हैदराबाद, 3 फरवरी 1957
कई सालों के बाद फ़िर जर्नल लिखना शुरु कर रहा हूँ. इस बीच में कितना कुछ हो चुका है. पार्टी टूटी, नयी पार्टी बनी. "संघर्ष" तो मैंने शायद पिछली डायरी लिखने के समय ही छोड़ दिया था, लखनऊ भी छूटा. इलाहाबाद जाते ही मकान भी बिक गया, फ़िर गोपा मर गई. दस महीने लीडर प्रेस में प्रूफ़ पढ़ने के बाद उसे भी छोड़ा, छः महीने "आदमी" निकालने की चेष्टा करता रहा, फ़िर जुलाई छप्पन से यहाँ हैदराबाद में हूँ. पिछली बातों पर नज़र क्या डालूँ, नये साल से ही शुरु करना अच्छा होगा. मन में तो न जाने क्या क्या है. सब लिख भी नहीं सकूँगा.
सम्मेलन में जाने से पहले नव हिन्द वालों के लिए एक किताब लिखी, और मिले कुल डेढ़ सौ रुपये जबकि रायल्टी का हिसाब होता तो छः सौ बनते. कुछ अनुमान इसी से लग जाता है कि यह दुनिया क्या है, किस वातावरण में हूँ. मेरे जैसों की जगह कहाँ है, कुछ यही समझ में नहीं आता. यहाँ भी काम नहीं चलता. सब मिला कर पिछले सात महीनों में सात सौ रुपये पार्टी के और पांच सौ रुपये ऊपर से, कुल बारह सौ रुपये मिले हैं जिसमें से आठ सौ रुपये तो कमला को भेजे, 400 खुद खर्च किये और दो सौ का कर्ज़ है. मतलब हुआ कि दो सौ रुपये से कम में काम नहीं चल सकता. लेकिन दो सौ रुपये आयें कहाँ से? दफ्तर से सौ मिलते हैं, विपिन के आने पर बात करूँगा, तब शायद डेढ़ सौ कर दें. लेकिन 50 रुपये महीने की तो फ़िर भी कमी रहेगी ही. मार्च तक तो छोड़ कर जाना भी मुमकिन नहीं. समस्या यह है कि मार्च तक भी काम कैसे चलेगा. और छोड़ कर जाऊँगा भी कहाँ? सोच रहा हूँ कि कुछ विदेशी पत्रिकाओं के लिए कुछ लिखा करूँ. लेकिन एक तो कोई सिलसिला नहीं. दूसरे, अगर कोई छापे भी तो सम्पर्क बनाते कुछ समय लगेगा. ख़ैर कोशिश तो करूँगा ही, देखो क्या होता है.
इस बार इलाहाबाद की यात्रा सुखद से अधिक दुखद रही. जो हाल है घर का, उसने मन पर विचित्र सा बोझ छोड़ दिया है. माता जी अब थक गयीं हैं, उन्हें अब आराम की ज़रूरत है. लेकिन अगर वे काम छोड़ दें, तो वह आमदनी भी बन्द हो जाये. कमला सुबह छः बजे से ले कर रात तक जुटी रहती है, फ़िर भी उसे न मानसिक शान्ती है, न शारीरिक सुख सुविधा. गुड्डा बेचारा अलग परेशान रहता है. मुनियाँ से उसे कोई ईर्ष्या नहीं होती, लेकिन वह प्यार का, ध्यान का भूखा रहता है. दूसरी ओर माता जी और कमला के भावनात्माक तनाव के बीच, उसकी दुर्दशा हो जाती है. हिन्दुस्तान के ज़्यादातर घरों की हालत कहीं बुरी है, इससे कैसे संतोष मिले. उन्हें तो चेतना नहीं है. शारीरिक दुख वे उठाते हैं, लेकिन मन में उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. अपने साथ तो शरीर का दुख गौण और मन का दुख प्रधान है. भौतिक जीवन में भी सफ़ाई से रहना हमने सीखा है, इस कारण और भी कष्ट होते हैं. सफ़ाई से रहने के लिए पैसा चाहिये.
उस दिन गुड्डे को मैंने पीटा, वह मुझे बहुत दिन तक नहीं भूलेगा. गलती हमारी थी, उसे ले कर जाना ही नहीं चाहिये था. उसके वे शब्द, "मारो नहीं" न जाने कब तक मेरे कानों में गूँजते रहेंगे. कैसी क्रूरता है जीवन में. कैसी विडम्बना है. उसे बुखार में छोड़ कर आया था. न जाने कैसा है अब. कमला ने अभी तक पत्र नहीं भेजा.
(ओम प्रकाश दीपक की डायरी से)
ise jari rakhiye ...dayree ke panee her manahsthiti ke gawah hote hain
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