01 अगस्त 2011

मैं और मेरा वक्त

टिप्पणी, 2011: ओमप्रकाश दीपक ने यह आलेख 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध से पहले लिखा था, जो शायद उसी वर्ष "क ख ग" नाम की हिन्दी पत्रिका में छपा था. उस बात को अब 45 साल हो चुके हैं. आलेख में बहुत सी बातों के वर्णन हैं जो भारत की स्वतंत्रता से दस बीस साल पहले के समाज के बारे में हैं. उनका पुरुष और नारी वाँछित गुणों के बारे में कहना, अमरीकी नीग्रो तथा भारतीय दलितों के बारे में तुलना, भारत पाकिस्तान को एक राष्ट्र के दो राज्य कहना, आदि बातें कुछ अटपटी सी लगती हैं. समय ने उनकी सोच की कई बातों को गलत साबित किया. अगर वह जीवित रहते तो शायद समय के साथ उनकी सोच बदलती?

पर जहाँ वैचारिक दृष्टि से यह आलेख मुझे तर्क से कम और भावनाओं से अधिक जुड़ा लगता है, भावनात्मक दृष्टि से यह आलेख मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि इसमें मुझे उनके बचपन के वह दिन दिखते हैं जिसके बारे में जानकारी नहीं थी. क्या जाने, आज के इलाहाबाद में "गाड़ीवान टोला" नाम की जगह बची है या नहीं? (सुनील दीपक)
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मैं और मेरा वक्त
ओमप्रकाश दीपक

पिछले दिनों मैं जेम्स बाल्डविन की एक किताब पढ़ रहा था, "दि फायर नेक्स्ट टाईम" (अगली बार आग). पढ़ते पढ़ते मेरे मन में कई बार ख्याल आया कि हिन्दुस्तान में वर्ण भेद के बारे में कोई इस तरह क्यों नहीं लिखता. एक बार यह भी ख्याल आया कि मैं खुद लिखूँ. लेकिन ख्याल आया और चला गया. मैं द्विज हूँ. बहुत कोशिश करूँ, तो भी उस तरह नहीं लिख सकता. वह चीज़ झूठी होगी. लेकिन मैं दूसरी तरह से लिख सकता हूँ शायद.

बाल्डविन की पुस्तक पढ़ते समय मन में एक अज़ीब सी जलन उठी थी, बाल्डविन के मन की जलन, जो शब्दों के माध्यम से उसने मुझ तक पहुँचा दी थी. कुछ देर मुझे भ्रम रहा कि वह मेरे अपने मन की जलन है, लेकिन थी नहीं. लिखने बैठा, और मन पीछे को मुड़ा, चलता चला गया उन दिनों को जब इलाहाबाद के गाड़ीवान टोला मुहल्ले में बिजली नहीं आयी थी, और कमीज़ के नीचे धोती बाँधे एक छोटा सा लड़का गलियों में कम ही निकलता था. उसकी विधवा माँ और दो बहनों को बहुत डर था उसके बिगड़ जाने का (और सारे एहतियात के बावजूद वह बिगड़ ही गया). उसके घर की एक बिल्कुल नकली दुनिया थी, जो नाकाम कोशिश करती थी कि उस लड़के के साथ साथ बाहर की दुनिया में जाये, और बाहर की असलियत थी कि हरदम इस दुनिया को चीर कर इसमें घुसी आती थी. लेकिन उसके लिए दोनो ही संसार सच थे - एक में वह रहता था, दूसरे में उसे जाना पड़ता था. (उन दिनों को तीस पैंतीस साल बीत गये हैं और अब एक तीसरी दुनिया भी है, उस लड़के के मन की, और इन तीनों में अब भी मेल नहीं है, शायद कभी नहीं होगा.) और वापस मुड़ कर जाते हुए, अगल बगल देखते हुए, मेरे मन में कोई जलन नहीं उठी, एक बहुत गहरी उदासी मन में घर गई. "अगली बार आग", अग्नि प्रलय, जिसमें कुछ नहीं बचता. पानी कितना भी अधिक हो, उस पर कुछ चीज़ें तैरती रहती हैं, जल में स्वयं भी प्राणी रहते हैं. ठंड कितनी भी अधिक हो, बर्फ़ जब पिघलती है, तो कोंपलें फ़िर फूट निकलती हैं. बर्फ़ जमाती है. पानी गलाता है, सड़ाता है, लेकिन आग जलाती है, झुलसाती है, जिससे एक हद के वाद कोई नहीं बचता, कुछ नहीं बचता. केवल वह चीज़ बचती है जिसे वैज्ञानिकों ने "ब्रह्म धूलि" का नाम दिया है. "अगली बार आग", अग्नि प्रलय.

अगली बार! लेकिन कोई "अगली बार" आती है क्या? मन में एक बहुत, बहुत गहरी उदासी घर कर जाती है - हम सब तो जले हुए, झुलसे हुए लोग हैं. शम्बूक का वध करने की राम को आवश्यकता नहीं थी, शम्बूक की तपस्या ही उसकी मृत्यु थी. उसे जीवन तो तब मिलता जब राम तपस्या करते, शम्बूक बनने के लिए. लेकिन वैसा हुआ नहीं और शिव के हाथों सृष्टि का सबसे बड़ा पाप हुआ - कितना व्यंग है कि अन्यथा जो पाप रहित था, अद्धनारीश्वर था, नर नारी के प्रेम का सर्वोत्तम प्रतीक था, उसी ने प्रेम के देवता को जला कर राख कर दिया.

प्रेम का देवता जल कर राख हो गया, और हमारे झुलसे हुए हृदयों पर प्रेम की वर्षा करने की तपस्याएँ विफल हो गयीं. रति है, प्रेम नहीं है. संयम करो, बुद्ध ने सिखाया, गाँधी ने भी सिखाया. रति में संयम और अनंग, अशरीरी प्रेम. गांधी स्वय मन में शंका लिये हुए ही शहीद हो गये. प्रेम और रति का संयोग, है कोई जो सिखाये. लेकिन झुलसा हुआ मन प्रेम कैसे करे? प्रेम का देवता तो जल कर राख हो गया.

स्त्रियाँ कहीं किसी जगह सब एक जैसी होती हैं. अपनी शत्रु होने में भी एक जैसी होती हैं. और इसलिए एक दूसरे के सामने अपना दुखड़ा रोने में भी एक जैसी होती हैं. लेकिन मैंने अपनी माँ को अपना दुखड़ा किसी के आगे रोते नहीं देखा. अब वह साठ साल की हैं और अब भी सुन्दर हैं! तैरह चौदह साल पहले मेरी शादी में कुछ लोगों ने दीदी को बड़ी बहन समझा था, और माँ को छोटी. पैंतीस साल पहले कैसी रही होंगी? मैं कभी कभी उसे देखता हूँ और सोचता हूँ कि अगर वह डेढ़ सौ साल पहले हुई होती, तो पच्चीस वर्ष की आयु में ज़िन्दा ही जला दी गयी होती. लेकिन अब भी, लेकिन अभी भी वह अपना दुखड़ा नहीं रोती, क्योंकि उसका दुखड़ा तो इतना व्यक्त है, इतना साफ़ दिखाई देता है कि उसका रोना क्या.

दिल्ली के अजमलखाँ पार्क में सारा साल लोग शाम को जमा होते हैं. कथाएँ होती है, भजन कीर्तन और प्रवचन होते हैं. एक जगह कुछ लोग बैठ कर राजनीतिक सामाजिक प्रश्नों की चर्चा भी करते हैं. उस चर्चा में एक दिन मैंने सुना एक सज्जन कह रहे थे कि सती प्रथा इसलिए थी कि स्त्रियाँ पतियों के स्वास्थ्य का ध्यान रखें, ठीक से खीलाएँ पिलायें, कहीं जहर न दे दें. मेरे जी में आया कि पूछूँ फ़िर पत्नी के साथ पति को जलाने की व्यवस्था क्यों न शुरु की जाये ताकि पति लोग अपनी पत्नियों के स्वास्थ्य का ध्यान रखें, उन्हें बेमौत न मारें. और, एक बार मैंने एक पत्र में अपनी पत्नि को लिख दिया कि अगर में आज मर जाईँ तो मुझे ज़रा रंज नहीं होगा. मेरी मंशा थी कि ज़िन्दगी को मैंने भरपूर जिया है. इसलिए जब भी मौत आयेगी मुझे अफ़सोस नहीं होगा. (गो अब कभी कभी लगता है कि पाँव उतने मजबूत नहीं रहे). बहरहाल, पत्नि ने उत्तर दिया, हाँ तुमको क्यों रंज होगा, तुम्हें तो छुट्टी मिल जायेगी, बिलखना तो होगा मेरे बच्चों को. स्वाभीमानी है इसलिए अपनी बात नहीं कही. लेकिन हिन्दुस्तानी औरत की ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सच यही है. पति के अमंगल का भर भूत की तरह उसके सर चढ़ा रहता है. और इस भय ने हिन्दुस्तानी औरत को तो भीरू बनाया ही है - गो अब भी समान स्थितियों में, हिन्दुस्तानी औरत शायद हिन्दुस्तानी मर्द से अधिक साहस का परिचय देती है - लेकिन, इससे भी अधिक, उसने सारी कौम को नपुसंक बना दिया है. जिजीवषा का अर्थ हो गया है किसी भी तरह किसी भी हालत में शरीर से चिपके रहना.

मैं जानता हूँ कि लोग राष्ट्रीय आंदोलन का हवाला देंगे. मैंने पन्द्रह साल की उम्र में हथकड़ी पहनी थी, और लगभग बीस साल तक मैं भी दृष्टिभ्रम का शिकार रहा. हिन्दुस्तान का राष्ट्रीय आन्दोलन का काफ़ी हिस्सा केवल एक दृष्टिभ्रम था. हमारे आन्दोलन जब दिखावे से आगे बढ़ते थे तो आत्म पीड़न बन जाते थे. गाँधी जी के बावजूद, हिन्दुस्तान ने अहिँसा को स्वेच्छा से नहीं मजबूरी में स्वीकार किया था. और मुझे अब इसमें और ज़रा भी सन्देह नहीं रह गया है कि मजबूरी की अहिँसा बहुत गन्दी चीज़ होती है. मजबूरी की अहिँसा अगर कायरता नहीं होती तो आत्म पीड़न होती है. और राष्ट्रीय आन्दोलन की परिणती हुई हत्या, लूट, बलात्कार और आगज़नी में, ऐसी जो इतिहास में अभूतपूर्व थी. गाँधी जी के भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के तीस वर्ष बाद हिन्दुस्तानी आदमी ने लड़ना नहीं सीखा, सीखा अकेले आदमी की पीठ में छुरा भोंक देना. गाँधी स्वयं खोटा सिक्का हो गये. मजबूरी की अहिँसा वाले राष्ट्रीय आन्दोलन के "चौधरी" ज्यादा अक्लमंद थे. उन्होंने मौके को हाथ से नहीं जाने दिया. डेढ़ सौ साल बाद जुआ उतरा, तो पिछले अठारह सालों से बधिया बैल फ़िर पसरा हुआ जुगाली कर रहा है. कभी कभी ज़ोर से सिर हिला कर झौकारता और निरीह बच्चों को सींग मार कर अपने पुसंत्व का प्रमाण देता रहा है, और जब भी किसी साँड ने आ कर सींग अड़ाये हैं, तो जनखों की तरह गुहार लगाता रहा है, "हाय देखो ये मुझे छेड़ता है." और दुनिया हँसती रही है, क्योंकि बधिया बैल और बधिया कौम की हरकतों पर हँसा ही जा सकता है.

मैं अपनी माँ को देखता हूँ जिसके मन का सबसे बड़ा भय है कि पति की मृत्यु देखने वाली उसकी आँखों को कहीं बेटे की मृत्यु भी न देखनी पड़े. अपनी पत्नी को देखता हूँ, "पति जैसा भी है पति है, उसका सहारा न छूटे." यह भी देखता हूँ कि अपने बेटे को वह किस तरह बाँधे रखना चाहती है, हर खतरे से दूर रखना चाहती है. खीजता हूँ कभी कभी, बहुत खीजता हूँ. लेकिन उनकी कितनी पुरखिनों को ज़िन्दा जला दिया गया होगा, और जलाने वाले उनके बेटे, भाई, बाप और ससुर रहे होंगे. मेरे मन में क्रोध नहीं उठता, जलन नहीं होती, एक बहुत गहरी उदासी घर कर जाती है.

गाड़ीवान टोला की उस गली को कैथाना कहते थे. गली में कैथा का एक पेड़ था और बचपन में मैं कैथाना की व्यत्पत्ति कैथा से हुई समझता था - कायस्थ और कैथाना का सम्बन्ध मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ. कायस्थ, बनिये, ब्राह्मण, एक दो परिवार ठाकुरों के, एक नाई और एक कहार, बस. मेरे देखते देखते भी द्विज परिवारों का धन बढ़ा. एक दो परिवारों की हालत अगर कुछ बिगड़ी भी, तो कायस्थ की जगह बनिये ने ले ली. सारी गली में पक्के मकान केवल द्विजों के पास थे (गो कुछ द्विज कच्चे घरों में भी थे), और जब बिजली आई तो उन्ही घरों में, रेडियो आया तो उन्ही घरों में.

कहार का नाम था महादेव, कहारिन का नाम मुझे नहीं मालूम. बरसों तक वह औरत मेरे घर काम करने दिन में दो बार आती रही, और उसका नाम मुझे नहीं मालूम. बहुत ही व्यावहारिक, आती, काम करती, (बल्कि सारा परिवार काम करता, कभी इक्ट्ठे, कभी कई घरों में बँट कर) और चली जाती. उसे खुलते हुए मैंने एक ही बार देखा. घर में कोई शादी थी और लड़कियाँ बिना किसी बाजे के ही बैठ कर गा रही थीं. दबे दबे गले से गाने वाली शहरी द्विज लड़कियाँ. कहारिन आयी, तो काम खतम करके अचानक बोली, "जरा खुल के गाओ." और स्वयं स्टूल खींच कर उस पर ढोलक की थाप देने लगी, "किन्नो लियो रे गोरी, तिहारो रस." "अरे कहारिन तो छिपी रुस्तम है", किसी ने कहा और कहारिन उठ गयी. बस. न उसके पहले कुछ, न बाद में.

उसका एक लड़का था, मेरी ही उम्र का छोटेलाल. माँ बाप से ले कर गली मोहल्ले के सभी लोग उसे "छोटइया" कहते थे. छोटे हर बात में मुझसे तेज था, सिवाय पढ़ायी के. उसके स्कूल जाने की नौबत ही नहीं आयी, परिवार में किसी भी बच्चे के स्कूल जाने की नौबत नहीं आई. दौड़ना, कबड्डी या गेंद बल्ला खेलना, पेड़ पर चढ़ना, कुश्ती लड़ना या तालाब के उस पार पत्थर फैंकना, आसपास का कोई भी लड़का इनमें छोटे का मुकाबला नहीं कर सकता था. सत्रह साल की उम्र में, जब दुनिया के साथ ज़ोर आज़माने के लिए मैंने घर और शहर छोड़ा, तो वह एक मुसलमान युवक रफ़ीक खाँ का नौकर मुसाहब बन गया था. रफ़ीक का बाप काफ़ी सम्पत्ति छोड़ गया था, और रफ़ीक का एक ही काम था, पास पड़ोस की तमाम नौजवान लड़कियों से इश्क लड़ाना. छोटे मुहल्ले के सभी घरों में आता जाता था (कहारिन का लड़का था) और इसलिए इन प्रेम प्रसंगो के लिए उससे अच्छा दूत कोई और नहीं मिल सकता था. रफ़ीक 1947 में पाकिस्तान चला गया. और छोटे?

छोटे कहीं बर्तन माँजता होगा, इसकी कल्पना मैं नहीं कर सकता. लेकिन फ़िर करता क्या होगा? चोरी करता होगा, यह भी मैं नहीं सोच सकता. जेबें काटता हो, यह मुमकिन है, क्योंकि उसके लिए कौशल की ज़रूरत होती है, और शिकार को बेवकूफ़ बनाने का एहसास भी होता है. यह भी संभव है कि रात बिरात किसी अकेले आदमी की साइकल घड़ी आदि छीन लेने वाले किसी गिरोह में शामिल हो गया हो. तब वह शराब नहीं पीता था, लेकिन अब मुमकिन है कि भट्ठी लगा कर शराब बेचता भी हो, पीता भी हो.

हिन्दुस्तान में छोटेलाल जैसे लोगों के सामने विकल्प दो होते हैं - अपने मन को मार कर बड़े घरों के बर्तन माँजे, या फ़िर अपराध करें, असामाजिक या समाज विरोधी बनें, क्योंकि उनकी क्षमता के उपयोग का समाज में कोई मार्ग नहीं है. अमरीकी नीग्रो के पास एक तीसरा विकल्प भी है, आत्म सम्मान की रक्षा करते हुए जीना. लेकिन हिन्दुस्तान के शूद्र के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है - उसने हजारों साल पहले ही समाज में अपनी हीन स्थिति को स्वीकार कर लिया था.

Graphics identities by S. Deepak, 2011

गाड़ीवान टोला में मेरे मकान के पिछवाड़े खुली जगह में एक नीम का पेड़ था, और पेड़ के नीचे एक घरौंदा था - पाँच-छः फुट चौड़ा, पाँच-छः फुट लम्बा. उस घरौंदे में एक परिवार रहता था. मैं जब बहुत छोटा था तो उस परिवार में छः सदस्य थे. "टेकइया" (मैं अनुमान से ही कह सकता हूँ कि उसका नाम टेक चंद होगा) और "गिलहरी" दोनो अन्धे थे. गेल्हर का काका बदलू वहीं बूढ़ा हो कर मरा था, और उसे बाजे-गाजे के साथ ले गए थे. बहुत पहले गेल्हर के भाई भावज भी वहीं रहते थे, पास की खुली ज़मीन पर. भावज का नाम तो खैर मालूम भी क्या होता, भाई का नाम भी मैं भूल गया हूँ. तीस साल तक मैंने उस अन्धे दम्पत्ति को उस घरौंदे में रहते देखा. वक्त ने तीनो के ही चेहरों और शरीर पर जो छाप डाली, उसके अलावा तीस साल तक कोई फर्क नहीं पड़ा. गिलहरी के बच्चे होते रहे, मरते रहे. केवल एक लड़की ही जीवित रही - बड़ी बड़ी रसीली आँखों वाली ललिता. एक बार बचपन में उसकी भावज को एक साफ़ रंगीन साड़ी पहने देखा (जो शायद उसे किसी बड़े घर से मिली थी) मैं उसे पहचान नहीं सका था. उसके कुछ दिन बाद ही उस खुली जगह में उसे साँप डस गया. उसके मर जाने पर उसका पति भी कहीं चला गया. ललिता का ब्याह हो गया और अन्धे पति पत्नि अकेले रह गये.

टेकचंद बहुत ही कम बोलता था, बहुत ही कम. गेल्हर उतनी ही वाचाल थी. औरों को नहीं जानता, मुझे वह चाल से ही पहचान लेती थी. मेरे आश्चर्य प्रकट करने पर हँस कर कहती, "हे ल्यो! का मैं आँधर हौं कि न पहिचानिहौं!" यह उसका प्रिय मज़ाक था. कभी कहीं खुशी का मौका होता तो मगन हो कर गाती, "लायो महाराजा हमें छल करके." यह उसका प्रिय गीत था. कन्ट्रोल को कन्टोर और इन्सपेक्टर को निसपिट्टर कहती थी. सावन के महीने में उसकी नीम पर झूला पड़ता और आसपड़ोस की औरतें इक्ट्ठी हो कर झूलती और सावन गाती. मुझे ऐसा याद पड़ता है कि मैंने उसे हमेशा काली धोती पहने हुए ही देखा. अब सोचता हूँ कि शायद जहाँ से भी उसे धोती मिलती होगी, उसे वह काले रंग का ही लेती होगी, साबुन सज्जी की बचत.

कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं, कोई वर्तमान भी नहीं. मन के अन्दर के न जाने किस कोने से वह अपनी हँसी का बहाव निकालती थी, अब अपने साथ वैसा छल कर पाती होगी क्या?

इतना भी मुझे याद पड़ता है कि उसकी भावज जब जिन्दा थी, तो कभी कभी घर आ कर रोती थी - उसका पति दिन भर जो कमाता था, शाम को ताड़ी पी लेता था, ऊपर कर्ज कर लेता था. रात को घर (!) आकर पीटता था, पैसे छीन लेता था.

और अब भी माँ के पास अक्सर औरतें आती हैं, हरिजन औरतें, शूद्र औरतें, और सबका एक ही किस्सा है, सबका एक ही दुश्मन है - दारू. अपनी सारी ज़िन्दगी में दो ही हरिजन डाक्टरों से मेरी भेंट हुई है. एक होम्योपैथी करते हैं, दूसरे के पास भी कोई डिगरी नहीं है, पुराने किसी नियम अन्तर्गत डाक्टरी करने का, या कम से कम दवाईयाँ बेचने का लायसैंस उन्हें मिला हुआ है. उकी दुकान पर औषधि निर्माताओं की प्रचार सामग्री प्रचुर मात्रा में देखी जा सकती है - रंग बिरंगे फोल्डर, कार्ड, सोख्ते, लेकिन सिर दर्द की भी दवा नहीं मिलती. मरीज आते हैं, डाक्टर को दिखाये बिना ही अन्दर चले जाते हैं, दवा पी कर बाहर आते हैं, पैसे देते हैं और चले जाते हैं. एक बार कुछ परेशान से दिखे, इलाके में नया मजिस्टर आया था, जिसके बारे में प्रसिद्ध था कि वह बड़ा सख्त है. लेकिन दूसरे दिन उनका चेहरा फ़िर खिला हुआ था, थानेदार की मार्फत सारा मामला तय हो गया था.

डाक्टर साहब इलाके के हरिजनों के नेता है, पिछली बार चुनाव भी लड़े थे, काफ़ी वोट मिले थे, लेकिन हार गये, क्योंकि कांग्रेस का उम्मीदवार उनसे पड़ा और ज़्यादा दबदबे वाला चौधरी था. डाक्टर साहब को द्विजों से कोई लगाव नहीं है, वे हरिजनों के पूर्ण हितैषी हैं, लेकिन बस ज़िन्दगी ही ऐसी है.

अमरीकी नीग्रो को शकल से पहचाना जा सकता है. लेकिन इसमें नीग्रो की मुक्ति भी निहित है - उसे "गोरा" बनने की चेष्टा करने का लोभ नहीं होता. वह अपने पुरखों की गुलामी को स्वीकार कर सकता है, अपनी वर्तमान स्थिति के तथ्य को भी स्वीकार कर सकता है, और गोरों से कह सकता है कि हमें अपने को नहीं सुधारना, तुम्हें अपने को शिक्षित करना है, तुम्हें नैतिक बनना है! सवाल यह नहीं है कि तुम हमें स्वीकार करो, सवाल यह है कि हम नीग्रो लोग तुम्हें स्वीकार करें.

लेकिन हिन्दुस्तानी शूद्र के साथ ऐसा नहीं है. गोरे लोग समाज में नीग्रो को जो स्थान देना चाहते हें या देते हैं, उसे वह स्वीकार नहीं करता. पिछले दिनों मुझे यह जान कर निजि क्षति का अनुभव हुआ कि अमरीकी नीग्रो लेखिका लोरायन हैंन्सबरी की कैंसर से मृत्यु हो गयी. कई वर्ष पहले मैंने उनका एक वाक्य पढ़ा था, जिसे मैं पहले भी एकाध बार उद्धृत कर चुका हूँ, और यहाँ फ़िर करना चाहता हूँ: "यह सच है कि साहित्य मात्र का उद्देश्य मानव जाति में समाहित होना है, लेकिन इससे पहले ज़रूरी है कि दुनिया के दबे हुए लोग अपने को पहचानें."

यह पहचान ही ऐसा काम है, जो भारतीय शूद्र के लिए लगभग असंभव जैसा कठिन है. हज़ारों साल पहले ही उसने द्विजों द्वारा समाज में अपने लिए निर्धारित स्थान को स्वीकार कर लिया था. भरी दोपहरिया में मेरी जमादारनी प्यासी रह गई, लेकिन उसने अपने हाथ से मेरे गिलास में पानी ले कर पीना स्वीकार नहीं किया. वह अब भी जमादारनी है, जिसका काम है पाख़ाने साफ़ करना, और कूड़ा उठाना. अस्पृश्यता निवारण़ कानून! उसको विरासत में यह ज़िम्मेदारी मिली है कि दूसरों की गन्दगी साफ़ करे. उसके बाद यही काम उसके बेटे बेटियों बहुओं को मिलेगा और उसके बाद उनके बेटे बेटियों बहुओं को. इस सिलसिले के चलते हुए क्या अस्पृश्यता निवारण कानून जैसे हज़ार कानूनों का भी कोई मतलब हो सकता है?

लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हिन्दुस्तान का शूद्र सिर उठा कर यह नहीं कह सकता कि हाँ मैं शूद्र हूँ, और तुमसे किसी तरह भी कम नहीं हूँ, किसी तरह छोटा नहीं हूँ. वह अपनी स्थिति को बदलना भी चाहता है तो द्विज बनने की चेष्टा करता है. द्विज वह बन नहीं सकता, इसलिए अन्ततः आत्म सम्मान भी प्राप्त नहीं कर सकता. मन ही मन उसके अन्दर जलन और हीन भावना बनी रहती है, बढ़ती जाती है. मुझे एक मित्र ने बताया जो शूद्र हैं, और साम्यवादी नहीं हैं कि चीनी आक्रमण के समय बहुसंख्यक शूद्र मन ही मन खुश हुए थे कि चलो अच्छा है द्विजों की सत्ता समाप्त होगी. लेकिन, इस बात के अलावा कि आज के चीनी आक्रमण और दो सदी पहले के अंग्रेज़ी आक्रमण में कोई विषेश अंतर नहीं है, और अगर दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान फ़िर कभी गुलाम हुआ, तो नये शासक द्विजों के माध्यम से ही शासन करेंगे, यह तथ्य उससे भी बड़ा है कि शूद्रों में देश द्रोह की भी क्षमता नहीं है, देश द्रोह भी द्विज ही करते हैं. हिन्दुस्तान का शूद्र तो बिल्कुल ही झुलस गया है, स्वतंत्र रूप से कोई भी काम करने की क्षमता उसमें नहीं है.

इन्हीं मित्र ने पिछले दिनों एक खंड काव्य लिखा. कोई ऐसी असाधारण रचना नहीं फिर भी ऐसी रचनाएँ द्विज लेखक लिखते रहते हैं, और वे छपती रहती हैं. लेकिन मेरे इन मित्र की कविता कहीं नहीं छप रही.

मेरी नज़र में इससे भी बड़ा एक सवाल और है. कविता के कुछ अंश उन्होंने मुझे सुनाये. मैंने जब सीधा सवाल किया कि आप का जो प्रत्यक्ष अनुभव है, जो कुछ आप ने भोगा है, उसे ले कर आप ने कभी कुछ लिखा है, तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. नहीं लिखा, क्योंकि शूद्र होने का जो अर्थ है, उसे शारिरिक तौर पर स्वीकार और नैतिक स्तर पर अस्वीकार करने के बजाय, वे मूलतः उसे नैतिक स्तर पर स्वीकार और शारीरिक स्तर पर अस्वीकार करने की चेष्टा करते हैं.

जले हुए, झुलसे हुए लोग, बिगड़ती हुई नस्ल. लेकिन दिल्ली में युगोस्लाविया के एक भूतपूर्व राजदूत ने, जो कला मर्मज्ञ भी हैं, कहा कि हिन्दुस्तान में उन्हें किसान मजदूर औरतें दिखायी ही नहीं दीं, हर हिन्दुस्तानी औरत की चाल रानियों जैसी होती है. आग में झुलसे हुए लोग, तपा हुआ सोना. मुश्किल यह है कि आदमी तो असंख्य धातुओं का बना है. जब वह स्वयं अपनी शुद्धि करता है, तब भी अक्सर बात बिगड़ जाती है. जब वह शुद्ध किया जाता है, तो हर हालत में अनिवार्य ही, इसका एक ही परिणाम होता है, आदमी का झुलस जाना. संस्कारों में हमेशा ही एक पीड़ा निहित होती है. और पीड़ा सहने की सामर्थ्य आ जाए तो मनुष्य को ऐसी भंगिमा प्रदान करती है जो बड़ी ही गरिमामयी प्रतीत होती है. लेकिन निरपेक्षता और जड़ता का अन्तर बहुधा बड़ा बारीक होता है. निरपेक्ष बनते बनते हिन्दुस्तानी आदमी जड़ हो गया है, ब्रह्मचारी तो नहीं बन सका, नपुंसक बन गया. हज़ारों साल के संस्कारों ने हिन्दुस्तानी औरत को गज़ब की चाल ढाल प्रदान की है, किसी हद तक हिन्दुस्तानी मर्द को भी. लेकिन अन्दर से मर्द औरत दोनों झुलसे हुए हैं, और यह झुलसे हुए मन बिल्कुल सड़ गये हैं.

अतीत और वर्तमान पर नज़र डालता हूँ तो एक गहरी उदासी मन में घर कर जाती है. भविष्य की ओर देखने का साहस एकत्र करने में मन एक बार काँप जाता है. हिन्दुस्तान में जिजिवषा का अर्थ बदल गया है - किसी भी तरह शरीर से चिपके रहो. शरीर रोगी हो, कोढ़ी हो, ज़न्दगी रोगी कोढ़ी हो, खुशी की एक किरण भी न हो, फ़िर भी शरीर से चिपके रहो. बचना फ़िर भी नहीं होता. हर साल लाखों आदमी हैजे से मरते हैं, चेचक से मरते हैं, निरन्तर भूखे या अधपेटे रह कर तिल तिल मरते हैं. लेकिन हैजा और चेचक और भूख को उन्होंने स्वीकार कर लिया है. चेचक निकली है, शारदा माता आयी है. पानी नहीं बरसा, यज्ञ करो. इन्हें ख़तम करने की कोशिश में खतरा है, मौत का खतरा है. हिन्दुस्तानी आदमी पीठ पर छुरा खाता है, पीठ पर छुरा मारता है, छाती पर नहीं. और कहीं कोई संकल्प नहीं है, निष्ठा नहीं है, निर्णय नहीं है. लेकिन उदासी के इस बहुत गहरे दलदल में फँसे हुए भी हार नहीं मानी जा सकती. हार मान लेने पर तो एक ही मार्ग शेष रहता है - आत्महत्या. किन्तु हार न मानने का मतलब होता है जि़न्दगी को एक स्थायी जोखिम में डाल देना. तमाम झूठे सहारों को छोड़ देना, तोड़ देना, चाहे वह इतिहास और परम्परा के हों, चाहे धर्म और नैतिकता के हों, चाहे आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा के हों. हार न मानने का मतलब है जीवन की तमाम असुरक्षाओं को स्वीकार करना, और इन असुरक्षाओं से लड़ते हुए जीवन के अंकुर को उगाना और पोसना. बहुत मुश्किल है, बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि हर तरफ़ सुरक्षा का आश्वासन है कि हमारी शरण में आओ. जाति की सुरक्षा, धर्म की सुरक्षा, सामाजिक संगठन की सुरक्षा, राज्य की सुरक्षा, अंधविश्वासों की सुरक्षा. न जाने कितने, कैसे कैसे अंधविश्वास हैं. हमारी शरण में आओ! सुरक्षा नहीं है. कहीं किसी में नहीं है. लेकिन दिल के बहलाने को जन्नत का ख्याल तो अच्छा है ही. और जीवन के साथ जीवन की असुरक्षाओं को स्वीकार करने की तकलीफ़ से आदमी बच जाता है.

पचीस वर्ष की आयु में विधवा हो कर जिस स्त्री ने अपनी संकल्प शक्ति के सहारे ही खुद पढ़ा लिखा, और प्राथमिक पाठशाला में नौकरी करके बच्चों को पाला पढ़ाया, उसी का लड़का जब जीवन के परिचित दायरे से बाहर निकल गया, स्वीकृति मान्यताओं के दायरे से बाहर निकल गया, तो उसकी तर्क बुद्धि ने हार मान ली. अब वह नियमित रूप से मासिक "कल्याण" पढ़ती है, और जीवन के हर सवाल का उसके पास एक ही उत्तर है - जो कुछ करता है, ईश्वर करता है.

लेकिन मैं हार नहीं मान सकता. जिन कठघरों में हम जन्म लेते हैं और पलते हैं, उनसे बाहर निकलने की चेष्टा करने वाले, हार नहीं मान सकते. उनके सामने तो एक ही मार्ग है - इन कठघरों को तोड़ना, ताकि इनसे बाहर निकल कर जीवन की समस्याओं का, जीवन की असुरक्षाओं का सचमुच सामना कर सकें, उन पर विजय पाने का वास्तविक प्रयास कर सकें.

यह लड़ाई जितनी बाहरी शक्तियों से हैं, उतनी ही अपने अन्दर खुद अपने आप से भी है - अपने संस्कारों से, न जाने कितनी ऐसी बातों से, जिन्हें हम मान कर चलते हैं, जिन्हें कसौटी पर कसने का ख्याल नहीं आता, लेकिन जो अन्धविश्वासों पर आधारित हैं, केवल अंधविश्वासों पर, ऐसे अन्धविश्वासों पर, जिन्हें सामाजिक मान्यता मिली हुई है. और यह लड़ाई हर वक्त है, हर जगह है, विचारों भावनाओं में, निजि और सार्वजनिक आचरण में, संगठित और सस्वतः स्फूर्त व्यवहार में, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सम्बन्धों में.

हार हो या जीत, यह लड़ाई तो करनी ही है. हर हालत में लगातार करनी है, क्योंकि यह तो जीवन की स्वीकृति का अनिवार्य परिणाम है. हारना मृत्यु नहीं है, हार मानना मृत्यु है. और इसलिए लड़ना ही है, जो भी हो, लड़ना ही है.

पुनश्चयः पाँच अगस्त और तेईस सितम्बर के बीच युद्ध स्थल में हुई घटनाओं में क्या ऐसा कोई संकेत है जिससे इस लेख में कुछ जोड़ना या घटाना वाँछनीय हो? इस अविधि के कुछ ही पहले यह लेख लिखा गया था, और उसके बाद भी ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जो इस लेख की स्थापनाओं को किसी तरह प्रभावित करता हो. लेकिन उस अविधि में, विषेशतः 6 सितम्बर और 23 सितम्बर के बीच के अठारह दिनों में ऐसा लगता था कि इस बूढ़े देश के शरीर में एक बार बिजली दौड़ गई है. हो सकता है दिल्ली में रहने के कारण मुझे विषेशतः ऐसा लगता है, क्योंकि दिल्ली राजधानी होने के अतिरिक्त पंजाब से लगी हुई है, और वस्तुतः सारे देश के लिए यह बात सच न हो, या उतनी सच न हो. ऐसा भी नहीं कि जो कुछ हुआ वह सब अच्छा ही था - बहुत कुछ बुरा भी था. लेकिन इतना भी क्या कम था कि चाहे यह एक प्रकार का गृह युद्ध ही था (दो राज्य होने पर भी राष्ट्र तो एक ही है), फ़िर भी यह लड़ाई साम्प्रदायिक नहीं थी, वरना राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के बीच का पुराना विरोध एक नये रूप में फ़िर से उभरा था. दूसरे, यह लड़ाई, पीठ में छुरा भोंकने की नहीं, बराबर या लगभग बराबर के हथियारों से आमने सामने लड़ने की थी. तीसरे स्वतंत्र भारत की पल्टन, अपने ही नौजवान अफसरों के नेतृत्व में पहली बार अच्छी तरह लड़ी. जीत हार का उतना महत्व नहीं, क्योंकि कुल अठारह दिन ही लड़ाई चली, और जीता हारा गया कुल रकबा लगभग उतना ही है जितना दिल्ली नगर निगम का अधिकार क्षेत्र. महत्व की बात है कि सेना अच्छी तरह लड़ी.

इस अंतिम बात को, विषेशतः जीत को बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है, जबकि वास्तविक महत्व इस युद्ध के राजनीतिक कारणों का है - राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता का संघर्ष. और यह संघर्ष उन तमाम संघर्षों से जुड़ा हुआ है, जिनकी गवाही मैंने इस लेख में देनी चाही है.

क्या इस युद्ध से संकेत मितला है कि लोकवादी, असाम्प्रदायिक, और सामाजिक एकता पर आधारित राष्ट्रीयता की पुनः प्रतीष्ठा पर ही देश का भविष्य निर्भर है? निश्चय ही हाँ. क्या इससे यह भी संकेत मिलता है कि इस कार्य के लिए आवश्यक शक्ति, चेतना और संकल्प देश में मौजूद हैं? इस प्रश्न का उत्तर देना कुछ कठिन है, क्योंकि इतिहास के दिशा संकेतों पर भरोसा करना खतरनाक होता है, अगर उन्हें बल देने वाले संगठित और निरन्तर सक्रिय प्रयास साथ में न हों. फ़िर भी, समस्या अंततः सीधे आत्मरक्षा की है, अपने अस्तित्व को बनाये रखने की है, और जब जान खतरे में हो, तो दुर्बल से दुर्बल प्राणी भी एक बार बहादुर बन जाता है.

भरोसा तो आखिरकार कसी बात का नहीं, सिवाय इसके कि जिन्हें एहसास है, उन्हें हर हालत में लड़ना ही होगा, चाहे लड़ाई बंदूक की हो, चाहे मन की.

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