ जाती है कि अचानक कोई झटका दर्द को उभार न दे तो याद भी नहीं रहता, मैं जानता हूँ कि यह बंदी शिविर तैयार हो जायेंगे, और ये लड़कियाँ उनमें कैद कर दी जायेंगी - उन्हें आप पुनर्वास केन्द्र कहिये या नारी निकेतन या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. तो अचानक हज़ारों लाखों लोग मर जायेंगे और किसी को पता न चलेगा.

क़ैदखाना क्या होता है? वही जहाँ से आप अपनी मियाद से पहले अपनी इच्छा से, जब भी चाहें, निकल नहीं सकते. आपकी दिनचर्या बँधी होती है. और आप व्यक्ति नहीं होते, अपराध होते हैं.

इन लड़कियों का अपराध क्या है जिनकी कोख में बलात्कार के बच्चे पल रहे हैं? जिनका आज कोई घर नहीं रह गया है? इनमें कितनी ऐसी हैं जो क्रांति के लिए लड़ती हुई घायल हुईं हैं? क्या औरत होना अपने आप में एक अपराध है? क्या हिन्दुस्तान में औरत होना, ख़ास तौर पर गरीब और अकेली औरत होना हमेशा एक अपराध बना रहेगा?

मेरे मन के अंदर कहीं घुमड़ता है, रोको, रोको इसे. अगर आप इन लड़कियों को घर नहीं दे सकते तो न सही. और भी तो लोग होंगे जिनको आप घर नहीं दे पायेंगे. लेकिन कैदखाना क्यों? जिन्हें उपचार की ज़रूरत हो उन्हें अस्पताल में दाखिल करिये. जिन्हें ऐसी ज़रूरत नहीं, उन्हें घर दीजिये. घर, यानि काम. अकेले मर्द को किसी शिविर में रखने की ज़रूरत तो नहीं पड़ती. अकेली औरत को शिविर में रखना ज़रूरी क्यों है? अगर आप अभी नहीं है, इन औरतों के लायक़ तो बनिये.

मैंने पिछले दिनों भी एक जगह लिखा था कि क्रांति शायद पार्वती की तरह होती है. लेकिन भिन्न सन्दर्भ में सोचता हूँ कि हर क्रांति किसी हद तक कुंती की तरह नहीं होती. सूर्य का आवाहन करती है, लेकिन सूर्य के प्रकट होने पर उसके तेज को सह नहीं पाती, घबरा जाती है. कुंती ने कर्ण को सिर्फ़ परित्याग किया था. लेकिन क्रांतियाँ अक्सर जान बूझ कर, या अनजाने ही अपनी सन्तान की हत्या कर दिया करती हैं. मनुष्य में पीड़ा सहने की ही क्षमता सीमित नहीं होती, परिवर्तन को सहने की क्षमता भी सीमित होती है, क्योंकि आदमी सच को सिर्फ़ हिस्सों में देख पाता है, सम्पूर्णता में नहीं, कविता में भी नहीं. इसलिए कोई भी क्रांति आखिरी नहीं हो सकती, कोई भी परिवर्तन ऐसा नहीं हो सकता कि उसके आगे परिवर्तन न हो. और इसलिए इतिहास में शायद हमेशा ऐसा होता रहेगा कि ज़िन्दगी की तलाश में अचानक कुछ लोग मर जायेंगे और किसी को पता ही नहीं चलेगा.

लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज़ रोशनी में होती है, उसका भी एक हिस्सा दिखाई देता है, एक नहीं. पाकिस्तानी पलटन की अमानुषिकता प्रमाणित करने के लिए उसकी क्रूरता से घायल हुई या मरी औरतों की मिसालें बहुत दी गयीं. बहुत किस्से छपे, बहुत तस्वीरें छपीं. अक्सर तो ऐसी चीज़ें जो अश्लील थीं या लगभग अश्लील. बलात्कार से ज़्यादा जघन्य कोई अपराध नहीं, मेरी नज़र में हत्या भी नहीं. हत्या पशु भी करते हैं, लेकिन बलात्कार तो पशु भी नहीं करते. पुरुष को यह पशु से भी बदतर राक्षस बनाता है. औरत के लिए यह एक यातना है और भयंकर अपमान. अगर कोई चीज़ बिल्कुल इन्सानियत के ख़िलाफ़ है, इन्सानियत को ख़त्म करने वाली है तो वह बलात्कार है. जो लोग इतने गिर गये हैं कि सामूहिक स्तर पर, एक नीति के रूप में इन्सानियत के ख़िलाफ़ इस अपराध का आस्तेमाल करें, वे इस लायक नहीं कि उन्हें मनुष्य की प्रतिष्ठा दी जाये. वे छमा के पात्र बिल्कुल नहीं, लेकिन दया के पात्र ज़रूर हैं.

इतना कहने से बात पूरी नहीं होती. अभी तक मान लिया जाता रहा है कि बात इतनी ही है. लेकिन यह तो केवल पुरुष का दृष्टिकोण है. अपराध भी, उसकी निन्दा भी. जो औरत पीड़ित और अपमानित होती है, उसकी दृष्टि से भी जब तक न देखें, तब तक पूरी चीज़ नहीं देख पायेंगे - जो हमारे सामने है, रोशनी में है, उसे भी पूरी तरह नहीं देख पायेंगे.

हिन्दुस्तान में हम न जाने कब से अपनी बहादुरी साबित करने के लिए औरतों पर ज़ुल्म करते आये हैं. पिछली चौथाई सदी में भी हमने यही किया है. हिन्दू मुसलमान, बंगाली पंजाबी, द्विज शूद्र, ये सब तो सिर्फ़ बहाने हैं. असलियत है कि सैकड़ों सालों से हिन्दुस्तानी मर्द कभी किसी परदेशी के सामने तो टिक नहीं पाया, औरतों पर बहादुरी आज़माते हुए ख़ुद इन्सान से एक दर्जा नीचे की चीज़ बन गया है. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर शायद कभी औरतों पर संगठित हमला नहीं हुआ जैसा बँगलादेश की औरतों पर पाकिस्तानी पलटन ने किया. क्या उसके साथ ही यह भी सच नहीं कि बँगलादेश की औरतें इतनी बड़ी संख्या में और इस तरह मुक्ति संग्राम में शामिल हुईं, जैसा हिन्दुस्तान में कम से कम पहले कभी नहीं हुआ था. शायद यह उस ख़ास किस्म के छापामार युद्ध में ही संभव था जो बँगलादेश में लड़ा गया. फ़िर भी ऐसा नहीं हुआ, जैसा अब तक होता आया था, कि सब औरतों ने क़िस्मत के आखिरी फैसले की तरह ज़ुल्म को स्वीकार कर लिया हो.

यह भी इतना कठिन नहीं था, जितना अब अपनी मौत को अस्वीकार करना हो सकता है. अब अगर उन्हें सज़ा देंगे तो उनके अपने लोग ही देंगे, वही लोग जो कल तक उनके साथी और रहनुमा थे, और आज क्रांति की सफलता के बाद ताक़त जिनके हाथ में है. मुश्किल इसलिए और बहुत ज़्यादा हो सकती है कि सज़ा देने वाले भी नहीं समझेंगे वे क्या कर रहे हैं. और इसके अलावा और किया भी क्या सकता है कि जिनके परिवार उन्हें "क़ुबूल" करते हैं, वे अपने घरों में चली जायें, यानि "क़ुबूल" करने वाले बाप, भाई, या शौहर के घर में, और जिनका कोई नहीं है, या जिन्हें क़ुबूल करने वाला कोई नहीं है, उन्हें सरकारी शिविरों में रखा जाये और उनकी शादियाँ कर दी जायें. बाप, भाई और शौहर से अलग औरत का अपना घर भी हो सकता है, मर्द के रिश्ते से आज़ाद, औरत की अपनी भी कोई ज़िन्दगी हो सकती है, मुमकिन है यह ख़याल सिर्फ़ इसलिए न आये कि अपने समाज में ऐसी स्थिति की कल्पना करने के हम लोग आदी ही नहीं रहे.



मैं कब मरा? (मैं और मेरा वक्त - लेख संग्रह), ओम प्रकाश दीपक

23 अप्रैल 2010

डा. राम मनोहर लोहिया

2008 में भारतीय पत्रिका "तहलका" में भारतीय नेता तथा भारतीय सोशलिस्ट पार्टी को बनाने वाले डा. राम मनोहर लोहिया पर एक लेख छपा था जिसमें डा. लोहिया की तस्वीर की जगह पर गलती से श्री ओम प्रकाश दीपक की तस्वीर छपी थी. इसका कारण शायद यह भी हो कि आज डा. लोहिया की तस्वीरें खोजना आसान नहीं. इसीलिए इन तस्वीरों को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. अगर कोई इन तस्वीरों को बड़े आकार में पाना चाहता है तो मुझसे ईमेल द्वारा सम्पर्क करिये.

यह पहली दो तस्वीरें हमारे घर में लगी थीं, शायद इन्हें 1967 में डा. लोहिया की मृत्यु पर बनवाया गया था.

Dr Ram Manoher Lohia

Dr Ram Manoher Lohia

अगली तस्वीर 1949 की है, जब मेरी माँ श्रीमति कमला दिवान जिनका तब विवाह नहीं हुआ था, दिल्ली में बाड़ा हिन्दूराव में सोशलिस्ट पार्टी के कार्यालय में काम करती थीं. यह एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा है, जिसकी हालत अच्छी नहीं. लेकिन फ़िर भी डा. लोहिया पहचाने जाते हैं. उनकी सामने नीचे बैठी कमला दिवान हैं. डा. लोहिया के करीब खड़ी महिला शायद सुश्री रमा मित्र हैं, पर यह मैं पक्का नहीं कह सकता.

Dr Lohia, Rama Mitra, Kamala Deewan 1949

अगली तस्वीर 1977 की है जब सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका "जन" को दोबारा शुरु करने का प्रयास किया था, उसके लिए एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था, यह गोष्ठी के बारे में छपवाये गये निमंत्रण का मुख्यपृष्ठ है.

Dr Lohia, Om Prapash Deepak 1947

अंतिम तस्वीर शायद 1946 या 1947 की है जिसमें मैं बीच में बैठे डा. लोहिया के अतिरिक्त, उनके दाहिने बाजू में बैठे अपने पिता श्री ओम प्रकाश दीपक को पहचान सकता हूँ.

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20 अप्रैल 2010

पीड़ा

13 नवंबर 1997, इमोला, इटली

कल 14 नवंबर को अमेरिका जाना है. नादिया को देख कर बहुत संतोष हुआ. बड़ी प्यारी बच्ची है. पिछले जन्म का ही कोई सम्बंध लगता है. दिन भर घर और बाहर के काम में लगी रहती है. आराम उसे मिलता नहीं. उसके स्वास्थ्य की चिंता रहती है.

इधर बहुत पढ़ा है, यह अच्छा भी रहा है. लगातार तीन मास तक दिल्ली में भागने के अलावा कुछ काम नहीं किया. सगे रिश्तों में भी दरारें पड़ी हैं, सो दिमाग पर बोझ और तनाव अधिक रहा. आरम्भ में तो मानसिक पीड़ा से मन बहुत छटपटाया. यहाँ भी कभी उस ओर ध्यान जाये तो कंपकंपा जाती हूँ, छटपटाहट सी बनी रहती है, ऐसा क्यों होता है मेरे साथ?

इतनी असहनीय पीड़ा तो तब भी नहीं हुई थी जब एकाएक अकेला रहना पड़ा था. पर स्वार्थों से जुड़े सम्बंधों की शिकायत किससे करूँ. पैसा ज़रूरी तो है, परन्तु इतना नहीं कि रिश्ते ही न रहें. खैर अभी तो शान्तनु और केतन के साथ समय कट जायेगा. उसके बाद जा कर सम्भालना होगा सब. अभी तो पूरा बोझ विनी पर डाल दिया है, जैसे तैसे सम्भालेगी.

इस बार कुछ अच्छा पढ़ा. उससे जीवन को और जीवन के सौंदर्य को देखने की नयी स्फूर्ती मिली. अध्ययन से ही उल्लास और प्रकाश आत्मा को मिलता है. इधर कई बार तुम्हें सपने में देखा, कारण शायद मेरी मानसिक दुर्बलता रही हो. इधर कभी कभी मानसिक संतुलन नहीं रख पाती. विदेश में रहने की घुटन एक पीड़ा है जिसे आत्मा महसूस तो करती है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती.

अब समय ऐसा आया है कि किसी से शिकवा शिकायत का समय नहीं रहा, स्वयं ही उसका सुख दुख सहन करने की आदत डालनी होगी. हमारी जड़े पराई हैं, इस वातावरण की धरती में प्रयत्न करने पर भी जड़े नहीं लग सकतीं, केवल अस्तित्व ही शेष है.
क्षण के बाद क्षण, सैकेंड, मिनट, घंटे. सूर्योदय और सूर्यास्त. अँधेरे पर उजाला. सरपट जाते कैलेंडर के पन्ने और अंत में कैलेंडर का एक सचित्र टुकड़ा. बीते वर्ष की परछाई मात्र.

ज़िन्दगी क्या है? क्यों हम सदैव रात दिन उलझनों, परेशानियों और भाग दौड़ में लगे रहते हैं. चैन से दो समय भोजन भी नहीं हो पाता और परिणाम शून्य. क्षणों में ही उसका अस्तित्व मिट जाता है, जैसे बरसाती कीड़े. सदैव वही चक्कर और कष्ट, मृत्यु से दुःख होता है और वह दिन सभी के लिए आता ही है, अतः सभी को मोह त्याग कर जाना ही पड़ेगा. परन्तु वह दिन उस समय ही आ पहुंचे तो? आत्मा चीत्कार उठती है और हृदय द्रवित हो उठता है. हज़ारों आशाँए साथ लिए मनुष्य चल पड़ता है, अदृश्य शक्ति की लीला ही से मनुष्य अपना कर्तव्य करता है और प्रकृति अपना. परन्तु इस तरह की कई चाहे हैं कि जो निश्चित स्थान पर छू दें तो लौट कर स्वयं अपने ही मन को काटती चलती हैं. अपनी मिट्टी का मोह भी कितना बड़ा होता है. पिछले कई वर्षों से मेरे मन को सालता रहा है. कभी कभी वैसी अनुभूति अनभोगी सी लगती है. कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जो निश्चित समय के पहले ही मन पर गहरा साया किये धीरे धीरे आस पास ही बने रहते हैं. उनकी वेदना की आशंका बार बार घेरती है कि वास्तविक क्षणों से गज़रने का एहसास अर्थात कुछ पीड़ाएँ इतनी परिचित देखी जानी पहचानी और आत्मीय सी लगती हैं कि हम उन्हें झेलने के लिए भूले से बैठे होते हैं. लेकिन जिस समय अचानक वह आ कर खड़ी हो जाती है लगता है कि उसकी अवहेलना करके अच्छा नहीं किया. पहले से ही उसकी तैयारी रहती तो शायद दुख की मात्रा कम महसूस होती.

कितनी अज़ीब बात है कि जिन स्मृतियों को हम सुरक्षित सहेज कर रखते हैं वह सचमुच याद करने से नहीं लौटतीं, और लौटती भी हैं तो इतनी अस्पृष्ट और धुँधली हो कर, अपरिचित और परायी सी लगती हैं. मन उन्हें उस तरह स्वीकार नहीं करता. जैसे चुल्लु में सहेजा हुआ जल कितना भी सहेजो, उँगलियों के पोरों से निकल जाता है, एक क्षण के लिए ठहरता नहीं, केवल इसके कि हथेली गीली हो जाती है और केवल उसका अहसास रह जाता है.

कभी कभी लगता है कि कुछ भी करती रहूँ या सपने देखती रहूँ, इस तरह कभी नहीं हुआ कि एक क्षण के लिए तुम्हारा ध्यान हटा हो. कभी कभी तो उलझन में पड़ कर अपने स्वभाव पर झल्लाहट होने लगती है, लगता ही नहीं कि इतना समय बीत गया और मैं बूढ़ी हो गयी हूँ.

आदमी कैसे कैसे सपने पालता है और यह सपने उसे कहाँ से कहाँ ले जाते हैं? किसी न किसी पीड़ा या दर्द की तह तक ही तो. तुम्हारी आँखों की गहराईयों वाला रूप बार बार झलकने लगता है और एक अनजाने से अनुभव की पीड़ा मेरे स्नायुओं में सिहर सिहर उठती है.

कभी कभी मैं स्वयं को कहीं बहुत नीचे रिक्त पाती हूँ, बंजर और बियाबान. वास्तविकता लगता है कि केवल एक भुलावा है, चीज़ का आवरण मात्र. परन्तु हर वास्तविकता अपने में तथ्यपूर्ण होती है, और कभी न कभी उन तथ्यों का सामना करना ही पड़ता है. समय तो निरन्तर एक सा ही रहता है. हम लोग ही उसे चलते हुए अनुभव करते हैं और उसे ठहरा हुआ महसूस करते हैं. इसका ज्ञान नहीं है कि किस प्रसंग में, समय किसमें क्या अनूभूति भर देता है.

कभी कभी बुरी घड़ी कई तरह से भयावय बन कर आती है और देर तक ठहरने लगती है, लेकिन बुरी से बुरी परिस्थिति भी स्थाई तो नहीं ही होती. इसलिए सोचती हूँ कि अपने दिल दिमाग से सारे बोझ उतार कर या छोड़ कर, जो भी ज़िन्दगी में होने वाला है उसे महज दर्शक बन कर देखना चाहिये. तभी जीवन जिया जा सकता है. पुरुष सदैव अपना दोष और कमज़ोरी औरत पर डाल कर उसे इसी तरह दंडित करता रहा है और उसे अपराधी ठहराता है. अपने को हमेशा निर्दोष और पाक साफ़ बन संतुष्ट होता रहा है और अपने छल कपट की कैफियत का अधिकार भी अपने पास ही रखे रखता है. उसको अपने किये कर्म और अपने तरह तरह के चेहरे नहीं दिखाई देते.

प्रायः पुरुष लोग इतिहास कि जिस धारा में जीते आये हैं, उसकी परम्परा से कैसे अलग हो सकते हैं? दरअसल इस दुनिया में मोटी खाल का होना हर स्त्री के लिए अति आवश्यक है. कुंठित व्यक्तित्व उसे पीड़ा के सिवाय क्या दे सकता है? कभी कभी तो उसकी इसी निरीहता पर दया भी आती है कि किस तरह वह स्वयं ही अपने बिछाये कर्म जाल में फँसता चला जाता है.

(कमला की डायरी से)

01 अप्रैल 2010

स्वार्थों में जीवन

पिछले दो माह से मन बहुत ही अस्थिर है. कुछ विषेश कारण तो नहीं है, शायद समझने में कुछ कमी है.

लगता है सम्बंध स्वार्थों से जुड़ गये हैं. इसलिऐ इनकी गहनता और पवित्रता नहीं रही. सम्बंध केवल सुविधा और स्वार्थ से बनते बिगड़ते हैं इसलिऐ जीवन अशांत रहता है. यशलिप्सा और शक्ती के कारण ही जीवन अन्तः स्पर्श से शून्य लगता है. स्वार्थ हमारी विकृति है, विश्वास नहीं. मैंने आज तक विश्वास और आस्था से ही जीवन जिया है, फ़ल जैसा भी रहा हो. हार कर मनुष्य हिंसक और पशु हो जाता है, ऐसा इधर मुझे लगने लगा है.

सारा अपमान, आघात जो भी मिला उसके कारण बौराई सी रही, मरने की कामना करके भी जीती रही मैं. कितने वर्ष दौड़ती रही मैं. आज जीवन के अंतिम पड़ाव में भी लगता है अभी न जाने कब तक इन स्वार्थों में ही जीवन कटेगा. लगता है लड़ने की शक्ति क्षीण हो रही है. देखो अंतिम पड़ाव कैसा रहता है.

तुम्हारे लेखन सामग्री को छपवाने की अभी कुछ व्यवस्था नहीं हो पायी, प्रयत्न तो चलता रहेगा.

१ अक्टूबर १९९७, दिल्ली, कमला की डायरी