13 जून 2010

रामकृष्ण अवस्थी और कश्यप भार्गव

 (कमला दीपक की डायरी से)

कुछ घँटों के बाद तुम्हें गये तेईस वर्ष पूरे हो जायेंगे. अब तो ऐसा लगता है कि मैं सुनहरी धूप में झरने के नीचे मुँह खोले लेटी थी और जीवन का अमृत स्वयं ही मेरे मुँह में गिर रहा था कि सहसा वह झरना सूख गया और मेरा मुँह खुला ही रह गया. क्या मनुष्य को गहरा उतरने के लिए मौत की घाटियों में झाँक लेना ज़रूरी है या उसकी एक असीम मानसिक कल्पना भी जीवन को उसकी सारी पीड़ाओं के होते हुए भी कितनी बहुमूल्य और सुन्दर बना सकती है. इसका अन्दाज़ केवल उन्हें है जो मृत्यु और उसकी वेदना को छू कर जीवित होते हैं, नहीं तो बहुथा लोग तो मात्र जीते ही हैं.

लखनऊ के हज़रतगंज के काफी हाउस की याद आ रही है, जब हमारे साथ रामकृष्ण अवस्थी थे, पता नहीं अब वह है या नहीं. मैंने बोला, "शादी क्यों नहीं लेते?" वह बोला, "सुनो ग्रीन (वह मुझे ग्रीन नाम से ही सम्बोधित करता था) मैंने जितनी भी शादी शुदा औरतें देखी हैं, वह दिमागी रूप से बीमार हैं. वैसे देखने में उन्हें कोई बीमारी नहीं है लेकिन मानसिक रूप में अधिकाँश एलर्जिक हैं, कोई इतर की और मिट्टी के तेल की, ठँड और गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती, सब परहेज़ी खाना खाती हैं, अक्सर दवाओं से पेट भरती हैं. ये सभी अपने पतियों से बेहद प्यार करती हैं और पति भी दिलोजान से उन पर मरते हैं, उनके ऐशोआराम व अन्य सुविधाओं की पूर्ती, यानि नौकर, रुपया सभी तरह से. कारण यह है कि इन औरतों ने दिमागी तौर पर पति को कबूल नहीं किया पर बेवफ़ा भी नहीं निकलीं. अपनी वफ़ा और पति को पसंद न कर सकने का बदला अपनी बीमारी और पति सेवा से ले रहीं हैं."

मैंने कहा कि तुम बकते हो, तो उसका उत्तर था कि मैं किसी ऐसी औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो मुझसे ज़िन्दगी भर अपनी वफ़ाओं का बदला ले. मैंने कहा, तुम्हें तो औरतें देवता मान कर पूजने को तैयार हैं. उसका उत्तर था केवल शादी से पहले, बाद में वह मुझे सिंहासन से उतार कर खुद उस पर बैठ कर चाहेगी कि मैं उनके आगे फ़ूल चढ़ाऊँ और यह सब मैं नहीं कर सकता. मैंने कहा, यह तुम्हारा अहं बोल रहा है.

उसका उत्तर, दुनिया में औरतों ने मर्दों के लिए कुर्बानी दी है और मैं इस तरह की कुर्बानी नहीं चाहता, केवल अपनी कर्बानी से डरता हूँ. मैंने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन इस उम्र में लड़कियाँ तुम पर जान देती हैं, कुछ वर्षों के बाद यह सब नहीं होगा, तब उस दशा में देहात की कोई सीधी सादी लड़की तुम्हारे जैसे घँमंडी से बाँध दी जायेगी, समझदार लड़की तो शादी करने से रही तुमसे.

बाद में सुना कि वह फ़िरोज़ गाँधी के साथ नेश्नल हैराल्ड में काम करता था. शादी भी घर वालों द्वारा हुई थी, एक या दो बच्चे भी थे. किसी ने बताया था कि उसका बेटा दिल्ली में नेश्नल हेरल्ड में काम करता है, लेकिन सम्पर्क नहीं कर पायी और अन्य उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज अपने "ग्रीन" नाम के साथ अवस्थी की याद आ गयी. नहीं होगा, होता तो पत्र भेजता तुम्हारे लिए, तुम्हारे विषय में पूछता या कहता देखो, दीपक ने कुर्बानी दी न तुम्हारे लिए.

ज़िन्दगी में यह कठोरता भी है कि जो पल गुज़र जाता है, वह फ़िर कभी आता नहीं लौट कर, केवल यादें ही शेष रह जाती हैं. शायर सलाम मछली शहरी का एक शेर याद आ गया - "ऐ निगराने चमन ज़ारे अवध, लखनऊ याद तो आता होगा".

और फ़िर इलाहाबाद में डा. सुनीती, कमला नेहरु अस्पताल में जो घर के पास ही था. पिंकी वहीं हुई थी. माता जी बहुत प्रसन्न थीं. तुम तो हैदराबाद में थे. सुनीति और सुमति अब न जाने कहाँ हैं?

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है. कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र. हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं. एक बार जानकीदेवी से निकल रही थी तो सविता मिली थी. तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही उसी तिथि और उसी समय में ही कश्यप भी नहीं रहा था. वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा. क्या कहती उससे. अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने. कई बार मन में आया कि उसके स्कूल बाल भारती में जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की.

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता. ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था. फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी. मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने. जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है.

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरज और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा. और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया. सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ.

कब सहला कर हाल पूछूँ, कब टटोलूँ क्या खो गया?
रात का अंधकार भी, बस झकझोरता रह गया.
फ़िर कभी फ़िर कभी कहते कहते, भूतकाल हो गया.

दिल्ली 24 मार्च 1998, कमला की डायरी से