20 अप्रैल 2010

पीड़ा

13 नवंबर 1997, इमोला, इटली

कल 14 नवंबर को अमेरिका जाना है. नादिया को देख कर बहुत संतोष हुआ. बड़ी प्यारी बच्ची है. पिछले जन्म का ही कोई सम्बंध लगता है. दिन भर घर और बाहर के काम में लगी रहती है. आराम उसे मिलता नहीं. उसके स्वास्थ्य की चिंता रहती है.

इधर बहुत पढ़ा है, यह अच्छा भी रहा है. लगातार तीन मास तक दिल्ली में भागने के अलावा कुछ काम नहीं किया. सगे रिश्तों में भी दरारें पड़ी हैं, सो दिमाग पर बोझ और तनाव अधिक रहा. आरम्भ में तो मानसिक पीड़ा से मन बहुत छटपटाया. यहाँ भी कभी उस ओर ध्यान जाये तो कंपकंपा जाती हूँ, छटपटाहट सी बनी रहती है, ऐसा क्यों होता है मेरे साथ?

इतनी असहनीय पीड़ा तो तब भी नहीं हुई थी जब एकाएक अकेला रहना पड़ा था. पर स्वार्थों से जुड़े सम्बंधों की शिकायत किससे करूँ. पैसा ज़रूरी तो है, परन्तु इतना नहीं कि रिश्ते ही न रहें. खैर अभी तो शान्तनु और केतन के साथ समय कट जायेगा. उसके बाद जा कर सम्भालना होगा सब. अभी तो पूरा बोझ विनी पर डाल दिया है, जैसे तैसे सम्भालेगी.

इस बार कुछ अच्छा पढ़ा. उससे जीवन को और जीवन के सौंदर्य को देखने की नयी स्फूर्ती मिली. अध्ययन से ही उल्लास और प्रकाश आत्मा को मिलता है. इधर कई बार तुम्हें सपने में देखा, कारण शायद मेरी मानसिक दुर्बलता रही हो. इधर कभी कभी मानसिक संतुलन नहीं रख पाती. विदेश में रहने की घुटन एक पीड़ा है जिसे आत्मा महसूस तो करती है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती.

अब समय ऐसा आया है कि किसी से शिकवा शिकायत का समय नहीं रहा, स्वयं ही उसका सुख दुख सहन करने की आदत डालनी होगी. हमारी जड़े पराई हैं, इस वातावरण की धरती में प्रयत्न करने पर भी जड़े नहीं लग सकतीं, केवल अस्तित्व ही शेष है.
क्षण के बाद क्षण, सैकेंड, मिनट, घंटे. सूर्योदय और सूर्यास्त. अँधेरे पर उजाला. सरपट जाते कैलेंडर के पन्ने और अंत में कैलेंडर का एक सचित्र टुकड़ा. बीते वर्ष की परछाई मात्र.

ज़िन्दगी क्या है? क्यों हम सदैव रात दिन उलझनों, परेशानियों और भाग दौड़ में लगे रहते हैं. चैन से दो समय भोजन भी नहीं हो पाता और परिणाम शून्य. क्षणों में ही उसका अस्तित्व मिट जाता है, जैसे बरसाती कीड़े. सदैव वही चक्कर और कष्ट, मृत्यु से दुःख होता है और वह दिन सभी के लिए आता ही है, अतः सभी को मोह त्याग कर जाना ही पड़ेगा. परन्तु वह दिन उस समय ही आ पहुंचे तो? आत्मा चीत्कार उठती है और हृदय द्रवित हो उठता है. हज़ारों आशाँए साथ लिए मनुष्य चल पड़ता है, अदृश्य शक्ति की लीला ही से मनुष्य अपना कर्तव्य करता है और प्रकृति अपना. परन्तु इस तरह की कई चाहे हैं कि जो निश्चित स्थान पर छू दें तो लौट कर स्वयं अपने ही मन को काटती चलती हैं. अपनी मिट्टी का मोह भी कितना बड़ा होता है. पिछले कई वर्षों से मेरे मन को सालता रहा है. कभी कभी वैसी अनुभूति अनभोगी सी लगती है. कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जो निश्चित समय के पहले ही मन पर गहरा साया किये धीरे धीरे आस पास ही बने रहते हैं. उनकी वेदना की आशंका बार बार घेरती है कि वास्तविक क्षणों से गज़रने का एहसास अर्थात कुछ पीड़ाएँ इतनी परिचित देखी जानी पहचानी और आत्मीय सी लगती हैं कि हम उन्हें झेलने के लिए भूले से बैठे होते हैं. लेकिन जिस समय अचानक वह आ कर खड़ी हो जाती है लगता है कि उसकी अवहेलना करके अच्छा नहीं किया. पहले से ही उसकी तैयारी रहती तो शायद दुख की मात्रा कम महसूस होती.

कितनी अज़ीब बात है कि जिन स्मृतियों को हम सुरक्षित सहेज कर रखते हैं वह सचमुच याद करने से नहीं लौटतीं, और लौटती भी हैं तो इतनी अस्पृष्ट और धुँधली हो कर, अपरिचित और परायी सी लगती हैं. मन उन्हें उस तरह स्वीकार नहीं करता. जैसे चुल्लु में सहेजा हुआ जल कितना भी सहेजो, उँगलियों के पोरों से निकल जाता है, एक क्षण के लिए ठहरता नहीं, केवल इसके कि हथेली गीली हो जाती है और केवल उसका अहसास रह जाता है.

कभी कभी लगता है कि कुछ भी करती रहूँ या सपने देखती रहूँ, इस तरह कभी नहीं हुआ कि एक क्षण के लिए तुम्हारा ध्यान हटा हो. कभी कभी तो उलझन में पड़ कर अपने स्वभाव पर झल्लाहट होने लगती है, लगता ही नहीं कि इतना समय बीत गया और मैं बूढ़ी हो गयी हूँ.

आदमी कैसे कैसे सपने पालता है और यह सपने उसे कहाँ से कहाँ ले जाते हैं? किसी न किसी पीड़ा या दर्द की तह तक ही तो. तुम्हारी आँखों की गहराईयों वाला रूप बार बार झलकने लगता है और एक अनजाने से अनुभव की पीड़ा मेरे स्नायुओं में सिहर सिहर उठती है.

कभी कभी मैं स्वयं को कहीं बहुत नीचे रिक्त पाती हूँ, बंजर और बियाबान. वास्तविकता लगता है कि केवल एक भुलावा है, चीज़ का आवरण मात्र. परन्तु हर वास्तविकता अपने में तथ्यपूर्ण होती है, और कभी न कभी उन तथ्यों का सामना करना ही पड़ता है. समय तो निरन्तर एक सा ही रहता है. हम लोग ही उसे चलते हुए अनुभव करते हैं और उसे ठहरा हुआ महसूस करते हैं. इसका ज्ञान नहीं है कि किस प्रसंग में, समय किसमें क्या अनूभूति भर देता है.

कभी कभी बुरी घड़ी कई तरह से भयावय बन कर आती है और देर तक ठहरने लगती है, लेकिन बुरी से बुरी परिस्थिति भी स्थाई तो नहीं ही होती. इसलिए सोचती हूँ कि अपने दिल दिमाग से सारे बोझ उतार कर या छोड़ कर, जो भी ज़िन्दगी में होने वाला है उसे महज दर्शक बन कर देखना चाहिये. तभी जीवन जिया जा सकता है. पुरुष सदैव अपना दोष और कमज़ोरी औरत पर डाल कर उसे इसी तरह दंडित करता रहा है और उसे अपराधी ठहराता है. अपने को हमेशा निर्दोष और पाक साफ़ बन संतुष्ट होता रहा है और अपने छल कपट की कैफियत का अधिकार भी अपने पास ही रखे रखता है. उसको अपने किये कर्म और अपने तरह तरह के चेहरे नहीं दिखाई देते.

प्रायः पुरुष लोग इतिहास कि जिस धारा में जीते आये हैं, उसकी परम्परा से कैसे अलग हो सकते हैं? दरअसल इस दुनिया में मोटी खाल का होना हर स्त्री के लिए अति आवश्यक है. कुंठित व्यक्तित्व उसे पीड़ा के सिवाय क्या दे सकता है? कभी कभी तो उसकी इसी निरीहता पर दया भी आती है कि किस तरह वह स्वयं ही अपने बिछाये कर्म जाल में फँसता चला जाता है.

(कमला की डायरी से)

3 टिप्‍पणियां:

  1. डायरी का यह पन्ना अन्तर्मन के भावों से भीगो गया.

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  2. कमला जी के लेखन पक्ष से अन्भिग्य रही-यह भी अपने आप में एक समाज-शास्त्रीय टिप्पणी है।
    बहुत ही सुन्दर व शाश्वत प्रेम कि एक तस्वीर सामने आकर नज़र को धुन्धला गयी।
    माताजी की डायरी पढ्वाने का धन्यवाद।

    स्वाति

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  3. डायरी के कई पन्ने पढ़ने पर भी लगता है अभी और...अभी और बहुत कुछ जानना बाकि है...माँजी की डायरी पढ़वाने का धन्यवाद...

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