13 जून 2010

रामकृष्ण अवस्थी और कश्यप भार्गव

 (कमला दीपक की डायरी से)

कुछ घँटों के बाद तुम्हें गये तेईस वर्ष पूरे हो जायेंगे. अब तो ऐसा लगता है कि मैं सुनहरी धूप में झरने के नीचे मुँह खोले लेटी थी और जीवन का अमृत स्वयं ही मेरे मुँह में गिर रहा था कि सहसा वह झरना सूख गया और मेरा मुँह खुला ही रह गया. क्या मनुष्य को गहरा उतरने के लिए मौत की घाटियों में झाँक लेना ज़रूरी है या उसकी एक असीम मानसिक कल्पना भी जीवन को उसकी सारी पीड़ाओं के होते हुए भी कितनी बहुमूल्य और सुन्दर बना सकती है. इसका अन्दाज़ केवल उन्हें है जो मृत्यु और उसकी वेदना को छू कर जीवित होते हैं, नहीं तो बहुथा लोग तो मात्र जीते ही हैं.

लखनऊ के हज़रतगंज के काफी हाउस की याद आ रही है, जब हमारे साथ रामकृष्ण अवस्थी थे, पता नहीं अब वह है या नहीं. मैंने बोला, "शादी क्यों नहीं लेते?" वह बोला, "सुनो ग्रीन (वह मुझे ग्रीन नाम से ही सम्बोधित करता था) मैंने जितनी भी शादी शुदा औरतें देखी हैं, वह दिमागी रूप से बीमार हैं. वैसे देखने में उन्हें कोई बीमारी नहीं है लेकिन मानसिक रूप में अधिकाँश एलर्जिक हैं, कोई इतर की और मिट्टी के तेल की, ठँड और गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती, सब परहेज़ी खाना खाती हैं, अक्सर दवाओं से पेट भरती हैं. ये सभी अपने पतियों से बेहद प्यार करती हैं और पति भी दिलोजान से उन पर मरते हैं, उनके ऐशोआराम व अन्य सुविधाओं की पूर्ती, यानि नौकर, रुपया सभी तरह से. कारण यह है कि इन औरतों ने दिमागी तौर पर पति को कबूल नहीं किया पर बेवफ़ा भी नहीं निकलीं. अपनी वफ़ा और पति को पसंद न कर सकने का बदला अपनी बीमारी और पति सेवा से ले रहीं हैं."

मैंने कहा कि तुम बकते हो, तो उसका उत्तर था कि मैं किसी ऐसी औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो मुझसे ज़िन्दगी भर अपनी वफ़ाओं का बदला ले. मैंने कहा, तुम्हें तो औरतें देवता मान कर पूजने को तैयार हैं. उसका उत्तर था केवल शादी से पहले, बाद में वह मुझे सिंहासन से उतार कर खुद उस पर बैठ कर चाहेगी कि मैं उनके आगे फ़ूल चढ़ाऊँ और यह सब मैं नहीं कर सकता. मैंने कहा, यह तुम्हारा अहं बोल रहा है.

उसका उत्तर, दुनिया में औरतों ने मर्दों के लिए कुर्बानी दी है और मैं इस तरह की कुर्बानी नहीं चाहता, केवल अपनी कर्बानी से डरता हूँ. मैंने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन इस उम्र में लड़कियाँ तुम पर जान देती हैं, कुछ वर्षों के बाद यह सब नहीं होगा, तब उस दशा में देहात की कोई सीधी सादी लड़की तुम्हारे जैसे घँमंडी से बाँध दी जायेगी, समझदार लड़की तो शादी करने से रही तुमसे.

बाद में सुना कि वह फ़िरोज़ गाँधी के साथ नेश्नल हैराल्ड में काम करता था. शादी भी घर वालों द्वारा हुई थी, एक या दो बच्चे भी थे. किसी ने बताया था कि उसका बेटा दिल्ली में नेश्नल हेरल्ड में काम करता है, लेकिन सम्पर्क नहीं कर पायी और अन्य उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज अपने "ग्रीन" नाम के साथ अवस्थी की याद आ गयी. नहीं होगा, होता तो पत्र भेजता तुम्हारे लिए, तुम्हारे विषय में पूछता या कहता देखो, दीपक ने कुर्बानी दी न तुम्हारे लिए.

ज़िन्दगी में यह कठोरता भी है कि जो पल गुज़र जाता है, वह फ़िर कभी आता नहीं लौट कर, केवल यादें ही शेष रह जाती हैं. शायर सलाम मछली शहरी का एक शेर याद आ गया - "ऐ निगराने चमन ज़ारे अवध, लखनऊ याद तो आता होगा".

और फ़िर इलाहाबाद में डा. सुनीती, कमला नेहरु अस्पताल में जो घर के पास ही था. पिंकी वहीं हुई थी. माता जी बहुत प्रसन्न थीं. तुम तो हैदराबाद में थे. सुनीति और सुमति अब न जाने कहाँ हैं?

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है. कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र. हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं. एक बार जानकीदेवी से निकल रही थी तो सविता मिली थी. तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही उसी तिथि और उसी समय में ही कश्यप भी नहीं रहा था. वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा. क्या कहती उससे. अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने. कई बार मन में आया कि उसके स्कूल बाल भारती में जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की.

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता. ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था. फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी. मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने. जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है.

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरज और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा. और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया. सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ.

कब सहला कर हाल पूछूँ, कब टटोलूँ क्या खो गया?
रात का अंधकार भी, बस झकझोरता रह गया.
फ़िर कभी फ़िर कभी कहते कहते, भूतकाल हो गया.

दिल्ली 24 मार्च 1998, कमला की डायरी से

27 मई 2010

आधुनिक इतिहास और पाराम्परिक समूहों का भविष्य (1)

"मैं और मेरा वक्त" आलेख संग्रह के लिए लिखा गया ओम  प्रकाश दीपक का यह विश्व की संस्कृति और सभ्यताओं के बीच होड़ तथा प्रभुत्व की आकाक्षाओं के विकास से उन्नीस सौ सत्तर के दशक तक के इतिहास का विषलेषण करते, आलेख का पहला हिस्सा प्रस्तुत है, जिसमें वह पश्चिमी सभ्यता द्वारा, पहले मसीही धर्म के नाम पर और फ़िर तकनीकी प्रगति के नाम पर हुए शोषण की बात करते हैं. यह आलेख शायद 1972-73 के आसपास लिखा गया था, (हस्तलिपि पर कोई तारीख नहीं है).

बहुत सी बातों में आलेख के लिखे जाने से आज तक आये विश्व परिवर्तन की बात सोच कर मुझे इसकी बातें अब भी सार्थक लगती हैं, लेकिन लिखते लिखते मन में प्रश्न भी उठे. जैसे कि तकनीकी को सभ्यता मानना, क्या विज्ञान को सभ्यता मानना नहीं है? पर क्या विज्ञान केवल औज़ार नहीं है, जिसे विभिन्न देशों के लोग अलग अलग तरीकों से इस्तमाल नहीं कर सकते? वैसे ही, जब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की बात होती है, तो मानवाधिकार या फ़िर समाज में नारी का स्थान और स्वतंत्रता, जैसी बातों को कहाँ रखा जाये? मैंने यह आलेख पहले नहीं पढ़ा था, इसलिए यह सोच कर थोड़ा दुख हुआ कि इन बातों पर उनसे बहस नहीं कर पाऊँगा.

***

बीसवीं सदी के आरम्भ तक पश्चिम के, यानि गोरी दुनिया के विद्वान युरोप की वर्तमान औपनिवेशिक सभ्यता के बाहर की सभी पुरानी सभ्यताओं का अध्ययन करते नृतत्व शास्त्रीय संग्रहालयों की तरह करते थे, ये जानने की कोशिश में कि यूरोप की गोरी, ईसाई, और औद्योगिक सभ्यता में मनुष्य की चरम, श्रेष्ठतम उपलब्धियों के पहले मनुष्य लड़खड़ाते कदमों से सभ्यता की किन छोटी चोटी सीढ़ियों पर चढ़ा था. यूरोप की नयी सभ्यता के बाहर के समाजों का अध्ययन, मनुष्य के इतिहास से भिन्न "प्राकृतिक इतिहास" विषय के अन्तर्गत किया जाता था. उसमें धर्म का भी शायद कुछ हाथ था, क्योंकि मसीही विश्वास के अनुसार जिन लोगों की पापमुक्ति के लिए ईश्वर ने न कोई मसीहा या पैगम्बर भेजा था, न कोई "किताब" दी थी, वे निश्चय ही यूरोपीय ईसाईसियों से भिन्न कोटी के जीव थे. इसी के अनुसार उन्नीसवीं सदी तक युरोप के "उदार" कहलाने वाले विद्वान भी दुनिया के रंगीन चमड़ी वाले तमाम लोगों को तीन मुख्य हिस्सों में बाँटते थेः "आदिम" समाजों के लोग, जो "सभ्यता" से सर्वथा अपरिचित थे, और बौद्धिक दृष्टि से भी अविकसित थे. मिस्र और पश्चिमी एशिया तथा मध्य और दक्षिणी अमेरिका की पुरानी अनगढ़ सभ्यताएँ, जो बहुत पहले नष्ट हो चुकीं, और इन इलाकों के लोग इन्सान कहलाने के लायक हैं तो धर्म के प्रभाव के कारण - उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में इस्लाम, और अमरीका में मसीही धर्म. तीसरे, चीन और हिन्दुस्तान जैसे देशों के "अर्ध सभ्य" लोग.

यूरोपीय देशों के औपनिवेशिक विस्तार के साथ ही इन गैर यूरोपीय क्षेत्रों को ले कर झगड़े भी शुरु हो गये थे, और अक्सर ऐतिहासिक अध्ययन इन झगड़ों को ले कर ही केंन्द्रित रहते थे - स्पेनियों द्वारा रक्त मिश्रिण, या अंग्रेज़ों-फ्राँसीसियों द्वारा सामूहिक हत्या, अमरीकी आदिवासी समाजों को खत़म करने का कौन सा तरीका ज़्यादा बुरा था? एशिया, अफ्रीका और अमरीका में विभिन्न यूरोपीय देशों के आचरण का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प ही नहीं शिक्षाप्रद भी हो सकता है, लेकिन यहाँ मैं ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ कि बाकी दुनिया के बारे में यूरोपीय देशों के बीच चाहे जो भी मतभेद रहे हों, एक बात पर सभी सहमत थे कि अगर कुछ गलतियाँ हुई भी थीं, तो ऐतिहासिक दृष्टि से उनका कोई विषेश महत्व नहीं था. औपनिवेशिक साम्राज्यों और विभिन्न क्षेत्रों में बसने या काम करने वाले गोरे व्यवसायियों और पादरियों के माध्यम से मसीही सभ्यता के कल्याणकारी प्रभाव के ज़रिये ही दुनिया के असभ्य और अर्ध सभ्य लोग अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता की हद तक सभ्य बन सकते थे. स्वभावतः, उसका तो कोई सवाल नहीं उठता था कि वे कभी सभ्य गोरी जातियों के समकक्ष भी आ सकते थे.

जिसे यूरोप का "नवजागरण" काल कहा जाता है (वास्तव में उसे केवल "जागरण" काल कहना चाहिए) उसके प्रारम्भ होने तक, यानि तैहरवीं चौदहवीं सदी तक, यूरोप के लोगों का सम्पर्क अधिकांश अरब लोगों के साथ ही था, जो उस काल में (11वीं से 18वीं सदी तक) ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों में युरोप के गुरु बन सकते थे. प्राचीन यूनान, खास तौर पर अरस्तु के दर्शन और विज्ञान से युरोपवासियों का वास्तविक परिचय भी स्पेन विजय करने वाले मुसलमान अरबों के माध्यम से हुआ था. उस समय युरोप को, जिसमें नयी स्फूर्ति और शक्ती का संचार हो रहा था, एक चीज़ की कमी बहुत अखर रही थी - इतिहास की. रोम का साम्राज्य, मसीही धर्म का विस्तार, इनमें ऐतिहासिक सामग्री काफ़ी थी, लेकिन मनुष्य की एकमात्र श्रेष्ठतम सभ्यता के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक आधार नहीं था. सेन्ट थामस ऐक्वीनास ने अरस्तु के विज्ञान को रोमन कैथोलिक धर्मशास्त्र के साथ जोड़ कर इस कमी को पूरा किया. प्राचीन यूनान की बौद्धिकता, रोम साम्राज्य का संगठन, और मसीही धर्म, इन महान आधारों पर निर्मित होने और उनकी उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली युरोपीय सभ्यता मनुष्य की एकमात्र सभ्यता हो गयी, अन्य सभ्यताएँ तो केवल "अर्ध सभ्यताएँ" थीं, अक्षम समूहों का असफल प्रयत्न.

इस संदर्भ में क्या युरोप के सामूहिक अवचेतन की किसी हीन भावना के कारण ही युरोप की मूलतः औपनिवेशिक सभ्यता के विद्वानों का दिमाग बराबर इतिहास दर्शन पर, इतिहास की व्याख्या करने की चेष्टाओं पर केंद्रित रहा है? आधुनिक युरोपीय सभ्यता के मूल उत्स से इन चेष्टाओं का कोई सम्बंध हो, यह ज़रूरी नहीं. बल्कि कोई महत्वपूर्ण सम्बंध शायद नहीं ही है. लेकिन इतिहास की व्याख्याओं में आम तौर पर और जो भी विवाद रहे हों, एक बात पर व्यापक सहमति रही है कि सभ्यता का अर्थ है युरोप और वह हमेशा से विश्व का नेता और गुरु रहा है. (भारत को विश्व गुरु का दर्जा देने दिलाने के इच्छुक लोग ज़रा इस तरह की बातों पर सोचा करें तो अच्छा हो.) इतिहास दर्शन की यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अन्त तक चलती रही, और मार्क्स शायद इसके अंतिम प्रवक्ता थे. एक विश्व व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के विस्तार और समाजवादी क्रांती में यह अन्तर्निहित था कि इस क्रम में युरोपीय सभ्यता अन्य "असभ्य" समाजों में जागरण लाती हुई (पहले पूँजीवादी, फ़िर समाजवादी रूपों में) विश्व सभ्यता बन जायेगी.

बीसवीं सदी की पहली चौथाई में ही यूरोप उत्तरी अमरीका के कुछ संवेदनशील लोगों के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगा. इसकी अभिव्यक्ति अगर एक स्तर पर स्पेंगलर की "डिक्लाईन ओफ दी वेस्ट" में हुई तो दूसरे स्तर पर ही एस. इलियट की "वैस्टलैंड" में. 1939-45 के युद्ध के पहले हिन्दुस्तान, चीन और मेक्सिको की राजनीतिक घटनाओं का, और काफ़ी हद तक तुर्की, मिस्र तथा कुछ दक्षिण अमरीकी देशों में होने वाली हलचलों का भी प्रभाव पड़ा. पुरातत्व, नृतत्व शास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में हुए अध्ययन और खोजकार्य से भी दृष्टिसुधार में सहायता मिली. बहरहाल दूसरे महायुद्ध के तत्काल बाद 1945 और 1950 के बीच के पाँच वर्षों में ऐसा प्रतीत हुआ जैसे युरोप उत्तरी अमरीका में कम से कम, चोटी के विद्वानों में, एक नये बौद्धिक वातावरण का निर्माण हुआ है जिसमें युरोपीय श्रेष्ठता की भावना का पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया गया है. उसमें दार्शिनकों और इतिहासकारों दोनों ने ही प्रमुख योग दिया.

इस नये बौद्धिक वातावरण की एक ख़ास मिसाल (यूँ इसके बहुसंख्यक उदाहरण हैं) अमरीकी दार्शनिक नारथ्राप की "दी मीटिंग आफ़ ईस्ट ऐन्ड वेस्ट" में देखी जा सकती है जिसके पहले अध्याय के प्रारम्भिक वाक्यों में ही 1939-45 के युद्ध के बारे में कहा गया है कि "ठीक ठीक कहें तो यह पहला विश्व युद्ध है." (रेखांकन मूल पुस्तक में) अर्थात 1914-18 का युद्ध विश्व युद्ध नहीं था, केवल युरोपीय देशों का आपस में युद्ध था. यहां यह आपत्ती उठायी जा सकती है कि 1939-45 का युद्ध भी विश्व युद्ध नहीं था, मूलतः 1914-18 के युद्ध का ही भौगोलिक दृष्टि से अधिक विस्तृत रूप था. इस भौगोलिक विस्तार के कारण उसे विश्व युद्ध कहना उचित है या नहीं, इसकी बहस यहाँ अप्रसांगिक होगी. नारथ्राप की बात का असली महत्व इस स्पष्ट स्वीकृति में है कि यूरोप के लोग एक लम्बे अरसे से अपने अनुभवों को, अपनी संस्थाओं और अवधारणाओं को, जो यूरोपीय सभ्यता के बाहर वैध या सार्थक नहीं थीं, बिल्कुल नकली और गलत ढंग से सार्विकता का जामा पहना कर सारी दुनिया पर लागू करते चले आ रहे थे.

लेकिन यह बौद्धिक वातावरण कायम नहीं रहा. इसका मूल कारण यही है कि कुछ ख़ास व्यक्तियों और छोटे छोटे समूहों को छोड़ कर, जिनका अपने समाज पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं है, इस बौद्धिक वातावरण के पीछे मूल भावना भय की थी. दो बड़े युद्धों और उनके बीच होने वाली घटनाओं ने गोरी दुनिया के अंदर यह भय उत्पन्न कर दिया कि उनकी सभ्यता कहीं आत्महत्या की ओर तो नहीं बढ़ रही है. अपने आपसी झगड़ों का निपटारा न कर पाने के कारण यूरोप के देश दो बड़े युद्धों में फँसे, जिनमें यूरोप की अपार क्षति हुई. 1905 में रूस पर जापान की विजय आधुनिक युग में किसी यूरोपीय महाशक्ति पर किसी एशियाई देश की पहली विजय थी, और दोनो युद्धों के बीच जापान स्वयं एक औद्यौगिक और सामरिक महाशक्ति बन गया था. 1947 की क्रांती के बाद, कम से कम पहले दौर में साम्यवादी रूस यूरोपीय सभ्यता से अलग एक नये प्रकार के समाज का निर्माण करता प्रतीत हो रहा था. कई देशों में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष काफ़ी तीव्र हो गया था, और दूसरे महायुद्ध में हालैन्ड, बेलजियम और फ्रांस की पराजय से उनके उपनिवेशों की स्वतंत्रता वैसे ही अनिवार्य प्रतीत होने लगी थी जैसे डेढ़ सौ साल पहले नेपोलियन के हाथों स्पेन की पराजय के बाद स्पेन के अमरीकी उपनिवेशों की स्वतंत्रता अनिवार्य हो गयी थी.

लेकिन 1950 के बाद यह भय दूर हो गया. मार्शल योजना के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के देश शीघ्र ही दोबारा अपने पावों पर खड़े हो गये, बल्कि उनकी समृद्धि उत्तरोतर बढ़ने लगी. रूस अमरीका के शीत युद्ध और उसके फलस्वरूप यूरोप के विभाजन से चाहे जो भी तनाव पैदा हुए, इससे यह भी साबित हो गया कि सोवियत रूस का लक्ष्य यूरोपीय सभ्यता का शक्तिशाली अंग बनना ही था. पराजित जापान में यूरोपीय राजनीतिक संस्थाओं और समाजिक संगठन के प्रतिरोपण में कोई कठिनाई अमरीका को नहीं हुई.

1950 के बाद यह भी स्पष्ट हो गया कि दूसरे महायुद्ध के बाद स्वतंत्र होने वाले देशों से गोरी सभ्यता को कोई खतरा नहीं था. अमरीका में उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वतंत्र होने वाले देशों को संयुक्त राज्य अमरीका ने तत्काल अपने संरक्षण में ले लिया था. मेक्सिको से ले कर चिली तक मध्य और दक्षिणी अमरीका के बीस देशों में से अधिकांश में नये शासक या तो स्पेन पुर्तगाल से आ कर बसे हुए लोग थे या मिश्रित रक्त के लोग. समूचे महाद्वीप के आदिवासियों का राजनीतिक सामाजिक संगठन बिखर गया था. मेक्सिको के जुआरेज़ को छोड़ कर सारे महाद्वीप में एक भी बड़ा आदिवासी नेता सामने नहीं आया. स्वतंत्र राज्यों में भी आदिवासी पहले की तरह शक्ति केन्द्रों से दूर, गरीबी और शोषण के शिकार रहे. मसीही धर्म नये राज्यों के साथ भी जुड़ा रहा. शायद केवल मेक्सिको में ही उसने एक विशिष्ठ रूप ग्रहण किया. लेकिन मेक्सिको में भी राज्यशक्ति अधिकांश गोरे अधगोरे लोगों के हाथ में ही केंद्रित रही. विदेशी सत्ता को समाप्त करने में आदिवासियों ने बहुधा प्रमुख योग दिया, लेकिन देश में शक्ति और सत्ता एक यूरोप अभिमुख अभिजात वर्ग में ही केंद्रित रही.

एशिया और अफ्रीका में जातीय स्थिति ऐसी नहीं थी. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक, चार सौ साल दुनिया में राज करने के बाद गोरी सभ्यता ने सारी दुनिया की स्थिति को चार बुनियादी मामलों में बदल डाला था - जापान के अपवाद को छोड़ कर, तमाम रंगीन चमड़ी वाले लोगों की उत्पादन व्यवस्थाएँ नष्ट हो गयीं थीं. उनकी जगह ऐसी व्यवस्थाओं ने ले ली थी जिनका उद्देश्य यूरोप की ओद्योगिक व्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करना था. दूसरे गोरों की आबादी का अनुपात दुनिया की आबादी के दसवें हिस्से से बढ़ कर तीसरे हिस्से पर पहुँच गया था. (इसपर क़यामत है कि अच्छे भले लोग रंगीन चमड़ी के लोगों में जनसंख्या वृद्धि को विश्व युद्ध के खतरे के बाद दुनिया का सबसे बड़ा खतरा मनाते हैं!) तीसरे, साम्राज्यवाद के ज़रिये गोरी सभ्यता ने अपनी उत्पादन प्रणाली का ऐसा विकास कर लिया कि गोरे मज़दूर की औसत उत्पादकता एशिया अफ्रीका के मज़दूर से बीस गुनी तक अधिक हो गयी. चौथे, उपनिवेशवाद ने अपने अधीन सभी देशों में नौकरशाही, व्यापार और सेना में एक ऐसे छोटे से वर्ग का निर्माण किया जो बोली, रहन सहन, और सतही विचारों में (जीवन के बुनियादी मूल्य नहीं) गोरे लोगों की बन्दर नकल को ही जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानने लगा. यह वर्ग पहले उपनिवेशवाद को कायम रखने का औज़ार था, फ़िर स्वतंत्र देशों में गोरी दुनिया के अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद को क़ायम रखने का औज़ार बन गया.

साम्यवादी चीन ने मूलतः वही मार्ग अपनाया है जो दूसरे महायुद्ध के पहले जापान ने अपनाया था - क्रूर सैनिक राजनीतिक तानाशाही के माध्यम से शक्ति और साधनों का केन्द्रीकरण, और इस केन्द्रित शक्ति के इस्तेमाल सामरिक शक्ति का विकास करके अपने को विश्व के राष्ट्रों के बीच एक महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना. विस्तारवाद का परिचय तो साम्यवादी चीन ने 1950 में तिब्बत पर सैनिक अभियान के द्वारा कब्ज़ा करके ही दे दिया था. भारतीय भूमि पर अधिकार और 1962 में भारत पर आक्रमण उसी नीति की कणियाँ थीं. चीन को इतनी सफलता मिली है कि आम तौर पर उसे अब एक महाशक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. अमरीका द्वारा चीन से सम्बंध सुधारने की कोशिश, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र संघ से ताइवान का निष्कासन इस स्विकृति के औपचारिक परिणाम हैं. अब यह अपेक्षा की जा सकती है कि चीन धीरे धीरे सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होगा.

इस सिलसिले का नतीज़ा बुनियादी तौर पर यह निकला है कि गोरी सभ्यता ही अब भी "असली" सभ्यता है, और सारी दुनिया को उसी के अनुरूप अपना विकास करना है. लेकिन आग्रह बदल गया है. अब यह सभ्यता उन्नीसवीं सदी की, या बीसवीं सदी कके पहले दशकों की "मसीही" सभ्यता नहीं है, वरन् "आधुनिक औद्योगिक" सभ्यता है. लेकिन इससे रंगीन चमड़ी वाले लोगों की दिक्कतें किसी तरह कम नहीं होतीं. अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी गिनती "आधुनिक" विचारकों में होती है, जो यह मानते हैं कि दुनिया के गोरे लोग अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं. कारण बदल गये हैं. गोरे लोग श्रेष्ठ ईसा मसीह की कृपा से नहीं हैं वरन् इस लिए हैं कि अपनी सभ्यता के माध्यम से वे दुनिया के अन्य सभी लोगों से श्रेष्ठ प्राणी के रूप में विकसित हुए हैं - प्राणीशास्त्रीय विकासवाद के अनुसार.

इसके समकक्ष, राजनीति में, अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी भाग में कालाहारी मरुस्थल के चारों ओर, इन श्रेष्ठ गोरों के द्वारा एक नये शक्तिकेंद्र का निर्माण किया जा रहा है. ब्रितानिया, हालैंड और पुर्तगाल से आ कर बसे लोग ज़िम्बाबवे (द. रोडेशिया), दक्षिणी अफ्रीका, नामिबिया (दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका), अंगोला और मोज़ाम्बीक में मिल कर गोरी सभ्यता के एक नये गढ़ का निर्माण कर रहे हैं. यह सभ्यता अपने इस गढ़ में "मसीही" भी है, "औद्योगिक" भी, "गोरी" भी. और यहाँ कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, लोकतंत्र-तानाशाही, लातिन-ऐग्लोसेक्सन, इन सब का कोई महत्व वास्तव में है नहीं, महत्व है सिर्फ यूरोपीय वंशज होने का.

बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो सिद्धांत रूप में अब गोरी दुनिया की श्रेष्ठता का दावा नहीं करते. लेकिन यह सब निहायत भले और सज्जन लोग, यह मान कर चलते हैं कि औद्योगिक विकास ही सभ्यता का आधार है. जाने अनजाने यह भूल कर कि जिसे "आधुनिक" औद्योगिक व्यवस्था कहा जाता है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के माध्यम से ही निर्मित हुई है. यह भले लोग निहायत मासूमियत के साथ दुनिया के तमाम ग़रीब देशों की तरफ़ देख कर सवाल उठाते हैं - इनका औद्योगिक विकास क्यों नहीं हो रहा? अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, राजनीति, सभी दृष्टियों और पहलुओं से इस प्रश्न पर विचार करने के बाद यह सज्जन मूलतः इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि रंगीन चमड़ी वाले लोग अपना आधुनिकीकरण करें, तभी उनमें औद्योगिक विकास हो सकता है. "पाराम्परिक समाजों का आधुनिकीकरण" यह पश्चिमी चिंतन की एक केंद्रीयसमस्या बन गयी है. यह समस्या ही इसी लिए है कि तथाकथित "पाराम्परिक" समाजों की कुछ खासियतें ऐसी हैं, जो उनके आधुनिकीकरन में बाधक हैं. इस चिंतन के नतीजे अलग अलग निकलते हैं. कुछ शुभचिंतक कहते हैं कि जो अपना आधुनिकीकरण नहीं करेंगे, नुकसान उन्हीं का होगा. कुछ को तकलीफ़ होती है कि पश्चिमी सभ्यता सार्विकता के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रही. कुछ की राय में पाराम्परिक समाजों में बस इतना ही परिवर्तन काफ़ी है कि उनमें औद्योगीकरण हो सके. लेकिन औद्योगीकरण की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के लिए, कुछ लोगों की राय में आमूल और व्यापक परिवर्तन आवश्यक है, यानी आधुनिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के बिना औद्योगीकरण भी नहीं हो सकता, गो ये "मूल्य" कौन से हैं इस पर सहमती केवल एक बात को ले कर है - तकनालाजी. यूरोप उत्तरी अमरीका की उत्पादन पद्धति आधुनिकता की बुनियादी शर्त है.

घूम फिर कर हम फिर उसी जगह वापस आ गये हैं. चार सौ साल तक बाक़ी दुनिया को जो अपनी ज़रूरत के मुताबिक गढ़ने की कोशिश, और इसमें बाधक सभी तत्वों कको नष्ट करने के बावज़ूद, बीसवीं सदी में इस दावे को जारी रखना संभव नहीं गया था कि गोरी सभ्यता ही एकमात्र "सभ्यता" है, और यूरोप हमेशा से दुनिया का नेता और गुरु रहा है, अब भी है. लेकिन सिद्धांत रूप में मनुष्य की समानता, और अतीत की अन्य सभ्यताओं की उपलब्धियों की स्वीकृति के बावज़ूद, गोरी सभ्यता अपनी आधुनिक "तकनालाजी" के कारण श्रेष्ठ है, और अगर व्यवहार में दुनिया के लोगों में समानता स्थापित करनी है, तो यह तभी हो सकता है जब सारी दुनिया इस तकनालाजी को अपना ले. अगर रंगीन चमड़ी वाले लोग ऐसा नहीं कर पाते तो ज़ाहिर है कि उनमें, उनके समाजों में, उनकी सभ्यता में कुछ बड़ी कमियाँ हैं. गोरी दुनिया को पहले ख़ुदा ने श्रेष्ठ बनाया, अब तकनालाजी ने श्रेष्ठ बना रखा रखा है.

कुछ थोड़े से गिने चुने लोग पश्चिम में ऐसे भी ज़रूर हैं, जो अगर पूरी तरह अपनी सभ्यता को अस्वीकार नहीं करते (गो पूर्ण अस्वीकृति वाले लोग भी हैं) तो कम से कम उसके वर्तमान रूप की सार्विकता से इन्कार करते हैं. इनमें बहुत तरह के लोग हैं, लेकिन मोटे तौर पर उनमें दो श्रेणियाँ हैं. एक प्रकार के लोग वे हैं जो अनुभव करते हैं कि यूरोप उत्तरी अमरीका के "समृद्ध", "उपभोत्ता" समाज ने न सिर्फ़ आदमी को मशीन का ग़ुलाम बना दिया है, बल्कि उसके मानसिक या आध्यात्मिक जीवन में शून्यता उत्पन्न कर दी है, जिसके फ़लस्वरूप पूरी सभ्यता ही खंडित व्यक्तित्व का शिकार हो गयी है. दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो अनुभव करते हैं कि उनकी पूरी सभ्यता जातीय विषमता और औपनिवेशिक शोषण की नींव पर ही खड़ी है. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो इस बात को भी समझते हैं कि यह दोनो पहलू एक दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. ऐसे लोगों ने स्वभावतः सभ्यता की समस्या को विश्व संदर्भ में देखा है, और कुछ ने इसे "संस्कृति का संकट" कहा है, इस अर्थ में कि मनुष्य की अब तक की कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं रही है कि उसमें मनुष्य का बहुमुखी व्यक्तित्व उसमें पूरी तरह विकसित हो सकता. हर सभ्यता किसी एक दिशा में ही विकसित हुई. फलस्वरूप विश्व का भौगोलिक विभाजन उसका सांस्कृतिक विभाजन भी है.

ऐसी हालत में, किसी ऐसी विश्व सभ्यता का निर्माण क्या संभव है जिसमें दुनिया की अलग अलग संस्कृतियाँ एक दूसरे से सीख कर अपने अभावों की पूर्ती कर सकें? सिद्धांत रूप में अगर इसे मान भी लिया जाये, तो दुनिया की मौजूदा विषमता और भिन्नताओं को देखते हुए, इसे व्यवहार में कैसे लाया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान नहीं है, और बहुत कम लोगों ने उसका जोख़िम उठाया है. उनकी विषेश चर्चा यहाँ अनावश्यक है. एक ऐतिहासिक अनीवार्यता की चर्चा भी इस संद्रभ में की गयी है - हथियारों की विध्वंसक शक्ति इतनी बढ़ गयी है या फ़िर इन हथियारों का इस्तमाल मौजूदा सभ्यता को ही ख़तम कर देगा. शायद एक विकल्प और भी है - एक शक्ति आधारित अंतर्राष्ट्रीय जाति प्रथा. पिछले पच्चीस वर्षों का इतिहास दिखाता है कि इस तरह की जाति प्रथा चलाई जा सकती है और शक्ति सम्बंधों में परिवर्तन के अनुसार उसमें थोड़ा बहुत हेर फ़ेर भी हो सकता है. मिसाल के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गयी है. इसके साथ ही अमरीका की हैसियत कुछ घटी है. साम्यवादी चीन दुनिया के द्विज राष्ट्रों की कोटि में आ गया है. लेकिन क्या किसी ऐसी व्यवस्था को अनिश्चित काल के तक चलाया जा सकता है जिसमें स्वयं को अपने निकट अतीत की तुलना में तो लगभग सभी देशों की स्थिति सुधरेगी, लेकिन विभिन्न देशों के बीच विषमता बढ़ती ही चली जायेगी? मिसाल के लिए निकट भविष्य में ही, जापान और जर्मनी की हैसियत का सवाल इस व्यवस्था के लिए बड़ी झंझट पैदा कर सकता है.

बहरहाल ऐतिहासिक अनिवार्यताओं की बात छोड़ें, हर हालत में किसी विश्व सभ्यता का निर्माण और विकास उस समस्या के हल से जुड़ा हुआ है, जिसे "संस्कृति का संकट" कहा गया है, यानि राष्ट्र के अंदर ही नहीं, राष्ट्रों के बीच भी समता हो. सम्भावतः धर्म इस "संस्कृति के संकट" का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, यद्यपि पश्चिमी विद्वान अक्सर इस पक्ष की उपेक्षा कर जाते हैं. इधर फ्राँसिसी नृतत्वशास्त्री क्लाउड लेवी स्ट्रास के अध्ययनों ने इस संकट के एक नये आयाम को उजागर किया है - जो समाज अभी तक लगभग सभी लोगों द्वारा असभ्य और जँगली समझे जाते रहे हैं (जो निरक्षर हैं, और जिन्हें लेवी स्ट्रास भी "पूर्व कालिक" कहते हैं) उनकी बौद्धिक प्रक्रियाएँ उतनी ही विकसित और पेचीदा हैं जितनी की "सभ्य" कहलाने वाले समूहों की. अर्थात ये "कबाइली" कहलाने वाला जीवन बिताने वाले लोग भी दरअसल उतने ही सभ्य हैं जितने कि प्राचीन सभ्यताओं के वारिस, या कि वर्तमान गोरी सभ्यता के लोग. लेकिन उनका भविष्य क्या है?

15 मई 2010

सखियाँ

पापा के कागज़ों में कुछ तस्वीरें भी थीं, जिसमें भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की यह तस्वीर भी थी. शायद कोई लेख लिखा होगा उसके साथ इसका उपयोग किया होगा, मालूम नहीं किस पत्रिका या अखबार के लिए. इसमें उनके साथ हैं उनकी दो सखियाँ, तेजी बच्चन (प्रसिद्ध कवि हरिवँश राय बच्चन की पत्नी तथा अमिताभ की माता जी) और पुष्पा भारती (धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती की पत्नी). इंदिरा जी के दाहिने ओर शायद उनकी सचिव है, जिनका नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद पुष्पा भगत था?

Indira Gandhi, Teji Bacchan, Pushpa Bharati

12 मई 2010

दिल जलता है की प्रेम कथा

ओम १९४७-४८ में सोशलिस्ट पार्टी में आचार्य नरेंद्र देव, डा लोहिया और जयप्रकाश जी के साथ जुटे. १९५२ से १९५५ तक लखनऊ में सोशलिस्ट सप्ताहिक "संघर्ष" के सम्पादक के रूप में काम किया.

लाहोर में पुराने सोशलिस्ट चौधरी सुलतान अहमदी के यहां ठहरा करते थे, जिनका परिवार सम्पन्न था. उनकी लड़की खालिदा चौधरी थी, उससे ओम की दोस्ती हो गयी. यह दोस्ती काफ़ी गहरी थी. जयप्रकाश और पुरषोत्तम दुग्गल के अनुसार लड़की बड़ी सुन्दर और जहीन थी. उस लड़की ने पार्टी में काम करना शुरु किया और अपने पिता को बताया कि वह शादी करना चाहती है. लेकिन सुलतान चौधरी बहुत नाराज हुए और मुन्शी से कह कर लाहोर से पार्टी के किसी काम के ओम को दिल्ली भेजा. वह लड़की भी कुछ सामान ले कर स्टेशन पहुँची लेकिन सुलतान चौधरी के लोगों ने उसे भारत आने नहीं दिया कि हिन्दु के साथ शादी नहीं हो सकती, लाहोर में दंगा हो जायेगा. तभी हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बटवारा हुआ. उस लड़की बहुत खोज की गयी लेकिन कुछ पता नहीं चला कि क्या हुआ.

कहानी खत्म हुई लेकिन उनका दिल टूट गया. "दिल जलता है तो जलने दो" गाने पर जेल में ओम का नाम उनके मित्रों नें दीपक रखा दिया. बाद में स्वयं उन्होंने इस बात का समर्थन किया था. यह घटना सोशलिस्ट पार्टी के बाड़ा हिन्दू राव में कश्यव भार्गव उर्फ कश्पी ने बतायी थी. उस समय मेरा परिचय केवल नाम से ही था.

उनकी एक कहानी सरिता में छपी थी शाहजहाँ के बेटी जहाँआरा या आलमआरा के प्रेम प्रसंग पर. वह मैंने पार्टी आफ़िस में ही पढ़ी थी, जे स्वामीनाथन से ले कर. यह मार्च १९४८ की बात है. सभी के आग्रह पर उन्होंने "दिल जलता है" गाया था जो मैंने सुना था.

(जब जेल में थे)छोटी सी जेल की कोठरी में जो बाहर से बन्द की जाती थी, दिसम्बर जनवरी में दस बारह लोगों को बन्द किया गया था. वहीं सब लोग बैठ कर सोते थे और दरवाज़े के पास अन्दर ही एक गड्ढ़े को टायलट का इस्तमाल करते थे. वहीं खाना खाते थे, ओढ़ने के लिए कुछ भी नहीं था, ठंड से बचने के लिए, बस एक दूसरे के शरीर की गर्मी महसूस करते थे. पूछताछ के समय कपड़े उतार कर बर्फ़ पर लिटा कर यातना दी जाती थी.

एक घटना और याद आयी. १९४९ की जनवरी की बात थी. मेरे साथ एक लड़की कमला अरोड़ा भी पार्टी आफ़िस में किसान पंचायत के दफ्तर में अंग्रेज़ी टाईपिंग का कार्य करती थी. कश्पी भी साथ था. अरुणा असिफ़ अली का कभी कभी किसी मीटिंग में आना होता था. अक्सर वह स्वामी (जे स्वामीनाथन) को घर पर ही बुलाती थी. एक दिन कुछ काम कराने के लिए स्वामी मुझे भी साथ ले गये. वहाँ बिहार के पुराने सोशलिस्ट रामनन्दन मिश्र, से भेंट हुई. शायद वह उस समय आल इंडिया किसान पंचायत के अध्यक्ष थे. वहीं सोशलिस्ट पार्टी की बात करते करते अरुणा ने दीपक जी की उस समय की बातें बतायीं जब वह अंडरग्राँऊड थे कि कैसे वह उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाते थे और पटवर्धन या लोहिया से सम्पर्क करवाते थे. मेरी उत्सुकता बढ़ी. क्योंकि उन दिनों, जब की बात अरुणा कर रही थीं, उस समय वह मेरे चाचा के यहाँ रह रही थीं. उसी के कारण फ़िर ओम को एयरफ़ोर्स से निकाल दिया गया. अब मेरे वह चाचा जीवित नहीं रहे लेकिन बहुत ही बीमार थे कलकत्ता में.

स्मृति का सब क्रम बिगड़ता जा रहा है, कभी सोचा नहीं था कि पिछले तेईस सालों में तुम्हारे बारे में कभी लिखना पड़ेगा. लेकिन अब सोचती हूँ कि जल्दी ही काम शुरु करना पड़ेगा. किशन जी के साथ कुछ दिन बैठना पड़ेगा. उनका स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं है. आने से पूर्व टेलीफ़ोन पर बातचीत की थी तो काफ़ी परेशान थे वाणी के स्वास्थ्य को ले कर.

१९४९ में जब लोहिया नेपाल आंदोलन के संदर्भ में जेल से छूटे तो औखला में एक पार्टी दी गयी. मैं भी वहाँ थी. और मेरे शाथ एक युगोस्लाव लड़की मलाडा कलाबावा भी थी जो लोहिया के यहां ही रह रही थी, बारहखम्बा में पदमसिंह के यहां. आयु उसकी उस समय २२ या २४ की होगी. लड़की बहुत ही अच्छी थी. लोहिया की दोस्त थी. हम दोनो नहर के किनारे बैठे बात कर रहे थे. वह हिंदी जानती थी.

तभी एक टोकरी में पांच छः आम लिए लोहिया हमारे पास आ कर बैठ गये कि अरे तुम लोग यहां बैठी हो और सब आम खत्म हो गये हैं. इतने स्नेह से वह दे रहे थे. इतने स्नेह से दे रहे थे कि मेरी आँखों में पानी भर आया. तो बोले, पीठ थपथपा कर, जल्दी से खालो. मुझे आम अधिक अच्छा नहीं लगता था फ़िर भी मैंने हाथ में लिया. तभी कश्पी, सूरज और दीपक तीनो आ गये कि यह तो बहुत ज्यादती है कि तुम दोनो सब आम खाओगी और हम देखते रहेंगे. मैंने मलाडा से कहा कि तुम ले लो और बाकी उन्हें दे दो और अपने हाथ वाला आम भी उन्हें दे दिया. मलाडा ने मेरी शिकायत लोहिया से की तो वह बहुत नाराज़ हुए कि मैंने तुम्हें बाँटने को नहीं दिये थे. मैंने माफ़ी माँग ली तो खिलखिला कर हँस पड़े. साथ ही कहा कि बहादुर तो तुम हो लेकिन समझदार नहीं हो.

- कमला की डायरी से, दिल्ली १९९८

03 मई 2010

स्नेहलता और पट्टाभि रेड्डी

पट्टाभि दम्पत्ति से ओम और कमला की जानपहचान हैदराबाद में हुई थी, पट्टाभि तब तेलुगू फ़िल्में बनाते थे. १९७० में जब उनकी पहली कन्नड़ फ़िल्म "संस्कार" निकली तो जातिवाद के विरुद्ध बनी इस फ़िल्म पर बहुत विवाद उठे थे, पहले तो यह फ़िल्म बैन कर दी गयी थी. बाद में इसी फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

पहली तस्वीर में हैं स्नेहलता रेड्डी जिन्होंने "संस्कार" में चंद्रा का भाग निभाया था.

दूसरी तस्वीर में फ़िल्म की शूटिंग के दौरान, टोम कोवन, पट्टाभि रेड्डी और श्रीनिवास राव.

Snehlata Reddy in film Samskara, Kannada 1970

Tom Cowen, Pattabhi Reddy & Srinivas Rao during shooting of Samskara, 1970

25 अप्रैल 2010

मैं कब मरा?

बँगलादेश युद्ध में उन औरतों के बारे में, जिनके गर्भ में बलात्कार के बच्चे पल रहे थे, ओम का एक विचारोतेजक लेख प्रस्तुत है. तब बलात्कार करने वाले पाकिस्तानी सिपाहियों की बात तो की गयी थी, लेकिन ओम प्रश्न उठाते हैं इन औरतों को शिविरों में बन्दी बना कर कैद रखने वाले क्रांतिकारियों तथा समाज की ज़िम्मेदारी का. मेरे विचार में यह लेख ओम ने मार्च 1972 में बँगलादेश यात्रा के बाद लिखा था. इसी यात्रा में खींची उनकी दो तस्वीरें भी लेख के साथ प्रस्तुत है. मैं नहीं जानता कि यह किसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था या नहीं. (सुनील)

मैं कब मरा था? मुश्किल यह है कि मैं सच बोलने की कोशिश करूँगा तो लोग समझेंगे मैं कविता कर रहा हूँ. लेकिन कविता करना, यानि सच को शब्दों में बाँध पाना इतना आसान है क्या. इसलिए मुझे कुछ डर लगता है. डर लगता है जब पढ़ता हूँ कि बँगलादेश के प्रधान मंत्री पत्रकारों के सवालों के जवाब में रविंद्र की कविता उद्धत करने लगते हैं. फ़िर सोचता हूँ कविताएँ प्रधानमंत्री उद्धत नहीं करते, बँगबन्धु करते हैं, "मुजीब भाई". बँगबन्धु प्रधानमंत्री हैं, लेकिन महज प्रधानमंत्री नहीं हैं. कम से कम मैं ऐसा सोचता हूँ, उम्मीद भी करता हूँ.
Jessore, Bangladesh 1972, image by Om Prakash Deepak
ढाका की हमीदा खाँ ने एक विदेशी पत्रकार से कहा था, अब हम प्यार नहीं करेंगे और कविता नहीं लिखेंगे. अब हम युद्ध करना सीखेंगे. प्यार, कविता और युद्ध में सचमुच ऐसा विरोध है क्या?

मुझे डर लगता है क्योंकि मैं सोचता हूँ कोई क्रांति क्या किसी कविता की तरह सच हो सकती है? नहीं, मैं सवाल कुछ गलत ढंग से पूछ रहा हूँ, क्योंकि हर क्रांति आखिर कविता में ही जीवित रहती है. कैसी भी क्रांति हो, और कैसी भी कविता हो. होता यह है कि कविता और क्रांति और कविता, इनके बीच कोई कड़ी टूट जाती है.

और जब ऐसा होता है तो हज़ारों, लाखों आदमी अचानक मर जाते हैं और किसी को पता नहीं चलता. पहले एहसास होता है, कि वे अचानक खो गये हैं. या कि उनका कुछ खो गया है. मैंने इसीलिए पहले पूछा कि मैं कब मरा.

यहाँ इस सवाल का जवाब खोजना गैर-ज़रूरी है, बेमतब भी है. इतना जानता हूँ कि यह सवाल दिमाग में उठते ही मन में एक तस्वीर उभरती है. रावलपिंडी के एक बाज़ार की. कहीं का भी बाज़ार हो सकता था. तारीख थी 3 जून 1947. सुबह थी या शाम, ठीक याद नहीं, शायद शाम. रेडियो पर तीन भाषण हुए थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू, जनाब मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार बलदेव सिंह. शायद अंग्रेज लाट भी. सुनते हुए लगा था कि जिन्ना साहब का अंग्रेजी बोलने का लहजा कुछ अजीब सा था.

वे लोग क्या बोले थे, सच पूछिये तो मुझे कुछ याद नहीं. बाद में पढ़े भी थे. जवाहरलाल जी की एक बात याद पड़ती है कि शायद इसी तरह हिन्दुस्तान जल्दी ही अपनी एकता हासिल कर सके. एक जुमला जिन्ना साहब का भी याद पड़ता है. उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की थी कि उनके जैसे लोगों को सरकार रेडियो का और ज़्यादा इस्तमाल करने का मौका देगी. इतिहास में कैसे कैसे क्रूर मज़ाक भरे पड़े हैं. इतना तो सभी जानते हैं कि हिन्दुस्तान के बँटवारे की माउन्टबैटन योजना क्रांग्रेस, मुस्लिम लीग, और अकाली दल ने मंज़ूर कर ली थी, यही बात उनके नेताओं ने बतायी थी.

लेकिन मैं खो गया हूँ इसका एहसास तो मुझे पहले से होने लगा था. बहरहाल, मैं न कविता लिख रहा हूँ, न आत्मकथा. इसलिए मैं कब मरा, इसमें दिलचस्पी सिर्फ़ मुझे हो सकती है. आप की बात मैं इस वक्त नहीं करूँगा. मैंने बहुत लोगों को मरते देखा है. लेकिन आज मैं किसी को बिला वजह नाराज़ नहीं करना चाहता. वैसे एक बात, काफ़ी बड़ी बात मैं आप को बता दूँ. ज़िन्दा आदमी जब मरता है, यानि डाक्टर उसे मुर्दा घोषित कर देते हैं, तो यकीनन वह हत्या का मामला होता है - चाहे आत्महत्या का या पर हत्या का.

स्वाभाविक मृत्यु जैसी कोई चीज़ होती है क्या आज की दुनिया में? मुमकिन है कुछ किस्मत वालों को नसीब होती हो.

बदकिस्मत सबसे ज़्यादा शायद वे लोग होते हैं जिन्हें इतना भी पता नहीं चलता कि उनसे ज़िन्दगी और मौत के बीच चुनाव करने को कहा जा रहा है. या शायद पता चलता है, लेकिन आदमी ज़िन्दगी के धोखे में मौत को चुन लेता है. अक्सर ऐसा कोई मौका ही नहीं मिलता. दूसरे लोग हमारी तरफ से फ़ैसला कर लेते हैं, और हज़ारों लाखों लोग मर जाते हैं, और किसी को पता ही नहीं चलता.
Jessore Bangladesh, 1972 image by Om Prakash Deepak
एक लड़की है, सुवर्णा. आप उसे नहीं जानते. या मुमकिन है जानते हों. उसने कहा कि यातना का एहसास अगर बना रहता है तो कोई बात नहीं. सीमा दरअस्ल वहाँ लाँघी जाती है, जब कोई अहसास बाकी नहीं रहता. लेकिन यातना सहने की क्षमता क्या असीमित होती है? किसी भी आदमी में क्या असीमित होती है?

एक और लड़की है, उसका नाम मैं भी नहीं जानता. आप जानते हों तो नहीं कह सकता. हर सवाल का वह बस एक ही जवाब देती है - मेरे पति मुझे लेने आयेंगे. उसका भाई पूछता हुआ आया था. सुना तो बिना मिले ही लौट गया.

पहले बच्चे को जन्म देने के पहले किसी युवती के चेहरे पर जो कांति आती है, वह आप ने कभी देखी है? ज़रूर देखी होगी. वैसी कांति लड़कियों के चेहरे पर सिर्फ़ एक बार आती है, सिर्फ़ एक बार. बेटी के चेहरे पर वह कांति देख कर मांओं के मन चिंता भरी ममता से भर उठते हैं. खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, उठना-बैठना. दोनो वक्त टहलना, खड़े खड़े झाड़ू लगाना. न, न, भरी हुई बाल्टी न उठाना. लेकिन हर बाप को वह दिन याद आ जाता है जब उसने पत्नी के चेहरे पर वह कांति देखी थी और अचानक सोचा था - कितनी सुंदर है, पहले तो इसका एहसास ही नहीं हुआ था.

लेकिन लड़की अगर पहले ही मर जाये तो उसके चेहरे पर यह कांति नहीं आती, क्योंकि शरीर के कसाव और चमड़ी की कोमल चिकनाई से इसका कोई सम्बंध नहीं होता. या ज़्यादा से ज़्यादा, बहुत मामूली सा होता है.

इसलिए मुझे डर लग रहा है, कहीं फ़िर तो ऐसा नहीं होने वाला कि हज़ारों लाखों आदमी मर जायेंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा. वह लड़की मरना नहीं चाहती जो इन्तज़ार कर रही है कि उसका पति उसे लेने आयेगा. वे तमाम लड़कियाँ मरना नहीं चाहती जो इसीलिए ज़हर माँगती हैं कि खा लें तो डाक्टर उन्हें मुर्दा घोषित कर दें.

लेकिन वक्त नहीं है. ये लड़कियाँ कुछ वैसी ही हैं जैसी किसी गहरी खाई के ऊपर सपाट चट्टान से महज़ अपनी उँगलियों के सहारे लटकी हों. कब किसकी उँगलियाँ जवाब दे जायें. कब किसका मन हार मान ले. क्रांति का मतलब उनके लिए सबसे पहले सिर्फ एक ही सकता है, कोई रस्सी या सीढ़ी जिसे पकड़ कर ये ऊपर सुरक्षित धरती पर आ जायें. मैं फ़िर शायद ग़लत ढंग से अपनी बात रख रहा हूँ. क्रांति का उनके लिए क्या मतलब है, उससे बहस नहीं. क्रांति को हर हालत में उनके लिए सीढ़ी या रस्सी होना चाहिये.
मुझे डर है ऐसा हो नहीं रहा है. शायद कोई समझ नहीं रहा है क्या हो रहा है. हर आदमी घर जा रहा है. जो अपना घर गाँव छोड़ कर कहीं और जा छिपे थे वे भी अपने घरों को वापिस लौट रहे हैं. सिर्फ़ ये लड़कियाँ हैं, सब मिला कर कई लाख लड़कियाँ हैं जो नहीं जा रही हैं. ये शरणार्थियों में भी शरणार्थी हैं. इनके लिए नये शिविर खोले जा रहे हैं. समूचे बँगलादेश में, हर शहर, हर कस्बे और गाँव से इन्हें इकट्ठा किया जा रहा है.

किसी बहुत पुराने दर्द की तरह, जिसकी आदत ऐसी पड़ जाती है कि अचानक कोई झटका दर्द को उभार न दे तो याद भी नहीं रहता, मैं जानता हूँ कि यह बंदी शिविर तैयार हो जायेंगे, और ये लड़कियाँ उनमें कैद कर दी जायेंगी - उन्हें आप पुनर्वास केन्द्र कहिये या नारी निकेतन या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. तो अचानक हज़ारों लाखों लोग मर जायेंगे और किसी को पता न चलेगा.

क़ैदखाना क्या होता है? वही जहाँ से आप अपनी मियाद से पहले अपनी इच्छा से, जब भी चाहें, निकल नहीं सकते. आपकी दिनचर्या बँधी होती है. और आप व्यक्ति नहीं होते, अपराध होते हैं.

इन लड़कियों का अपराध क्या है जिनकी कोख में बलात्कार के बच्चे पल रहे हैं? जिनका आज कोई घर नहीं रह गया है? इनमें कितनी ऐसी हैं जो क्रांति के लिए लड़ती हुई घायल हुईं हैं? क्या औरत होना अपने आप में एक अपराध है? क्या हिन्दुस्तान में औरत होना, ख़ास तौर पर गरीब और अकेली औरत होना हमेशा एक अपराध बना रहेगा?

मेरे मन के अंदर कहीं घुमड़ता है, रोको, रोको इसे. अगर आप इन लड़कियों को घर नहीं दे सकते तो न सही. और भी तो लोग होंगे जिनको आप घर नहीं दे पायेंगे. लेकिन कैदखाना क्यों? जिन्हें उपचार की ज़रूरत हो उन्हें अस्पताल में दाखिल करिये. जिन्हें ऐसी ज़रूरत नहीं, उन्हें घर दीजिये. घर, यानि काम. अकेले मर्द को किसी शिविर में रखने की ज़रूरत तो नहीं पड़ती. अकेली औरत को शिविर में रखना ज़रूरी क्यों है? अगर आप अभी नहीं है, इन औरतों के लायक़ तो बनिये.

मैंने पिछले दिनों भी एक जगह लिखा था कि क्रांति शायद पार्वती की तरह होती है. लेकिन भिन्न सन्दर्भ में सोचता हूँ कि हर क्रांति किसी हद तक कुंती की तरह नहीं होती. सूर्य का आवाहन करती है, लेकिन सूर्य के प्रकट होने पर उसके तेज को सह नहीं पाती, घबरा जाती है. कुंती ने कर्ण को सिर्फ़ परित्याग किया था. लेकिन क्रांतियाँ अक्सर जान बूझ कर, या अनजाने ही अपनी सन्तान की हत्या कर दिया करती हैं. मनुष्य में पीड़ा सहने की ही क्षमता सीमित नहीं होती, परिवर्तन को सहने की क्षमता भी सीमित होती है, क्योंकि आदमी सच को सिर्फ़ हिस्सों में देख पाता है, सम्पूर्णता में नहीं, कविता में भी नहीं. इसलिए कोई भी क्रांति आखिरी नहीं हो सकती, कोई भी परिवर्तन ऐसा नहीं हो सकता कि उसके आगे परिवर्तन न हो. और इसलिए इतिहास में शायद हमेशा ऐसा होता रहेगा कि ज़िन्दगी की तलाश में अचानक कुछ लोग मर जायेंगे और किसी को पता ही नहीं चलेगा.

लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज़ रोशनी में होती है, उसका भी एक हिस्सा दिखाई देता है, एक नहीं. पाकिस्तानी पलटन की अमानुषिकता प्रमाणित करने के लिए उसकी क्रूरता से घायल हुई या मरी औरतों की मिसालें बहुत दी गयीं. बहुत किस्से छपे, बहुत तस्वीरें छपीं. अक्सर तो ऐसी चीज़ें जो अश्लील थीं या लगभग अश्लील. बलात्कार से ज़्यादा जघन्य कोई अपराध नहीं, मेरी नज़र में हत्या भी नहीं. हत्या पशु भी करते हैं, लेकिन बलात्कार तो पशु भी नहीं करते. पुरुष को यह पशु से भी बदतर राक्षस बनाता है. औरत के लिए यह एक यातना है और भयंकर अपमान. अगर कोई चीज़ बिल्कुल इन्सानियत के ख़िलाफ़ है, इन्सानियत को ख़त्म करने वाली है तो वह बलात्कार है. जो लोग इतने गिर गये हैं कि सामूहिक स्तर पर, एक नीति के रूप में इन्सानियत के ख़िलाफ़ इस अपराध का आस्तेमाल करें, वे इस लायक नहीं कि उन्हें मनुष्य की प्रतिष्ठा दी जाये. वे छमा के पात्र बिल्कुल नहीं, लेकिन दया के पात्र ज़रूर हैं.

इतना कहने से बात पूरी नहीं होती. अभी तक मान लिया जाता रहा है कि बात इतनी ही है. लेकिन यह तो केवल पुरुष का दृष्टिकोण है. अपराध भी, उसकी निन्दा भी. जो औरत पीड़ित और अपमानित होती है, उसकी दृष्टि से भी जब तक न देखें, तब तक पूरी चीज़ नहीं देख पायेंगे - जो हमारे सामने है, रोशनी में है, उसे भी पूरी तरह नहीं देख पायेंगे.

हिन्दुस्तान में हम न जाने कब से अपनी बहादुरी साबित करने के लिए औरतों पर ज़ुल्म करते आये हैं. पिछली चौथाई सदी में भी हमने यही किया है. हिन्दू मुसलमान, बंगाली पंजाबी, द्विज शूद्र, ये सब तो सिर्फ़ बहाने हैं. असलियत है कि सैकड़ों सालों से हिन्दुस्तानी मर्द कभी किसी परदेशी के सामने तो टिक नहीं पाया, औरतों पर बहादुरी आज़माते हुए ख़ुद इन्सान से एक दर्जा नीचे की चीज़ बन गया है. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर शायद कभी औरतों पर संगठित हमला नहीं हुआ जैसा बँगलादेश की औरतों पर पाकिस्तानी पलटन ने किया. क्या उसके साथ ही यह भी सच नहीं कि बँगलादेश की औरतें इतनी बड़ी संख्या में और इस तरह मुक्ति संग्राम में शामिल हुईं, जैसा हिन्दुस्तान में कम से कम पहले कभी नहीं हुआ था. शायद यह उस ख़ास किस्म के छापामार युद्ध में ही संभव था जो बँगलादेश में लड़ा गया. फ़िर भी ऐसा नहीं हुआ, जैसा अब तक होता आया था, कि सब औरतों ने क़िस्मत के आखिरी फैसले की तरह ज़ुल्म को स्वीकार कर लिया हो.

यह भी इतना कठिन नहीं था, जितना अब अपनी मौत को अस्वीकार करना हो सकता है. अब अगर उन्हें सज़ा देंगे तो उनके अपने लोग ही देंगे, वही लोग जो कल तक उनके साथी और रहनुमा थे, और आज क्रांति की सफलता के बाद ताक़त जिनके हाथ में है. मुश्किल इसलिए और बहुत ज़्यादा हो सकती है कि सज़ा देने वाले भी नहीं समझेंगे वे क्या कर रहे हैं. और इसके अलावा और किया भी क्या सकता है कि जिनके परिवार उन्हें "क़ुबूल" करते हैं, वे अपने घरों में चली जायें, यानि "क़ुबूल" करने वाले बाप, भाई, या शौहर के घर में, और जिनका कोई नहीं है, या जिन्हें क़ुबूल करने वाला कोई नहीं है, उन्हें सरकारी शिविरों में रखा जाये और उनकी शादियाँ कर दी जायें. बाप, भाई और शौहर से अलग औरत का अपना घर भी हो सकता है, मर्द के रिश्ते से आज़ाद, औरत की अपनी भी कोई ज़िन्दगी हो सकती है, मुमकिन है यह ख़याल सिर्फ़ इसलिए न आये कि अपने समाज में ऐसी स्थिति की कल्पना करने के हम लोग आदी ही नहीं रहे.



मैं कब मरा? (मैं और मेरा वक्त - लेख संग्रह), ओम प्रकाश दीपक

23 अप्रैल 2010

डा. राम मनोहर लोहिया

2008 में भारतीय पत्रिका "तहलका" में भारतीय नेता तथा भारतीय सोशलिस्ट पार्टी को बनाने वाले डा. राम मनोहर लोहिया पर एक लेख छपा था जिसमें डा. लोहिया की तस्वीर की जगह पर गलती से श्री ओम प्रकाश दीपक की तस्वीर छपी थी. इसका कारण शायद यह भी हो कि आज डा. लोहिया की तस्वीरें खोजना आसान नहीं. इसीलिए इन तस्वीरों को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. अगर कोई इन तस्वीरों को बड़े आकार में पाना चाहता है तो मुझसे ईमेल द्वारा सम्पर्क करिये.

यह पहली दो तस्वीरें हमारे घर में लगी थीं, शायद इन्हें 1967 में डा. लोहिया की मृत्यु पर बनवाया गया था.

Dr Ram Manoher Lohia

Dr Ram Manoher Lohia

अगली तस्वीर 1949 की है, जब मेरी माँ श्रीमति कमला दिवान जिनका तब विवाह नहीं हुआ था, दिल्ली में बाड़ा हिन्दूराव में सोशलिस्ट पार्टी के कार्यालय में काम करती थीं. यह एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा है, जिसकी हालत अच्छी नहीं. लेकिन फ़िर भी डा. लोहिया पहचाने जाते हैं. उनकी सामने नीचे बैठी कमला दिवान हैं. डा. लोहिया के करीब खड़ी महिला शायद सुश्री रमा मित्र हैं, पर यह मैं पक्का नहीं कह सकता.

Dr Lohia, Rama Mitra, Kamala Deewan 1949

अगली तस्वीर 1977 की है जब सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका "जन" को दोबारा शुरु करने का प्रयास किया था, उसके लिए एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था, यह गोष्ठी के बारे में छपवाये गये निमंत्रण का मुख्यपृष्ठ है.

Dr Lohia, Om Prapash Deepak 1947

अंतिम तस्वीर शायद 1946 या 1947 की है जिसमें मैं बीच में बैठे डा. लोहिया के अतिरिक्त, उनके दाहिने बाजू में बैठे अपने पिता श्री ओम प्रकाश दीपक को पहचान सकता हूँ.

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