02 जनवरी 2012

बाँझ कलम से (1)

दिल्ली के एक हिन्दी दैनिक में करीब दो महीने पहले अन्दर के सफ़े पर एक छोटी सी खब़र छपी थी. उत्तरप्रदेश के एक गाँव में एक मर्द ने किसी लड़की को छेड़ दिया. "छेड़ने" से पत्र के संवाददाता का क्या तात्पर्य था, नहीं मालूम. ठिठोली करने से ले कर हाथापाई करने तक किसी भी चीज़ को "छेड़ना" कहा जा सकता है. लड़की उस व्यक्ति की जाति की नहीं थी. लड़की की जात बिरादरी के जितने भी लोग गाँव में थे, सारे इकट्ठे हो कर उस व्यक्ति के घर चढ़ आये. घर में कोई बालिग मर्द नहीं था, मुमकिन है कि भीड़ आने की तैयारी सुन कर ही मर्द भाग गये हों. दरवाज़ा तोड़ कर या दीवार लाँघ कर भीड़ के लोग घर में घुस गये. परिवार के अन्य लोगों को एक कोठरी में बन्द कर के भीड़ ने उस व्यक्ति की युवा पत्नी से सामूहिक बलात्कार किया, और फ़िर उसे नंगी सारे गाँव में घुमाया.

आठ दस साल पहले तक ऐसी कोई खब़र पढ़ने के बाद मैं कुछ इन्तज़ार किया करता था. मैं सोचता था कि किसी लेखक पर कहीं कुछ तो प्रतिक्रिया होगी, किसी रूप में तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त होगी. अब मैं इन्तज़ार नहीं करता, हिन्दी के लेखक को मैं ज़्यादा अच्छी तरह से जान गया हूँ. लेकिन तकलीफ़ मुझे अब भी उतनी ही होती है जितनी पहले होती थी, बेइन्तहा तकलीफ़ होती है, और अब भी मैं सोचता हूँ कि ऐसा क्यों है कि ये चीज़ें हिन्दी के लेखक को नहीं छूती? और उसके साथ साथ खुद अपनी कलम के बाँझ होने का एहसास मुझे बेतरह सालता है. सफल अभिव्यक्ति की कामना ही शायद मेरी कलम में नहीं है, इसलिए ऐसे कुछ अनुभवों को व्यक्त करने के स्वयं के प्रयासों का ज़िक्र मैं नहीं करूँगा. लेकिन यह सवाल रह जाता है कि गम्भीरतम मानवीय अनुभव भी, अगर वह कुछ खास कोटियों के अनुभव न हों, तो हिन्दी लेखक को नहीं छूते, क्यों?

इस उपर ही की घटना को लें. दुनिया में भारत और पाकिस्तान के अलावा और कोई देश शायद ऐसा नहीं है जहां ऐसी घटना हो सकती हो. लेकिन किसी भी ऐसे देश में, जो समाचारपत्रों से सर्वथा वंचित नहीं है, अगर इससे मिलती जुलती कोई घटना हो जाये, ख़ास तौर पर किसी सभ्य और लोकतांत्रिक देश में, तो सारा समाज एक बार हिल उठे. समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में न केवल पूरी पृष्ठभूमि के साथ विस्तृत विवरण प्रकाशित हों, बल्कि समाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक, संस्थात्मक, सभी दृष्टियों से घटना का विश्लेषण हो, शायद मानवीय और सामाजिक आचरण के सम्बन्ध में कुछ मौलिक खोजकार्य भी हो. सर्जनात्मक अभिव्यक्ति को न जाने कितनी प्रत्यक्ष और परोक्ष रीतियों से ऐसी घटना प्रभावत करे, क्योंकि मानवीय सम्बन्धों की नई पुरानी सभी धारणाओं को खंडित करती हुई यह घटना कितने ही ऐसे सवाल खड़े करती है जो बहुत ही तकलीफ़देह हैं. अर्थहीनता की बात आजकल बहुत की जाती है, लेकिन मानवीय सम्बन्धों के अर्थहीन हो जाने की ऐसी मिसाल और कहाँ मिलेगी?

हिन्दुस्तान में, जहाँ ये घटनाएँ संभव हैं और ऐसी बहुत असमान्य नहीं हैं, और मानवीय स्थिति की कुछ गम्भीरतम असंगतियों को व्यक्त करती है, किसी का ध्यान इनकी ओर नहीं जाता. अंग्रेज़ी पत्र पत्रिकाओं की संख्या प्रसार इस देश में सबसे अधिक है, और उनमें यकीनन ऐसी खबरें नहीं छपतीं. अंग्रेज़ी अखबार "सभ्य और शिष्ट" लोगों के सभ्य और शिष्ट अखबार होते हैं, छोटे लोगों की कुत्सित जिन्दगी की कुत्सित घटनाओं में उनकी दिलचस्पी नहीं होती. इन सभ्य और शिष्ट लोगों की यौन कुण्ठाओं और विकृतियों को अखबारों की भी दिलचस्पी इसमें नहीं. हिन्दी के समाचार पत्रों के आदर्श भी यही अंग्रेज़ी के अखबार होते हैं. इसलिए हिन्दी के अखबारों में भी ऐसी खबरें कम ही जगह पाती हैं, अंग्रेज़ी से खबरों के अनुवाद करने के बाद अगर जगह बच गयी तो डाक संस्करण में कहीं कोने अंतरे में चार छः पंक्तियों में खबर आ जाती है.मैंने भी जिस अखबार में यह खबर पढ़ी थी, उसमें वह घटना के काफ़ी दिनों के बाद उस समय छपी थी, जब उससे सम्बन्धित कुछ अभियुक्तों को छोटी अदालत ने सेशन सुपुर्द किया था.

हिन्दी का लेखक, सामाजिक चेतना और आधुनिकता के अपने तमाम मुखौटों के बावज़ूद, निहायत "सभ्य और शिष्ट" प्राणी होता है, और इसलिए वह अंग्रेज़ी अखबार पढ़ता है. जो विचार और धारणाएँ वह अंग्रेज़ी की पुस्तकों से उधार नहीं लेता, उन्हें अंग्रेज़ी के अखबारों से उधार लेता है. और इसलिए अधिकांश हिन्दी लेखकों की नज़र में वह खबर आई ही नहीं होगी. शायद विग्रह के अधिकाँश पाठकों की नज़र में भी न आई हो. और जिनकी नज़र में यह खबर आई, जाहिर है कि उनका भी ध्यान उसने नहीं खींचा. क्यों?

कोई वक्त था जब मैं मानता था कि हिन्दी का मध्यमवर्गीय लेखक, हिन्दी के सभी लेखक मध्यमवर्गीय ही हैं, अपनी छोटी सी नकली दुनिया को ही सारे विश्व का और सारी मानवीय स्थिति का पर्याय मान कर उसी में डूबा रहता है, उसी के बारे में झूठी और नकली चीज़ें लिखता रहता है, और उसी को आधुनिकता कहता मानता है. यह बात सच है. लेकिन सच शायद सिर्फ़ इतना ही नहीं है. हिन्दी के लेखको में आज बहुतेरे ऐसे हैं जो कम से कम दिमागी तौर पर जानते हैं कि जिस दुनिया में वह रहते हैं, बिल्कुल नकली है, और उससे निकलना चाहते हैं. लेकिन निकल नहीं पाते या एक तरह के झूठ से निकल कर दूसरे तरह के झूठ में फँस जाते हैं. ऐसा क्यों है? मैंने दो लेखकों से इस घटना की चर्चा की थी. उनमें से एक यह मानते हैं कि जीवन में सारे सम्बन्ध अर्थहीन हो गये हैं. इसलिए साहित्य को सार्थक बनाने की चेष्ठा पाखंड है. लेकिन जब वह सम्बन्धों के अर्थहीन हो जाने की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या है? जाहिर है कि उनका विचार पश्चिम की आधुनिकता सम्बन्धी कुछ किताबी धारणाओं पर आधारित है. अपनी निजी ज़िन्दगी में वे उतने ही "सभ्य और शिष्ट" हैं जितना कोई और. पहनना ओढ़ना, रहन सहन, बातचीत, पारिवारिक जीवन, बच्चों की पढ़ाई और रोज़मर्रा ज़िन्दगी की सारी बातों में वे शहरी मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि हैं और दूसरों से ऊँचे रहना और दिखना चाहते हैं. मैंने जब उनसे कहा कि कोई लेखक जो इस घटना को जान कर भी अप्रभावित रह जाता है, आधुनिक नहीं हो सकता, तो उन्होंने इन्कार नहीं किया. लेकिन यह भी ज़ाहिर है कि वे यह नहीं समझ पाये कि अपने दिमाग के किस खाने में इस घटना को रखें. इसमें प्रतिहिँसा है, लेकिन ऐसी प्रतिहिँसा जिसकी व्याख्या किसी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर नहीं की जा सकती. इसमें सम्पत्ति और परिवार के विरुद्ध अपराध है, इसमें बलात्कार है, लेकिन यौनकुण्डा के कारण नहीं. मान्य नियमों और सिद्धान्तों के उल्लंघन के जितने भी समाज शास्त्रीय या अन्य परिचित कारण हैं, उनमें से किसी के भी आधार पर इस घटना को समझा नहीं जा सकता.

मेरे दूसरे लेखक मित्र का "समाजिकता" पर बड़ा आग्रह रहता है. उन्होंने यह माना कि ऐसी घटना सर्जानत्मक लेखक को प्रभावित ही न करे ऐसा किसी जीवन्त साहित्य में संभव नहीं है. लेकिन मैं समझता हूँ कि उनके सामने भी वही दिक्कत रही होगी, ज़िन्दगी के बारे में समझ का जो दिमागी ढांचा है उसमें इस घटना को कहाँ रखें? कैसे समझे इसको? इसमे न कोई पूँजिपति है न सामन्त, न सेठ न ज़मींदार, न मजदूर न किसान, न कोई राजनेता, न कोई अंधविश्वास.

जो चीज़ समझी नहीं जा सकती, यानि विचार व्यवस्था में जिसे कहीं पर बिठाया नहीं जा सकता, उसके सामने आ जाने पर दो ही विकल्प रहते हैं, या तो उसकी उपेक्षा कर दें या फ़िर उसकी मानवीय पीड़ा को झेलें. इसमे कोई शक नहीं कि इसमे केवल तकलीफ़ ही तकलीफ़ है. ऐसी चीज़ का सामना करने पर आप उसको किसी भी पहलू से लें, सिर्फ़ तकलीफ़ ही होगी, और जितना आप इसका सामना करने की कोशिश करेंगे, उतनी तकलीफ़ बढ़ेगी. उपेक्षा करने के अलावा, तकलीफ़ से बचने के दो ही उपाय हैं, आप उस भीड़ के साथ अपने आप को एकात्म कर लें, और सोचें कि बहुत अच्छा किया उन लोगों ने, या फ़िर बदला लेने की सोचें. यूं दरअसल दोनो में बात एक ही है. क्योंकि बदला लेने का मतलब इतना ही है कि उसी तरह की और भीड़ें हों, जो पहली भीड़ के सदस्यों के घरों पर चढ़ाइयां करें और उनकी युवा पत्नियों को अपना शिकार बनायें.

1946 से 1966 के बीच हमने देखा है कि कभी यह धर्म का रूप ले लेती है, हिन्दू मुसलमान, कभी जाति का, जैसे इस मामले में, कभी भाषा का, बंगला असमियाँ. लेकिन हमेशा, हर मामले में, मुख्य शिकार औरतें होती हैं, गो मामला ज़्यादा भड़क जाने पर लूट मार और कतल भी इसमें शामिल होते हैं.

मुझे अक्सर अचरज होता रहा है कि इन सब को ले कर हिन्दुस्तान में कभी कुछ लिखा क्यों नहीं गया? अब मुझे कभी कभी लगता है कि हम सब उन भीड़ों में शामिल हैं, औरतें भी बड़ी आसानी के साथ अन्य औरतों के साथ बलात्कार करने वाली भीड़ों में शामिल हो जाती हैं. और इसलिए मानवीय स्थिति के रूप में हम इन घटनाओं का सामना नहीं कर सकते. किसी हद तक हम लोग मनुष्य ही नहीं रह गये हैं. लेकिन हम मनुष्य ही नहीं रह गये हैं, इसको स्वीकार करने का साहस कहाँ है? इसलिए हम उन दिमागी ढांचों से चिपके रहते हैं, जिनसे ज़न्दगी को समझने में भले ही ज़्यादा मदद न मिलती हो, लेकिन जो खुद आसानी से समझ आ जाते हैं. सहूलियत इसलिए भी है उन दिमागी ढांचों के लिए हमें खुद कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, अंग्रेज़ी किताबों की दुकानों पर उन्हें आसानी से खरीदा जा सकता है. बहुत से ढांचे उपलब्ध हैं, अपनी पसंद के मुताबिक उनमे से अर्थहीनता का, सामाजिक चेतना का, प्रगतिवाद का, आध्यात्मिकता का, या और भी कोई खरीदा जा सकता है. अब यह ढांचे किसी हद तक हिन्दी अनुवादों में भी मिलने लगे हैं, गो अभी उनमें वह निखार नहीं है जो अंग्रेज़ी में है. और जब इस तरह की कोई चीज़ सामने आ जाती है, तो हम या तो खुद भी चोरी छिपे उस भीड़ में या बदला लेने वाली भीड़ में शामिल हो जाते हैं, या फ़िर उधर से मुँह फ़ेर लेते हैं.

मुंह इसलिए फ़ेर लेते हैं कि ये चीज़ें कुछ ऐसी ही होती हैं जैसे कोई दुःस्वपन यथार्थ बन कर सामने खड़ा हो जाये. जो चीज़ किसी दुस्वपन जैसी ही भयावह, तर्कहीन और संगतिहीन हो, उसका सामना तभी किया जा सकता है जब विचार और यथार्थ की सारी सुरक्षाओं का सहारा छोड़ कर आदमी खड़ा हो जाये, दुःस्वपन के सारे भय और सारी तकलीफ़ों को झेलने के लिए, और तलाश करे कि उस अर्थहीन अमानवता की जड़ें कहाँ हैं. मुमकिन है ऐसा करने पर शुरु में भयावता और तकलीफ़ के अलावा कुछ हाथ न आये, कुछ नज़र न आये. लेकिन मैं विश्वास की सीमा तक उम्मीद करता हूँ कि जो अकेला, नर्भय हो कर इस भयावता और दर्ड का सामना करने और उसे सहने का साहस करेगा, वह इस अर्थहीनता में से नये मानवीय सम्बन्धों को तलाश करने में भी किसी न किसी हद तक कामयाब होगा.

जब तक ऐसा नहीं है हिन्दी लेखक की कलम बाँझ है, बाँझ ही रहेगी, अपनी तसल्ली के लिए हम भले ही विलायती मोम के बबुओं को हिन्दुस्तानी कपड़े पहना कर, जिनकी काट भी अक्सर विलायती होती है, खुश हो लें. यह उम्मीद मेरे मन में बनी हुई है, और मैं चाहता हूँ कि बनी रहे, कि किसी औरत का बेटा या बेटी, किसी दिन भीड़ में शामिल होने से इन्कार ही नहीं करेगा, बल्कि उस भीड़ के सामने खड़ा हो कर उनसे आँखें मिलायेगा, और उस औरत से भी आँख मिलायेगा, और उनसे भी पूछेगा, अपने आप से भी, क्यों? क्यों?

यूं बात उस औरत की नहीं है जो सामूहिक बलात्कार के बाद गाँव में नंगी घुमाई जाती है. विचार और यथार्थ की हमारी व्यवस्थाओं की, अर्थहीन अमानवीयता और भी कितने रूपों में सामने आती है, और किसी का भी सामना करने की हिम्मत हम बटोर नहीं पाते. इसलिए नहीं कर पाते कि उस अर्थहीनता और अमानवीयता में हमारी निजी और तात्कालिक सुरक्षा है, गो सबकी और दीर्घकालीन सुरक्षा नहीं. इसलिए नहीं कर पाते कि फ़िर हमें उस अमानवीयता का सामना करना पड़ेगा जो हम सब के अन्दर है.

मैंने कल के ही अखबार में दो खबरें एक के बाद एक पढ़ी थीं. दिल्ली में पटरियों पर सोने वाले दो व्यक्ति ठंड से अकड़ कर मर गये. गुलाब के प्रेमी दिल्ली की ठंड से बहुत खुश हैं, क्योंकि ठंड ज़्यादा होने पर कली को खीलने में ज़्यादा समय लगता है, जिससे फ़ूल ज़्यादा बड़ा और खूबसूरत होता है.

मुझे फ़ूलों से प्यार है. मेरे छोटे से घर में कच्ची ज़मीन नहीं है, लेकिन मैंने चार पाँच गमले रख छोड़े हैं. और मोतिया की बेल जिस दिन बढ़ कर छत पर चढ़ गयी थी, उस दिम मुझे कुछ वैसी ही खुशी हुई थी, जैसी पिछले दिनों अपने बेटे के स्वास्थ्य सम्बन्धी उसके स्कूल से आई रपट पढ़ कर, कि वह चार फीट साढ़े आठ इंच लम्बा हो गया है. जहाँ मैं दिन भर बैठ कर काम करता हूँ, वहाँ हाते में गुलाब की कई क्यारियाँ हैं, और उसमें बड़े ही खूबसूरत भूल आये हैं. लेकिन आज मैं उन फ़ूलों की तरफ़ देखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूँ. मैं जानता हूँ कि गुलाब की खुशबू मेरे लिए वापस लौट आयेगी. कुछ बदलेगा नहीं, फ़िर भी लौट आयेगी, क्योंकि यथार्थ चाहे कितना भी अमानवीय हो, उससे अपने को पूरी तरह काट लेने की ताकत मुझ में नहीं है.

और मैं यह भी जानता हूँ कि मेरी कलम तो बाँझ है. बाँझ तो हम सबकी कलम है. फर्क शायद इतना है कि कुछ लोग जानते हैं, कुछ लोग नहीं जानते. लेकिन यह जानना अपनेआप में कितनी भयंकर यातना है.

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टिप्पणी

ओमप्रकाश दीपक ने यह लेख 1966 में लिखा था और "विग्रह" नाम की पत्रिका में छपा था. तब हम लोग दिल्ली में रामजस रोड पर रहते थे और वह 7 रकाबगँज रोड पर डा. राम मनोहर लोहिया के घर पर "जन" के दफ़तर में काम करते थे.

उनका यह लिखना कि इस घटना को समझने के लिए कोई वैचारिक श्रेणी नहीं थी, कुछ अजीब सा लगता है, क्या उस समय नारीवादी फैमिनिस्ट विमर्ष नहीं था?

उनका यह लिखना कि इसे समझने के लिए भयावह यथार्थ का समाना करना पड़ेगा, भी मुझे कुछ समझ नहीं आया. दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व की संस्कृति में परिवार की स्त्रियों की "इज़्ज़त" यानि यौनिक अस्मिता को सर्वोपरि माना जाता है, इसलिए भारत पाकिस्तान आदि में सभी गालियों में परिवार की स्त्रियों से सम्भोग या बलात्कार की धमकी दी जाती है और बदला लेने के लिए यही काम किये जाते हैं. इस बात की जड़े कहाँ छुपी हैं, क्यों और कैसे बनी, आदि की वैचारिक या दार्शनिक समझ आ भी जाये तो उससे क्या होगा?

क्या बदलेगा? "पटरियों पर सोने वाले दो व्यक्ति ठँड से अकड़ कर मर गये", शायद इसी बात से वह मानसिक यात्रा शुरु हुई थी जो 1968 के उनके उपन्यास "कुछ ज़िन्दगियाँ बेमतलब" में निकलीं?

मुझे उनका हिन्दी और अंग्रेज़ी लेखन और पत्रिकाओं का दो हिस्सों में बाँटना, जहाँ अंग्रेज़ी समाचार पत्रिकाएँ पर केवल मध्यवर्गीय सोच और सतहीपन के आरोप लगाये हैं, भी आज बदला हुआ लगता है. बहुत सी हिन्दी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्र और पत्रिकाएँ ऐसी हैं, पर दोनो भाषाओं में जिलों कस्बों नमें बसने वाले भारत की बात भी होती है. यही बात चिट्ठों और इंटरनेट भी लागू होती है.

क्या इस लेख के लिखे जाने के बाद के चालीस साल बाद यह स्थिति बदली है? मेरे विचार में ऐसी घटनाएँ तो आज भी होती रहती हैं लेकिन इसके बारे में बहस विमर्श भी होता है. सन 2000 में अरुण चढ़्ढ़ा ने इसी तरह की एक घटना पर डाकूमैंटरी फ़िल्म बनायी थी, "द शेम इज़ नाट माइन" (शर्म मेरी नहीं) जिसे भारत सरकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

उनके विचारों और सोच के विलायतीपन होने के आरोप के बारे में मुझे लोगों के विचार जानना अच्छा लगेगा.

सुनील दीपक, 2 जनवरी 2012

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