01 अप्रैल 2010

स्वार्थों में जीवन

पिछले दो माह से मन बहुत ही अस्थिर है. कुछ विषेश कारण तो नहीं है, शायद समझने में कुछ कमी है.

लगता है सम्बंध स्वार्थों से जुड़ गये हैं. इसलिऐ इनकी गहनता और पवित्रता नहीं रही. सम्बंध केवल सुविधा और स्वार्थ से बनते बिगड़ते हैं इसलिऐ जीवन अशांत रहता है. यशलिप्सा और शक्ती के कारण ही जीवन अन्तः स्पर्श से शून्य लगता है. स्वार्थ हमारी विकृति है, विश्वास नहीं. मैंने आज तक विश्वास और आस्था से ही जीवन जिया है, फ़ल जैसा भी रहा हो. हार कर मनुष्य हिंसक और पशु हो जाता है, ऐसा इधर मुझे लगने लगा है.

सारा अपमान, आघात जो भी मिला उसके कारण बौराई सी रही, मरने की कामना करके भी जीती रही मैं. कितने वर्ष दौड़ती रही मैं. आज जीवन के अंतिम पड़ाव में भी लगता है अभी न जाने कब तक इन स्वार्थों में ही जीवन कटेगा. लगता है लड़ने की शक्ति क्षीण हो रही है. देखो अंतिम पड़ाव कैसा रहता है.

तुम्हारे लेखन सामग्री को छपवाने की अभी कुछ व्यवस्था नहीं हो पायी, प्रयत्न तो चलता रहेगा.

१ अक्टूबर १९९७, दिल्ली, कमला की डायरी

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