07 जनवरी 2013

1957 हैदराबाद, ओम की डायरी से


हैदराबाद 14 फरवरी 1957

बीच में एक हफ्ता गुज़र गया है. कौन सी बात खास है कौन सी नहीं, यह बहुत कुछ तो अपने ऊपर ही निर्भर होता है. अगर ध्यान उस ओर लगता तो शायद पिछले हफ्ते की बातें भी खास गिनी जातीं पर दिमाग लगे तब न. दिमाग तो खाली सा है, अज़ीब सी हालत है. कहानी परसों या नरसों ही तैयार हो गयी थी लेकिन भेजी आज है. एशियाऊ लेखक सम्मेलन पर लेख भी तैयार हो गया है, लेकिन टाईप नहीं करवाया अभी तक. कल श्रीनिवास राव को दूँगा. कल लाइब्रेरी में Harper's magazine और New Yorker की प्रतियाँ भी देखनी हैं, ताकि फैसला कर सकूँ कि किसे भेजूँ. कश्मीर पर एक लेख भी लिख सकता हूँ. लेकिन लिखूँ या न लिखूँ. लिखूँ भी तो किसे भेजूँ. देखो कोशिश करके लिख तो डालूँगा ही, फ़िर भेजने की देखी जायेगी. डाक खर्च भी तो कमबख्त डेढ़ रुपया आ जाता है.

विपिन आज आ गये हैं. कल हाउस मीटिंग में मेरा मामला भी तय हो जायेगा. अगर बद्री रहे तो वह भी साफ़ हो जायेगा कि उनसे अब कोई काम मिलना है या नहीं. शायद बातचीत में कुछ और बातें भी खुलें. तबियत बड़ी खराब सी है. आंख में जलन, सिर में दर्द, कुछ बुखार सा. पेट में गैस और कब्ज़.

पिछले दिनों ज़ाहिर हुआ कि सुधाकर और बद्री में एक स्वाभाविक प्रतिद्वन्द्विता है. विज़ी मेरा ख्याल है सुधाकर का साथ देगा. मुझे जहाँ तक हो सके इस झगड़े में न पड़ कर स्वतन्त्र ही रहना चाहिये. वही अच्छा है.

कमला की दिल्ली से तीन चिट्ठियाँ कुल आ चुकी हैं. यूँ तो कोई विषेश बात नहीं है पर लिखा है कि दिल नहीं लगता. हर तरह से बुरा हाल है. कुछ तय हो अपना तो कुछ कहूँ उससे भी कुछ. उम्मीद तो यही करता हूँ कि चुनाव के बाद तय हो जायेगा कुछ. अगर "आदमी" निकलना तय हो जाये, फ़िर मिलना तो मुझे ही चाहिये वह काम. बाकी नहीं कह सकता कि डाक्टर साहब क्या सोचेंगे. लेकिन दो बातें याद आती हैं इस सिलसिले में. एक विज़ी की, "Don't be a suckler or a toddler too long". दूसरी विनायक की, "जन, धन, ज्ञान, तीन में से कोई एक शक्ति होनी चाहिये". अभी तो कुछ भी नहीं है. अगर राजनीति में रहना है तो एक तो प्राप्त करनी ही चाहिये. ज्ञान शक्ति के लिए भी तो समय और साधन चाहियें. आसान नहीं है तीन में से किसी को भी पाना. देखना है मुझे किस तरह से सफलता मिलती है. लेकिन "आदमी" निकलना तय हुआ और मुझे आफर मिला तो निश्चय ही चला जाऊँगा. लोकनाथ भी शायद उसमें जाना चाहे. लेकिन यह भी संभव है कि डाक्टर उसे Mankind में ही रखना चाहें. अब तो चुनाव के बाद ही कुछ मामला साफ़ होगा.

फ़िलहाल, अगर यहाँ रहना भी पड़े तो काम चलाने के लिए नारायण से वादा मिला है कि सिकन्दराबाद स्टेशन पर धर्मशाला में एक कमरा मिल जायेगा. पंजाबी होटल भी है सामने. किसी तरह अपना खर्च 50 के अन्दर लाना है. कोशिश करके ले ही आऊँगा.

कल हिसाब लगाया था कि हमको अमूमन 80 या 100 सीट मिलनी चाहिये और पी.एस.पी. को 110 या 120. इससे क्या नतीजा निकल सकता है? क्या हम नाकामयाब रहे और प्रजा वाले संभल जायेंगे? मेरा ऐसा ख्याल नहीं है. केरल में अगर मौका मिला तो सब कांग्रेस में चले जायेंगे. दूसरी तरफ़ अगर पश्चिम बंगाल में भी सरकार न बनी तो फ़ूट पड़ेगी. बिहार में भी भगदड़ तो मचनी चाहिये. किसी भी दशा में, हमारे 15 आदमी अगर पार्लियामैन्ट में डाक्टर के साथ पहुँच गये तो असली विरोधी राजनीति तो हमारे हाथ में होगी, जैसा भी है पार्टी पढ़ेगी तो.

इस समय जो अनुशासनहीनता है, उसके खिलाफ़ मेरी राय में कड़ा कदम उठना चाहिये. सौ पचास आदमी अगर निकल भी जायेंगे तो क्या है? लेकिन इसे अगर परवरिश मिली तो आगे चल कर मुश्किल होगी.

हैदराबाद 24 फरवरी 1957

हफ्ते बीच में बीत गये हैं. बातें होती ही हैं. ज़िन्दगी भी चलती ही रहती है. छोटी छोटी बातें, काम कैसे चले, इसी में बड़ी शक्ति और ध्यान चला जाता है, विकास हो तो कैसे हो. ऐलौंस सवा सौ रखना तय हुआ है फ़िलहाल. स्थिति असंभव है. इस महीने अगर भत्ते में से अस्सी रुपये भी कमला को भेज दिये तो अपने पास कुछ नहीं बचेगा. फ़िर गाड़ी कैसे चलेगी. भेजने को तो Encounter को कहानी और Books Abroad व जर्मनी सो. पार्टी को लेख भेज दिये हैं. एक लेख और लिखा पड़ा है. उसे Harper's में भेज सकता हूँ. अगर "आँसू और इन्द्रधनुष" का अनुवाद करूँ तो वह भी कहीं विदेश में छप सकती है, ऐसी मुझे उम्मीद है. "अपना अपना जहुन्नुम" तो अंग्रेजी में भी लिखी रखी है. अगर दफ्तर में भी टाइप कराऊँ तो भी तीन रुपये डाक खर्च के लिए चाहिये. आसानी से हिम्मत पड़ती नहीं अपनी. जो भेजा है उसमें उम्मीद बान से कुछ जबाव आने की है. देखो आता है या नहीं. अभी और कुछ नहीं करूँगा. लेख कहानी, पुरानी पड़ने वाली चीज़ें नहीं हैं, इसलिए मौका पड़ने पर फ़िर भी कोशिश कर सकता हूँ.

अगर डाक्टर साहब ने खुद "आदमी" की बात न छेड़ी तो मैं दिल्ली के लिए कहूँगा. खर्च भी कम होगा, परिचय भी बढ़ेगा और ट्रेनिंग भी अपनी हो जायेगी. कमला को भी काम मिल सकता है, तब माता जी दिल्ली आ सकती हैं.

बद्री के बारे में मेरे सन्देह तो बदस्तूर हैं. लेकिन मेरा ख्याल है कि उसने चतुराई की है कि किसी भी तरफ़ जा सके. अगर डाक्टर साहब जीत गये तो नहीं जायेगा. अगर हारे तो बद्री का रहना मुश्किल है.

आज चुनाव शुरु हो गये. कल करीब 600 सौ क्षेत्रों में पोलिंग होगी. अपने भी बहुतेरे क्षेत्र हैं. नतीजे निकलने भी परसों नरसों शुरु हो जायेंगे. देखें क्या होता है. कल चन्दौली में भी पोलिंग है. अगर वहाँ वोट अच्छे पड़े तो डाक्टर सा की जीत निश्चित है. और अगर डा. सा जीत गये, फ़िर तो पार्टी तेज़ी से पढ़नी चाहिये हर तरफ़.

हैदराबाद 7 अप्रैल 1957

काफ़ी दिनों के बाद आज फ़िर लिख रहा हूँ. बहुत सी बातें इस बीच हो गयीं हैं, जिन्हें लिख लेना चाहिये. क्योंकि यह इतिहास का अंग है. आगे चल कर इनका क्या महत्व होगा, क्या नहीं यह नहीं कह सकता, लेकिन अभी तो लगता है कि यह बातें बड़े महत्व की होंगी.

शुरुआत 22 तारीख को हुई जब पी.टी. आई ने टेलीफ़ोन किया कि डाक्टर हार गये. 20 या 21 को बंडू गोरे का ख़त आया था कि डाक्टर बम्बई में हैं, 22 को पहुँचेगे. फ़िर तार आया कि 22 को नहीं, 23 को आयेंगे. एसेम्बली की पाँचों सीटें हार चुके थे इसलिए मन को तैयार कर लिया था हार के लिए, फ़िर भी कुछ उम्मीद तो थी ही कि शायद विरोधी वोट सारे हमें ही मिले हों. मुझे हार की कोई विषेश प्रतिक्रिया नहीं थी. लेकिन सभी की राय बनी कि हवाई अड्डे पर ज़रूर जाना चाहिये. अध्यात्म 14 को चले गये थे, मानकलाल 20 को, सुधाकर बम्बई गया था और लोकनाथ तो महीने भर से बाहर थे. अड्डे पर डाक्टर साहिब मिले, किसी से कुछ बोले नहीं. सिर्फ नारायण और बद्री से बात की, घर गये. लेटे रहे. विन्ध वालों को और राजनारायण को खरी खोटी सुनाते रहे. बनारस वालों की यूँ भी बड़ी आलोचना की. विन्ध वालों को रमा के पीछे, बनारस वालों को इसलिए कि बताया नहीं कि सीट कितनी कमज़ोर है, ले जा कर हरवा दिया. राजनारायण अपने यहाँ काउँटिंग करवाते रहे, डाक्टर की सीट में नहीं गये. खाना नहीं खाया. हम लोग खा कर लौट आये.

दूसरे दिन सुबह दफ्तर आये. श्रीनिवास से अध्यात्म को पूछा, नहीं थे. मैंने प्रोग्राम के बारे में बताया तो बुलाया. पहिले ही बिगड़े, "मैं लिख कर तो दूँगा ही, लेकिन तुम लोग कुछ काम नहीं करते हो. हफ़्ते में पाँच चिट्ठियाँ लिखते हो. सुधरो नहीं तो छोड़ कर चले जाओ. नहीं सुधरोगे तो मैं छोड़ने को कहूँगा. दो तीन बार कहने पर भी नहीं सुधरोगे तो हटा दिये जाओगे वर्ना मैं दफ़्तर से नाता तोड़ लूँगा. फ़िर प्रोग्राम बताया. 9 से 19 तक. मेरा ख्याल था कि 10 से शुरु करना चाहिये, बस्ती को 8 को था, फ़िर 9 को बनारस कैसे होगा? दूसरे दिन जा कर बताया तो बिगड़े कि ड्राफ्ट क्यों नहीं बनाया चिट्ठियों का. 23 की शाम को ही आम सभा में भाषण था. सेन्ट्रल आफिस को कहा कि बदमाश लोग हैं, अंग्रेज़ी में सर्कुलर भेजते हैं. बन्दे मातरम रामचन्द्र राव की तारीफ़ की कि ऐसे लोग पार्टी में आने चाहिये. केन्द्रीय दफ्तर को जो नोट लिख कर दिया उसमें कहा कि कोई काम नहीं होता है. चुनाव के आँकड़े ठीक से नहीं रखे गये. मैनकाईन्ड को लिखा कि यह मेरा दूसरा अल्टीमेटम है, तीसरी बार मैं मैनकाईन्ड से सम्बन्ध तोड़ लूँगा.

24 को लोकनाथ आ गये. उससे कोई बात नहीं हुई. सुरेन्द्र ने आ कर कहा कि चुनाव सम्बन्धी आँकड़े लिखे जा रहे हैं तो बोले कि लिख कर बात करो.

शाम को कार्यकर्ताओं की बैठक थी. 30-35 आदमी थे, उनमें भी 15 पार्टी के मेम्बर नहीं. यू.पी. और विन्ध बगैरह की बात करने के अलावा कहा कि पार्टी में बेईमान लोग भर गये हैं. इन्हें निकालो. दूसरी ओर आलसी लोग हैं. कोई काम नहीं करते (इशारा लोकनाथ और रंगनाथ की ओर था) इन्हें भी निकालो. अगर नहीं निकले और पार्टी नहीं सुधरी तो "मैं थका नहीं हूँ. नयी पार्टी बनाऊँगा." निशान वगैरह पर यह भी कहा कि आग लगने पर यह तो ऐसा ही हुआ कि हर आदमी अपनी जान बचाने की करे. राव और शिवलिंगम वाले किस्से का भी ज़िक्र किया.

दूसरे दिन हेक्टर ने अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. चक्रधर भी आ गया. वह भी बहुत परेशान रहा. विपिन ने भी तय कर लिया कि इस्तीफ़ा देंगे. राव ने भी. लोकनाथ ने भी एक इस्तीफ़ा लिखा कि मैं समझता हूँ कि जन धन का दुर्पयोग कर रहा हूँ इसलिए चले जाना चाहिये. हेक्टर ने पहले अल्टीमेटम का ज़िक्र करते हुए लिखा कि ऐसी सूरत में मुझे छोड़ देना चाहिये. डाक्टर ने जवाब दिया कि आप के बगैर चूँकि काम नहीं चल सकता, इसलिए मैं ही छोड़ देता हूँ. इसकी मुझे कोई फ़िकर नहीं कि आप अभी छोड़ें या महीने बाद, यह सब आप एडिटोरियल बोर्ड की मीटिंग में तय करें.

उसके बाद 28 तक डाक्टर यहाँ रहे. ठंडे थे. कुसुम भी आयी थी. उससे एक दिन बोले कि "मैं एक नयी पार्टी बना रहा हूँ." उसने कहा, "क्या हर साल एक बनेगी?", बोले, "तुम अगर हर साल एक बच्चा पैदा कर सकती हो तो मैं हर साल पार्टी क्यों नहीं बना सकता?" उसने कहा, "आप को गलतफ़हमी है (You underestimate me Dr.) मैंने एक साल में दो बच्चे पैदा किये हैं."

सम्भवतः नारायण ने उन्हें बताया कि विपिन ने इस्तीफ़ा दे दिया है. 27 की सुबह उससे कहा कि क्या इरादा है? विपिन - "I have resigned". Dr - "Well you may do whatever you like, but it has nothing to do with my note." Bipin - "Of course it has every thing to do with it. It is the direct outcome of it." फ़िर बोले, कि तुम इसे पर्सनल क्यों लेते हो. लेकिन सुधारो अपने को. इस तरह यह पार्टी कैसे इम्प्रूव होगी. अंत में यह कह कर चले गये, "Either you improve or I won't have anything to do with this party. You may go to hell."

शाम को विपिन के जाने से पहले एक नोट लिख कर दे गये National Committee के नाम "My latest attempt to improve the party has failed". आलस, झूठ, धोखेबाज़ी और बेईमानी को बड़े दोष बताया. आलस को सबसे बड़ा लिख दिया कि अगर रा. स. प्रायश्चित का प्रस्ताव नहीं करती तो मेरा इस्तीफ़ा मँज़ूर करे. कोई बहस न हो. यही सोचें कि किस प्रकार पार्टी सुधारें.

मेरी सुरेन्द्र से यह बात हुई कि दिल्ली के पार्लिमेन्टरी ग्रुप के दफ़्तर में अगर हो सके तो मैं चला जाँऊ. विपिन से भी मैंने यही कहा कि अगर ऐसा होगा तो ठीक वर्ना यूँ भी मैं छोड़ जाऊँगा.

लोकनाथ ने इस्तीफ़ा नहीं दिया. फ़ौरन बात करने लगे कि हम चलायेंगे मैनकाईन्ड को. हेक्टर ने विश्लेषण किया कि मुमकिन है डाक्टर नयी पार्टी बनाने की सोच रहे हों. अगर समाजवाद का जो हमारा निरूपण है उसमें कुछ परिवर्तन कर दिया जाये, विशेषतः लोकतंत्र के बारे में, तो दक्षिण पक्ष की एक नयी पार्टी मुख्यतः जाति विरोध के आधार पर बन सकती है. डी. एम. के., P&W और उत्तर में भी इस तरह के लोग हों, बन्देमातरम और इन्दुदेव जैसे,  नयी पार्टी बन सकती है जिसमें आदमी भी आयेंगे और पैसा भी.

मैनकाईन्ड के स. बोर्ड की बैठक हुई. तय हुआ कि फ़िलहाल तीनों इस्तीफ़े स्थगित रखे जायें. उसके दो दिन बाद राव ने भी अपना इस्तीफ़ा लिख कर दे दिया.

अखबारों में लखनऊ का कुछ पता नहीं चलता था. यहाँ चक्रधर थासुधाकर भी 29 को आ गया था. सुबह से शाम तक वही चर्चा. लोकनाथ ने यह भी कहना शुरु किया कि विपिन ने इस्तीफ़ा वापिस ले लिया होगा. सब ठंडा हो जायेगा. यह भी भाई यह पोलिटिक्स है. सभी अपना स्वार्थ देखते हैं. जगदीश और राजनारायण की हिमायत भी इसी दृष्टि से की, विशेषतः जगदीश की. मैंने यह भी कहा कि नहीं, मेरी नज़र में विपिन गिर जायेंगे, तो बोला, ऐसा क्यों कहते हो.

बद्री से मैंने काम के लिए कहा. पिछले महीने भर से वादा कर रहा है. कल भेजने का कहा है. एडवाँस देने का भी कहा है. देखें मुकर न जाये तो.

चार तारीख़ को मैंने डाक्टर को एक चिट्ठी लिखी कि मेरा काम यहाँ नहीं चलता, मुझे छुट्टी दें. दिल्ली जाने की इच्छा भी प्रकट कर दी. नयी पार्टी वाली बात के प्रति संदेह भी प्रकट किया और भठ के वातावरण का विरोध भी किया.

कल एक तार भी भेज दिया है कि उनके भाषण से जो चिट्ठी की शक्ल में जायेगा, नयी पार्टी की बात निकाल दूँ. देखें क्या उत्तर देते हैं.

कल अध्यात्म आये, उनसे तो कोई ख़ास बात नहीं मालूम हुई. आज गोपाल गौड़, रंगनाथ और मानकलाल आये. मालूम हुआ कि लखनऊ में राजू, राजनारायण और कैशव ने डाक्टर का समर्थन किया. राजनारायण और बंडू ने विपिन पर हमले भी किये. बंडू की कोशिश थी कि खुद प्रधानमंत्री हो जायें. सुरेन्द्र ने साफ़ विरोध किया. गोपाल ने भी. रामचन्द्र शुक्ल ने भी दबते स्वर में आलोचना की डाक्टर की. अन्तः एक प्रस्ताव पास किया , जहाँ हम जीते, वह अपने सिद्धांत पर टिके रहने के कारण, जहाँ हारे वहाँ विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर, इस कारण की कौशल, सच्चाई और सिद्धांत पर चलने के गुणों का अभाव था.

राजनारायण, मधु और चक्रधर की एक कमेटी बनी है, अनुशासन की जाँच और संगठन ठीक करने के लिए.

विपिन का इस्तीफ़ा मंजूर हो गया. कोई नया नहीं चुना गया. अभी उसी तरह चलेगा.

आज सुबह से फ़िर बड़ी गर्मी है. मानक लाल पर तो शायद डाक्टर ने हाथ फेर दिया है. लोकनाथ फ़िर बड़ी गर्मी में हैं, लेकिन क्या करेंगे यह नहीं मालूम. मुझे उस पर विश्वास नहीं. हो सकता है रंगनाथ भी छोड़ कर चला जाये. पंडित तो कहीं नहीं है. रहे चाहे जाये, उसका कहीं मतलब नहीं. जायेगा भी तो राजनीतिक कारणों से नहीं.

***

4 टिप्‍पणियां:

  1. सम्पूर्ण क्रान्ति की आशा, वह भी उन लोगों से, जिन्हें यह जानने की भी ज़रूरत नहीं कि देश का भूखा गरीब शीतलहर के दिन कैसे काटता है या बाढ़ में बांधों का पानी छोड़ने से कितने जान-माल की हानि हर साल होती है। क्या बदला तब से अब तक?

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    1. 1957 में डा. लोहिया की समाजवादी पार्टी की अपनी राजनीति पहचान बनाने की चेष्ठा में ही शायद बीस साल बाद जेपी की सम्पुर्ण क्राँती के बीज छिपे थे? राजनीति और गरीब जन की दूरी की बात समझता हूँ पर शायद उनके हित में काम करने वाला अच्छा नेता बनने के लिए लोग कैसे रहते हैं इसका व्यक्तिगत अनुभव होने के के साथ साथ, आज के समाज में नेताओं में दूसरे बहुत से गुण चाहिये! मुझे राजनीति का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं लेकिन इसके बारे में पढ़ कर लगता है कि राजनीति में सही विचार के साथ उनको लागू कर पाने की क्षमता भी चाहिये जो आदर्शवादियों में अक्सर कम होती है.

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  2. क्षमता के बारे मे तो आपसे असहमत होने का सवाल ही नहीं उठता। मैं तो सदा से कहता हूँ कि सुनहरा दिल होना काफी नहीं है, सक्षम पाँव और कुशल हाथ भी चाहिये।। लेकिन बात इतने तक ही नहीं रुकती, राजनीतिक नेता हो या धार्मिक, हम भारतीयों की कसौटी इतनी हल्की है कि अधिकांश नाकाबिल लोग उसमें पास हो जाते हैं।

    पिछली टिप्पणी में लिखने से बच रहा था लेकिन अब कह ही देता हूँ कि इस पोस्ट में पैसों के हिसाब और भविष्य की बात पढ़कर मन भीग सा गया। लगता है कि ईमानदार लोगों के संघर्षों का फल शायद अच्छी संतति के रूप में (या संतति को) मिलता है। [आप चाहें तो टिप्पणी के इस अंश को इगनोर कर सकते हैं।]

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    1. धन्यवाद अनुराग.

      डायरी को ब्लाग पर देना चाहिये या नहीं, यह सोचते हुए मन में कई दुविधाएँ थीं. कई दुविधाएँ अभी तक मन में सुलझा नहीं पाया हूँ. डायरी के बहुत से हिस्से ब्लाग पर बाँटने कठिन होंगे क्योंकि उनमें बहुत व्यक्तिगत बातें हैं.

      छोटे छोटे खर्च के लिए पैसे न होने का रोना तो पूरी डायरी में है, पर वह कोई रहस्य नहीं था, सबको मालूम ही था. इसी बात से समझ में आया कि घर परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी हो तो आदर्शों के प्रति निष्ठवान रहना कितना कठिन है.

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